RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
वे बोले—'सब कुछ किया, अपने न्याय को अटल रखा, फिर भी मेरा न्याय अधरा रह गया। क्या यही न्याय है कि पत्नी असह्य वेदना का भार वहन करती निर्वासन का कष्ट झेले और पति राजभवन में षडरस का स्वाद लेता हुआ सुखपूर्वक अपने दिवस व्यतीत करे...? एक साधारण त्रुटि ने मुझे विदग्ध कर रखा है युवराज। में जल रहा हूं, भयानक मानसिक वेदना से। जिस समय वे गर्भवती थी...हाय ! आज वह न जाने कहां होंगी? बहुत खोज की परन्तु वे न मिली..न मिलीं वह पूजनीय देवी...।'
युवराज के नेत्र अश्रु-वर्षा कर रहे थे उस करुण कहानी को सुनकर। वे विचार कर रहे थे कि वास्तव में द्रविड़राज का हृदय कितना न्यायपूर्ण एवं निर्मल है।
जीवन में आज प्रथम बार उन्हें माता का अभाव प्रतीत हुआ। उनका हृदय अपनी माता की करुण-गाथा सुनकर हाहाकार कर उठा।
'मैंने कठोर न्याय का पालन किया था, परन्तु अपने कर्तव्य का पालन न कर सका था...वह पवित्र रत्नहार भी, जिसके लिए यह सब हुआ, न जाने कहा लुप्त हो गया। पता नहीं कि राजमहिषी ही उसे अपने साथ लेती गई या किसी ने पुन: चुरा लिया। अवश्य ही किसी ने चुरा लिया होगा। राजमहिषी उसे अपने साथ नहीं ले जा सकती—यह मेरा दृढ़ अनुमान है। मैंने चोर का पता लगाने के लिए कोटिशः प्रयत्न किया, परन्तु सब निष्फल हुआ...!'
'मैं उस चोर का पता लगाने के लिए अवश्य प्रयत्न करूंगा, यदि कभी वह चोर मेरे हाथ लग गया तो उसके प्राणों से मैं उस पवित्र रत्नाहार के अपमान का प्रतिशोध लूंगा।' कहकर युवराज ने दांत पीस लिये।
उन्हें वास्तव में उस चोर पर असीम क्रोध आ रहा था जिसने उनके कुल के उस पवित्र रत्नाहार का अपहरण किया था।
'उस समय तुम्हारी अवस्था केवल तीन वर्ष की थी, वत्स! आज तुम युवा हो, तब से अब तक इतने वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी मैं राजमहिषी को भूला नहीं हूं और प्रतिदिन उनकी पूजा किया करता हूं।'
'पूजा...!' युवराज को आश्चर्य हुआ।
'हा। वह देवी थी—रुष्ट होकर यहां से चली गई, संसार के न जाने किस छोर में विलीन हो गई। अब नित्यप्रति उनकी उपासना करके ही अपने सन्तप्त हृदय को शांति प्रदान करने की चेष्टा करता है। देखोगे युवराज...उनकी प्रतिमा देखोगे? अपनी स्नेहमयी जननी की लावण्ययुक्त देदीप्यमान सुप्रभा देखोगे?'
द्रविड़राज उठ खड़े हुए—'आओ! इधर आओ मेरे पास।'
युवराज उनके पास चले आये।
'आज प्रथम बार तुम भी अपनी माता की स्वर्ण-प्रतिमा का दर्शन कर लो—प्रणाम कर लो उस देवी के चरण कमलों में...।'
द्रविड़राज ने अंतप्रकोष्ठ का द्वार धीरे से खोला और युवराज को उसके भीतर झांकने के लिए कहा।
युवराज चकित हो गये—यह देखकर कि उस छोटी-सी कोठरी के भीतर पूजा की सामग्री, गंध, धूप आदि सुव्यवस्थित रूप से रखे हुए हैं।
देव-प्रतिमा के स्थान पर एक सौंदर्यमयी देवी की स्वर्ण प्रतिमा विराजमान है। युवराज ने घुटने टेककर नतमस्तक हो अपनी माता की उस स्वर्ण-प्रतिमा को प्रणाम किया।
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युवराज को ऐसा लगा, मानो उस प्रतिमा ने अपना हाथ उनके मस्तक पर रखकर शुभाशीर्वाद दिया हो।
युवराज के नेत्रों के अश्रु-बिन्दु टपककर उस स्वर्ण प्रतिमा के समक्ष चू पड़े।
'देखो वत्स...।' द्रविड़राज ने कहा—'यही है तुम्हारी माता।' '...........।
' युवराज ने रिक्त नेत्रों से अपने अभागे पिता की ओर देखा।
'इस प्रतिमा का रहस्य कोई नहीं जानता वत्स! कोई भी नहीं जानता कि मैं मानसिक वेदना से विदग्ध होकर किसी प्रतिमा की आराधना किया करता हूं। मैं लोगों अपनी निर्बलता प्रकट करना नहीं चाहता, वत्स...।'
'सम्राट का हृदय सबल होना चाहिए। दुख की घनघोर घटाएं एवं वेदना की प्रचंड अगिन जिसे व्यक्ति न कर सके, वहीं सम्राट है।' युवरजा नेकहा—'चलिए! संध्योपासना का समय सन्निकट आ गया...महापुजारी जी प्रतीक्षा करते होंगे।' द्रविड़राज एवं युवराज एक साथ ही प्रकोष्ठ से बाहर आये। द्वारपाल ने झुककर दोनों को सम्मान प्रदर्शन किया।
-- राजोद्यान में एक सघन वृक्ष की स्थूल शाखा में हिंडोला पड़ा था, जिस पर झूल रही थी किन्नरी निहारिका-अपनी अगम सौन्दर्य-राशि बिखेरती हुई।
सघन घन के आवरण ने सूर्य भगवान का समसत तेज अपने अचल में प्रच्छन्न कर रखा था। यावत् जगत पर एक अपूर्व उन्माद-सा छाया हुआ था, काले-काले बादलों की आकाश-मण्डल पर भाग दौड़ देखकर।
धीमी-धीमी वायु परिचालित होकर उस उन्माद में वृद्धि कर रही थी। निहारिका प्रकृति के उस अपूर्व दृश्य से प्रभावित होकर हिंडोला झल रही थी। झलते समय उसके कुन्तलपास वायु के प्रबल वेग से झूमते हुए, उसके आरक्त कपोलों का चुम्बन करने लगते
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