RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
कभी-कभी उसके सुकोमल पैरों में पड़े हुए नूपुर, मधुर स्वर से झंकृत हो उठते। वह प्रसन्न विभोर होकर प्रकृति की नीरव अल्हड़ता का आनंद उपभोग कर रही थी।
परन्तु उसके आनंद में बाधा पहंची। युवराज नारिकेल न जाने कहाँ से घूमते हुए आ पहुंचे। किन्नरी ने हिंडोले पर से उतरकर सम्मान प्रदर्शन किया।
युवराज ने मधुर मुस्कान के साथ उसके अभिवादन का स्वागत किया और हिंडोले पर आ बैठे।
युवराज के बहुत आग्रह करने पर निहारिका भी उसी हिंडोले पर सिमटी सकुचाती-सी बैठ गई। 'आज बहुत दिनों पश्चात् मिलन हो रहा है।' युवराज ने कहा।
'श्रीयुवराज न जाने क्यों रुष्ट हो गये थे, तभी तो उपासना के अतिरिक्त और किसी समय दर्शन देने की कृपा नहीं करते...।' निहारिका ने अपनी मधुर वाणी द्वारा मधु-वर्षा करते हुए कहा।
युवराज किस मुख से बताते कि महापुजारी ने उन्हें उससे एकांत में मिलने का निषेध कर दिया
यह बात सुनकर कोमल कलिका के हृदय को कितनी ठेस एवं कितनी यंत्रणा पहुंचती...यह वर्णनातीत है।
'श्रीयुवराज क्या वास्तव में रुष्ट है...?' पूछा उसने वीणा विनिन्दित स्वर में।
'नहीं तो...।' युवराज ने कहा। हिंडोला धीरे-धीरे डोल रहा था और उसी के साथ-साथ झूल रहा था किन्नरी का कला-पूर्ण शरीर। उसके अवयव अज्ञात प्रेरणा से अचैतन्य होते जा रहे थे। युवराज अनिमेष नयनों से उस कलामयी सुन्दरी का मुखमण्डल देख रहे थे। 'किन्नरी!'
'देव....!' किन्नरी ने इधर-उधर देखा, देखकर तुरंत ही दृष्टि नीची कर ली।
युवराज ने वृक्ष की टहनी की ओर संकेत किया, जिस पर बैठे हुए दो पक्षी परस्पर चोंच से चोंच मिलाकर अपना प्रेम प्रकट कर रहे थे।
और वह पतली-सी टहनी भी हिंडोले की भांति झूल रही थी, मंथर गति से। उन पक्षियों का वह कल्लोल मानो इन दोनों व्यक्तियों पर व्यंग्य वर्षा कर रहा था। कितने सुखी थे वे दोनों उन्मुक्त मूक पंछी, जिन्हें संसार की कोई वेदना, व्यथा नहीं पहुंचा सकती थी।
जिनका एक अलग ही अनोखा संसार था। किन्नरी दृष्टि नीचे किये बैठी थी
युवराज ने अपने कंठप्रदेश से बहमुल्य मणिमाला उतारकर किन्नरी के गले में डाल दी—'यह लो अपनी कला का पुरस्कार। किन्नरी ने लज्जित हो मस्तक झुका लिया।
मृदुल समीरण वेग से प्रवाहित हो उठा।
हिंडोला झटके के साथ झूल पड़ा।
'मेरे अहोभाग्य! जो देव ने मुझे पुरस्कृत किया...।' किन्नरी ने धीरे से कहा।
'देवता से पुरस्कार पाकर, कहीं देवता को भूल न जाना।' युवराज बोले।
'हमारे नींद भरे नेत्रों में देवता रोज स्वप्न बनकर आएं, यही मेरी आकांक्षा है...।' कहते-कहते निहारिका के कपोल आरक्त हो उठे।
और उसी समय दूर से आती हुई चक्रवाल की मधुर स्वरलहरी उद्यान में गुजरित हो उठी 'मेरे नींद भरे नयनों में वो सपना बनकर आएं। मैं उन्हें छिपा लूं आंखों में, वह मधुर हंसी बन मुस्करायें। मेरे मन मंदिर में वह आयें, निज चरण कमल धर के। मैं उन ही में लय हो जाऊं, कू कू उठू वीणा स्वर में।।' निहारिका हिंडोले पर से उतरकर खड़ी हो गई।
उसी समय सुरभित राजोद्यान में गाते हुए चक्रवाल ने प्रवेश किया। चक्रवाल अभिवादन कर युवराज के समक्ष आकर खड़ा हो गया। 'श्रीयुवराज...!' चक्रवाल ने कुछ कहना चाहा।
'हो...हो..., कहो...क्या कहना चाहते हो तुम?'
'महापुजारी जी को अभी-अभी यह मालूम हुआ कि आप किन्नरी के साथ राजोद्यान में है।। वे इधर ही आ रहे हैं। आप शीघ्र यहां से मेरे साथ चलें।' चक्रवाल उतावली के साथ बोला।
युवराज उठ खड़े हुए और शीघ्रतापूर्वक चक्रवाल के साथ राजोद्यान से बाहर की ओर चल पड़े।
किन्नरी ने जाते हुए युवराज को अभिवादन किया।
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