RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
आठ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
युवराज नारिकेल द्रविड़राज के प्रकोष्ठ के समक्ष आकर खड़े हो गये। द्वारपायक ने मस्तक झुकाकर युवराज को सम्मान प्रदर्शन किया।
'पिताजी क्या कह रहे हैं?' युवराज ने द्वारपायक से पूछा।
'प्रकोष्ठ में है। मध्याह्न से बाहर नहीं निकले हैं।' द्वारपायक ने कहा।
'तुम उन्हें सूचित करो कि मैं उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुआ हूं...।' युवराज ने कहा।
द्वारपायक सर झुकाकर प्रकोष्ठ के भीतर चला गया। कुछ ही क्षण बाद वह बाहर आकर बोला—'श्रीसम्राट आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' युवराज ने प्रकोष्ठ के भीतर प्रवेश किया। द्रविड़राज उस समय संतप्त भंगिमा लिये, अश्रु-प्लावित नेत्रों से द्वार देश की ओर देखते हुए बैठे थे स्वर्णासन पर।
उनके केश बिखरे हुए थे। कपोलों पर अश्रु-बिन्दु झलक रहे थे। शरीर शिथिल हो रहा था, मानो पर्याप्त समय से वे चिंतासागर में गोते लगाते रहे हों।
सम्राट की दयनीय दशा देखकर युवराज को असीम वेदना हुई। यद्यपि आज से पहले भी युवराज सम्राट को दुखी एवं म्लान देखा करते थे. परन्तु उनकी आज की हालत देखकर युवराज का कलेजा मुंह को आ गया। उनके नेत्र न जाने किस प्रेरणा से सिक्त हो उठे।
'पिताजी ... !' उन्होंने आर्द्र स्वर में पुकारा।
'आओ युवराज।' द्रविड़राज ने अपनी करुण भंगिमा ठीक करने का व्यर्थ प्रयत्न किया —'आओ बैठो।'
युवराज आकर शैया पर बैठ गये। कुछ क्षण तक मौन रहकर उन्होंने सम्राट को मूक वेदना को समझने की चेष्टा की।
'आजकल आप दुखित क्यों रहते हैं, पिताजी...?' युवराज ने प्रश्न किया। द्रविड़राज ने युवराज की ओर करुण नेत्रों से देखा। 'मैं आपसे यह पूछने की धृष्टता करता हूं कि अन्तत: इस दुख का कारण क्या है? नेत्रों में अश्रु-कण, मुख पर प्रखर वेदना के चिन्ह एवं अन्तस्थल में प्रज्जवलित ज्वाला—इन सबका कारण क्या है? आज तक मैं दुखित हृदय से आपकी सारी व्यथा देखता आ रहा था, आज पूछता हूं कि आपको कौन-सी मानसिक अशांति क्लेश दे रही है...? बोलिए पिताजी!'
पुत्र की सांत्वनामयी कोमल वाणी सुनकर द्रविड़राज का मर्मस्थल द्रवित हो गया-वे फूट-फूटकर रो पड़े, अपने फूटे भाग्य पर—'जाने दो वत्स! मुझे कोई कष्ट नहीं।'
'कोई कष्ट नहीं, कोई व्यथा नहीं, कोई वेदना नहीं...?' यवराज ने प्रश्नसूचक दृष्टि से द्रविड़राज का मुख देखा, जिस पर कष्ट का साकार रूप, व्यथा की साक्षात झलक एवं वेदना की प्रखर ज्वाला स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रही थी—'कैसे कहते हैं कि आपको कोई कष्ट नहीं है, पिताजी...| तनिक अपनी म्लान मुखाकृति पर दृष्टिपात कीजिये—प्रतीत होता है, जैसे जगत की समग्र वेदना का साम्राज्य छाया हो आपके नेत्रों में। मुझे बताइये पिताजी। अपने दुख का कारण बताइये मुझे। यदि अपने प्राण देकर भी आपको प्रसन्न देख सका तो अपने को भाग्यशाली समझूगा।"
'क्या करोगे सुनकर वत्स।' रहने दो। उस असीम वेदना का भार केवल मुझे ही वहन करने दो। जिस रहस्य को आज तक तुमसे प्रच्छन्न रखा है, उसे सुनकर व्यथित होने की चेष्टा न करो।
'मैं उस भेद को सुनंगा...अवश्य सुनंगा। यदि आप बताने की कृपा न करेंगे तो मैं समझंगा कि इस संसार में एक ऐसी भी वस्तु है, जिसे श्री सम्राट मुझसे भी अधिक चाहते हैं।'
'ऐसा न कहो युवराज! तुम्हारे अतिरिक्त मेरा है ही कौन...? कौन है मेरे दुख का साथी...?' सम्राट ने कहा-'तुम सुनना ही चाहते हो वह गुप्त भेद...तो सुनो।'
हृदय पर पाषाण रखकर द्रविड़राज ने अपने दुख की गाथा, अपनी वेदना की करुण कहानी युवराज को आद्योपांत सुना दी।
अपनी अर्धागिनी, राजमहिषी त्रिधारा को उन्होंने जो कट राज्यदण्ड दिया था और राजमहिषी के बिछुड़ जाने से उनके हृदय पर जो बीत रही थी—सब कुछ सुना दिया।
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