RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
चारू-चन्द्रिका भी बादलों की ओट में छिप गई। कुमुदिनी ने अपने नेत्र बंद कर लिए। पल्लव विकलता से हिल पड़े।
बाह प्रकम्पित हो तीव्र गति से प्रवाहित हो उठी, डाल पर बैठी हुई कोयल करुण-स्वर में कूक उठी।
सात मनोहर बनस्थली के कोड़ में रहने वाले किरात एक सघन पर्कटी वृक्ष के नीचे वार्तालाप करने में तल्लीन थे।
भगवान अंशुमालि की अंतिम किरण-राशि अब भी इतस्तत: गगनचुम्बी वृक्षों की चोटियों पर नृत्य कर रही थीं। साध्य-समीर मृदुल गति से हिलोरें ले रहा था।
क्लांत पक्षीगण अपने नीड़ों की ओर मधुर कलरव करते हुए तीव्र वेग से उड़े जा रहे थे। 'भाई! ऐसा नायक किरात-समुदाय के विगत इतिहास में सहस्रों वर्षों में नहीं हुआ.... एक किरात कह रहा था—'पणिक ने नायकत्व का कार्य जिस योग्यतापूर्ण विधि से संचालित किया है, वह सर्वथा स्तुत्य है—जितनी प्रशंसा उसकी की जाये थोड़ी है...।'
'इतनी छोटी अवस्था में इतनी योग्यता, मैं तो इसे देवी वरदान ही कहूंगा।' एक वृद्ध ने कहा।
"हमने इन दोनों माता-पुत्रों पर बहुत अन्याय किया था— मगर आज उनके लिए पश्चाताप हो रहा है, पणिक की योग्यता देखकर। नहीं मालूम था कि संसार से ठुकराई एक अभागिन का पुत्र आज इस प्रकार हमारा नायकत्व करेगा।'
'उसके नायक होते ही, देखो न कितना आश्चर्यचकित परिवर्तन हो गया है हममें और समस्त किरात समुदाय में। उसने मानो हमारे जर्जर एवं मृतप्राय शरीर में उष्ण रक्त संचारित कर दिया है
- नवस्फूर्ति भर दी है।'
'पहले हममें से कितने ऐसे थे जो शस्त्र-संचालन पूर्ण रूप से नहीं जानते थे...आज पर्णिक की कृपा से हम लोगों ने भली प्रकार अस्त्रविद्या सीख ली है। हम लोग भली-भाति शत्रु से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो गए हैं...पर्णिक की माता ने ही अपनी व्यवहार-कुशलता से हमें इतना साहसी बनाया है। अवश्य वह कोई स्वर्गीय देवी है।'
क्रमश: संध्या का आगमन होने लगा था। साथ ही उदय होते हुए भगवान मरीचिमाली की शुभ ज्योत्सना, वन प्रदेश पर बिखरने लगी। किरात-समुदाय के सभी व्यक्ति-आबाल-वृद्ध-उस स्थल पर जाने लगे। नित्य संध्या को सब लोग वहां एकत्र होते थे और विविध विषयों पर वार्तालाप करते थे।
नायक पर्णिक हो आते हुए दोकर सब लोग उठ खड़े हुए। पर्णिक एक प्रशस्त शिला खंड पर आकर बैठ गया।
बहुत समय तक वार्तालाप होता रहा।
अन्त में दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने के पश्चात् जब वह अपने झोंपड़े के द्वार पर पहुंचा तो देखा कि उसकी माता भूमि पर पड़ी खिसक रही है।
दीपक की ज्योति में उसकी माता के नेत्रों से अश्नु बिन्दुओं का निस्सरण स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा था।
साथ ही पर्णिक के उत्सुक नेत्रों ने देखा कि उसकी माता कोई हाथ में कोई प्रकाशमान वस्तु हैं। पर्णिक घबराया हुआ झोपड़े के भीतर आया—'माता! उसने पुकारा ।'
उसकी माता चौंक पड़ी, उसका स्वर सुनकर।
उन्होंने शीघ्रतापूर्वक अपने अंचल में उस वस्तु को छिपा लिया और नेत्रों से प्रवाहित अश्रुकणों को पोंछती हुई बोली-'आओ वत्स।'
'तुम रो क्यों रही हो माताजी?' पर्णिक उनके पास बैठ गया—'तुम्हें ऐसी कौन-सी व्यथा, ऐसी कौन-सी वेदना, ऐसा कौन-सा दुख है- जिससे तुम सदैव व्यथित रहा करती हो? वह कौन-सी अप्रकट पीड़ा है जिसे तुम अपने पुत्र से भी कहने से संकोच कर रही हो? बोलो, मैं तुम्हारे सुख के लिए सब कुछ कर सकता हूं, माताजी। यदि मेरे जीवनोत्सर्ग से तुम्हें शांति मिल सके तो मैं सहर्ष अपने जीवन को तुम्हारे चरण-कमलों पर उत्सर्ग कर दंगा। जिसने अपने रक्त मांस से मेरा पालन-पोषण किया, जिसने दुरूह यातनायें सहन कर मेरी रक्षा की, जिसने अनादर और अपमान झेला—केवल मेरे हेत, ऐसी जननी के लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं हो सकती। माताजी, परीक्षा का समय है-मातृ ऋण के उऋण होने का अवसर दो, आज्ञा दो माताजी!'
'मुझे कोई भी दुख, कोई भी व्यथा नहीं है, वत्स...।'
'माता! दुख है कि आज तक तुमने मुझे अपना पूर्व इतिहास नहीं बताया, इस समय अपने दुख का कारण भी नहीं बता रही हो, पुत्र पर यह अविश्वास क्यों?'
'अविश्वास!'
'अविश्वास ही तो है। तभी तो तुमने मुझे देखते ही जाने कौन-सी वस्तु आंचल में छिपा ली है।'
उसकी माता चौंक पड़ी।
'माताजी! जिस पावन आंचल में अब तक पर्णिक ने क्रीड़ा की है, उसका स्थान पाने वाली वस्तु अवश्य मुझसे भी प्रिय है...मुझे बताओ माताजी। वह कौन-सी वस्तु है। कोई बात मुझसे गोपनीय रखकर मुझे असीम वेदना से विदग्ध न करो।'
'वह कुछ नहीं है, पर्णिकं'
'कुछ क्यों नहीं है, माताजी। वह बहुत कुछ है, तभी पर्णिक से भी अधिक उसका आदर है उसका सम्मान है।' पर्णिक अपनी माता के सन्निकट आ रहा है—'मैं उस वस्तु को अवश्य देखंगा...।' और उसने हठपूर्वक माता के आंचल से वह वस्तु निकाल ली।
वह था रत्नहार, जिसकी देदीप्यमान प्रभाव उस छोटे से झोंपडे को आलोकित कर रही थी।
'रत्नहार...।' चौंक पड़ा पर्णिक—'माताजी! यह मूल्यवान रत्नहार तुमने कहां से पाया? इस जर्जर झोंपड़े से यह अगम वैभव कहां से टपक पड़ा...?'
पर्णिक की माता के नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो चले—'वत्स! इस पवित्र रत्नहार को प्रणाम करो।' उन्होंने कहा।
पर्णिक ने उसे मस्तक से लगाया। 'यह कहां से आया माताजी...?' उसने पूछा।
उसकी माता कुछ न बोली, केवल पर्णिक के हाथ से वह हार लेकर यत्नपूर्वक यथास्थान रख दिया।
तुम्हें कौन-सी वेदना कष्ट दे रही है माताजी ?'
'जाने दो वत्स! चलो भोजन कर लो।'
'कैसे भोजन कर लूं माताजी। तुम चिंता में विदग्ध होती रहो और मैं क्षुधा शांत करूं? पहले मैं तुम्हारी चिंता शांत करूंगा।'
'वह तो चिता पर ही शांत होगी, पर्णिक' 'नायक!' तभी झोंपड़ी के द्वार पर से किसी ने पुकारा। पर्णिक त्वरित वेग से बाहर आया। देखा, एक वृद्ध किरात खड़ा था।
'क्या है...? है क्या पितृव्य...?' उसने पूछा।
'पुत्र! सीमांत से दुर्मुख एक आवश्यक समाचार लेकर आया है। सब लोग एकत्र हैं, तुम भी चलो...।'
'आवश्यक कार्य है...?'
'हां, अत्यंत आवश्यक...।' वृद्ध किरात ने कहा।
'मैं चलता हूं।' पर्णिक बोला—'माताजी! कोई महत्त्वपूर्ण आवश्यक समाचार है। मुझे जाने की आज्ञा दो।'
"जाओ वत्स...।' माता ने कहा। पर्णिक ने झुककर उनके चरण छुए। पुन: उस वृद्ध किरात के साथ उस ओर चल पड़ा, जहां किरात समुदाय उत्सुक नेत्रों से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
सभी के नेत्रों पर आसन्न भय के लक्षण स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहे थे। पर्णिक के आते ही सब उठ खड़े हुए। पर्णिक ने निराक्षणात्मक दृष्टि से चारों ओर देखा-देखा उसने, सबके मुख पर आतंक व्याप्त है।
'कहां है दुर्मुख?' उसने एक प्रस्तर-शिला पर बैठते हुए पूछा।
एक किरात युवक ने आदरसहित आकर अभिवादन किया। 'तुम अभी सीमांत से आ रहे हो?
'जी हां...।'
'क्या समाचार लाये हो?' दुर्मुख ने अधरोष्ठ पर जीभ फेरते हुए कहा—'खटबांग की घाटी (खैबर पास) के उस पार, एक सेना आ पहुंची है। सम्भव है कि शीघ्र ही वह हम पर आक्रमण कर दे।'
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