RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
छह सुन्दर पुष्पों का मधुर गंध वहन करता हुआ पवन, पुष्पपुर राजोद्यान में विचरण कर रहा था। स्वच्छाकाश में आती हुई चारु चन्द्रिका, अर्द्धप्रस्फुटित कलिकाओं का सुकोमल मुख चुम्बन कर रही थी। मदमत्त पौधों की टहनियां सौन्दर्य भार से दबी हुई, पुष्पराशि का भार वहन करती हुई, मंथर गति से अपना मस्तक हिला रही थी, मानो प्रकृतिनी के उस हृदयोल्लासपूर्ण सृजन पर अपनी स्वीकारोक्ति प्रदान कर रही हो।
चारों ओर श्वेत स्फुटित से आच्छादित राजोद्यान के अनुपम सरोवर ने अपने वक्षस्थल पर जगत की सारी सुषमा का एकत्रीकरण कर रखा था।
परमोज्ज्चल सलिल राशि के ऊपर आच्छादित अगणित कुमुदिनी के पुष्प एवं उनके विकसित श्वेतांगों पर मनमोहक एवं मुग्धकारी मुस्कान बिखेरती हुई चारु-चन्द्रिका का वह दृश्य दर्शनीय था।
मारीचिमाली के रजत-किरीट की रश्मि राजोद्यान के कोने-कोने में नृत्य कर रही थी। संध्या समीर की मृदुल हिल्लोल से प्रकृति-नटी का मुख मुखरित हो उठा था।
उद्यान एक अपूर्व शोभामयी रंगभूमि में परिणत हो गया था। वृक्षों का आलिंगन कर लतायें आनंद-विभोर हो रही थीं। विहंग समूह नीड़ों से मधुर रागिनी अलाप रहा था। पल्लव-पल्लव से विमल आलोक छटा देदीप्यमान हो रही थी। कलिकायें मदमत्त हो रही थीं। प्रकृति श्रृंगारमयी होकर मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। साथ ही युवराज की प्रतीक्षा कर रही थी एक श्वेत स्फटिकशिला पर कलापूर्ण ढंग से बैठी हुई सौंदर्य की अनुपम प्रतिमा, किन्नरी निहारिका।
निहारिका की अतुल रूपराशि से राजोद्यान जैसे उन्मत्त-सा हो रहा था। कैसा आकर्षक, कैसा प्रोज्वल, कैसा मनोरम एवं केसा शांतिदायक वातावरण था।
"अभी तक नहीं आये युवराज...?' अधिक विलम्ब होते देखकर किन्नरी अन्यमनस्क हो उठी —'आयेंगे भी या नहीं-कौन जानता है? वे हैं युवराज...! एक अधम किन्नरी के लिए वे क्यों इतना कष्ट उठायेंगे...? यह तो उनका कथनमात्र था, केवल शिष्टाचार था कि राजोद्यान में मुझसे मिलना।'
प्रकृति निस्तब्ध थी। केवल एकाकी बैठी हुई निहारिका संतप्त हृदय से युवराज की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके जीवन में आज यह प्रथम अवसर था कि वह युवराज से एकांत में भेंट करने आई थी।
पत्ते खड़के और किन्नरी को विश्वास हो गया कि युवराज पधार रहे हैं। युवराज को संतप्त करने के अभिप्राय से वह एक दीर्घाकार वृक्ष की ओट में जा छिपी।
दूसरे ही क्षण युवराज आये, परन्तु युवराज की मुखाकृति म्लान पड़ गई, यह देखकर कि अत्यधिक विलम्ब हो जाने पर भी किन्नरी निहारिका नहीं आई है। पार्श्व के वृक्ष की ओट से कुछ खड़खड़ाहट हुई।
युवराज ने कोई जन्तु होने का अनुमान किया। उन्होंने झुककर भूमि पर से एक कंकड़ उठाकर उसे वेग से वृक्ष की ओर फेंका।
तुरंत ही एक धीमी कराह की ध्वनि उस वृक्ष के पास से आई।
युवराज आश्चर्यचकित मुद्रा में कराह का लक्ष्य करते हुए वहां जा पहुंचे। देखा—अपना बाम मणिबंध पकड़े हुए निहारिका अब भी कराह रही है। 'निहारिका तुम...?' युवराज उतावली से बोले।
किन्नरी ने झुककर युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया।
'चोट तो नहीं आई...?' पूछा युवराज ने।
'नहीं।' निहारिका ने कह दिया, परन्तु उसे हल्की-सी चोट अवश्य लग गई थी, जहां से क्षीण रक्तस्राव झलक उठा था।
'चोट अवश्य आई है तुम्हें! लाओ देखू ?' युवराज ने आगे बढ़कर किन्नरी का मणिबंध पकड़ना चाहा।
परन्तु उसी समय प्रकृति की नीरवता को बेंधता हआ यह गीत प्रतिध्वनित हो उठा-'मत छना रे, वह मोती जो अनबोल कहाये।' अपने प्रकोष्ठ में बैठा हुआ चक्रवाल वीणा के तारों पर यह गीत गा रहा था और स्वरलहरी यहां तक पहुंचकर, कर्ण-कुहरों में मधुवर्षा करने लगी थी।
युवराज ने गीत से चौंककर अपना हाथ खींच लिया। किन्नरी के मणिबंध से दो बंद रक्त टपक कर भूमि पर आ रहा।
'यह क्या...?' रक्तस्राव।' उतावली के साथ युवराज ने किन्नरी का मणिबंध अपने हाथ में लेकर देखा_'ओह ! यह तो क्षत हो गया है।'
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