RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
किन्नरी, चक्रवाल को प्रकोष्ठ में चली आई और भीतर से पुन: कपाट बंद कर दिया। चक्रवाल ने देखा-उसकी मुखाकृति म्लान है, उसके नेत्रों में अश्रु-बिन्दु विद्यमान हैं । उसका समस्त सौंदर्य अस्त-व्यस्त हो रहा है।
'चक्रवाल...!' किन्नरी ने कांपते स्वर में पूछा।
'इस समय यहां आने का कारण?' चक्रवाल ने पूछा।
-
'अर्द्धरात्रि के समय में भी तुम्हारी कला का स्रोत प्रवाहित है? कभी रुकेगा भी या नहीं? या मुझे रुलाने में ही तुम्हें आनंद प्राप्त होता है।' किन्नरी ने अवरुद्ध कण्ठ से अपने आने का कारण बता दिया।
'तुम्हें वेदना होती है, निहारिका?'
'बाहर दृष्टिपात करो। सम्पूर्ण संसार वेदनाच्छन्न है—पल्लव रुदन कर रहे हैं, चन्द्रिका ओस की वर्षा करती हुई अपनी व्यथा प्रकट कर रही है...तुम क्यों ऐसा गाते हो चक्रवाल...? किसी को व्यथित करने से, रुलाने से, तुम्हें मिलता क्या है?'
'समझती हो कि तुम रुदन करती हो तो मैं हंसता हूं? किन्नरी! वेदना का प्रखरतम प्रतिरूप मेरे हृदय में भी विद्यमान है। सब कुछ खोकर बैठा हूं—अब इन गीतों का ही तो सहारा है। तुम इन्हें भी मुझसे छीन लेना चाहती हो।' निहारिका को आश्चर्य हुआ। उसने चक्रवाल के मुख की ओर दृष्टिपात किया। वह चौंक पड़ी— चक्रवाल के नयन-कोटरों में वेदना के प्रतिरूप अश्श्रुबिन्दु देखकर। चक्रवाल बोला—'तुम्हें व्यथा पहुंचती है तो वचन देता हूं-अब नहीं गाऊंगा।'
'गाओ! अवश्य गाओ।' निहारिका ने कहा—'ऐसी विकल रागिनी की वर्षा करो कि जड़ चेतन, सभी हाहाकारमयी व्यथा से रुदन करने लगें...गाओ चक्रवाल।' विक्षिप्त की तरह वह बोली। एक क्षण में ही उसकाविचारबदल गाय, चक्रवाल की व्था अवलोकन कर।
चक्रवाल ने किन्नरी की विक्षिप्तावस्था देख, अपनी वीणा उठाई। वीणा की झंकार एवं चक्रवाल के स्वर का प्रकम्पन, एकाकार होकर गुंजारित हो उठा— 'रस बरसे, रस बरसे।' अपनी प्यास छिपायेमन में, क्यों तरसे, क्यों तरसे।' उसके गायन में पुन: बाधा पहुंची।
किसी ने पुन: उसके बंद द्वार पर थपकी दी थी। चक्रवाल चौंक पड़ा—किन्नरी कांप उठी। 'महापुजारी आये हैं—अवश्य उन्हें पता लग गया होगा कि तुम मेरे प्रकोष्ठ में हो...अब...!'
चक्रवाल ने मंद स्वर में कहा।
उसका हृदय धड़क रहा था—किन्नरी को अर्द्धरात्रि के समय उस प्रकोष्ठ में देखकर महापुजारी न जाने क्या समझेंगे।
द्वार पर पुन: थपकी पड़ी। किन्नरी व्यग्रतापूर्वक बोली- 'तुम बताओ चक्रवाल! मैं क्या करूं? कहां जाऊं? यदि महापुजारी मुझे यहाँ देख लेंगे तो पीसकर पी जायेंगे—तुम्हें भी बुरा-भला कहे बिना रहेंगे।'
'क्या करूं...?' चक्रवाल हाथ मल रहा था।
'एक भूल के करण युवराज से बिछड़ गई—आज दसरी भुल के कारण तुमसे भी बिछड़ जाना चाहती हूं, चक्रवाल। कोई मार्ग शीघ्र ढूंढ निकालो–मुझे महापुजारी की क्रूर दृष्टि से बचाओ, चक्रवाल।' किन्नरी अत्यधिक भयभीत हो उठी।
तीसरी बार द्वार पर कुछ देर तक थपकी पड़ी।
चक्रवाल बोला—'अब मुझे द्वार खोलना ही चाहिये, किन्नरी। तुम पलंग के बिछावन पर लेट जाओ। मैं तुम्हें इसी में लपेट दं। दूसरा कोई मार्ग नहीं...अब जो कुछ होगा देखा जायेगा...जल्दी करो।'
किन्नरी बिछावन पर लेट गई। चक्रवाल ने बिछावन के साथ उसे भी पलेटपकर पलंग के पायताने कर दिया और आगे बढ़कर धड़कते हुए हृदय से द्वार खोल दिया।
'मगर वह मानो आकाश से गिरा यह देखकर कि द्वारदेश पर महापुजारी की उग्र मूर्ति नहीं, वरन् युवराज की सौम्य एवं शांत प्रतिमा खड़ी है—कालिमाच्छन्न मुखमंडल लिए हुए।
|