RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
जम्बूद्वीप के उत्तर में अवस्थित गिरराज हिमालय अभेद्य एवं दुरूह है। हिमाच्छादित गगनचुम्बी शिखर, भयानक कण्टकाकीर्ण बन, और भयानक घाटियों से परिपूर्ण, यह असम्भव है कि कोई मध्य अशांत महाद्वीपों से इस ओर आ जाये।
परन्तु प्रकृति ने मार्ग बना ही दिया है—बह मार्ग है खट्वांग की घाटी। यद्यपि यह घाटी भी समतल एवं अकंटक नहीं है फिर भी साहसी मनुष्य के लिए इस मार्ग द्वारा, उस पार से इस पार चले आना असम्भव नहीं।
इस घाटी द्वारा आर्य-सम्राट तिगमांशु की विशाल सेना ने, उस पार से इस पार की शस्यश्यामला भूमि पर पर्दापण किया।
और घाटी के समीप ही सेना ने शिविर डाल दिया। सहस्रों शिविर पड़ गये, मानो एक नगर ही बस गया उस भयानक वनस्थली के कीड़ में। इस समय संध्या की लालिमा, क्रमश: अपना आंचल प्रसारित कर रही थी। एक शिविर में बैठे हुए भीमकाय आर्य सम्राट तिरमाशु अपने कुछ नायक योद्धाओं के साथ कोई गुप्त मंत्रणा करने में तल्लीन थे, क्योंकि उन्हें अभी-अभी ही समाचार मिला था कि किरातों का एक सशस्त्र दल उनका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए, वहां से केवल अर्द्धयोजन की दूरी पर अपना शिविर डाले पड़ा है।
'गुप्तचर! तुम्हारा कहना है कि किरातों की सेना बहुत छोटी है—यही न?' आर्य-सम्राट ने पूछा।
'जी श्रीमान् ! यही कोई एक सहस्र होंगे...मगर जो भी हैं, सभी योद्धा हैं—दास को मारकर तब मरने वाले हैं और उनका नायक उसकी न पूछिये। मैंने देखा तो नहीं, गुप्त रीति से सुना है कि वह अभी बालक है, लेकिन आर्य-सेना का कदाचित् ही कोई वीर उसके समक्ष ठहर सके।' दूत ने नतमस्तक होकर कहा।
'ऐसा है वह...?'
'जी हां। किरात-सेना उसकी आज्ञा पर अपने प्राण दे सकती है। यदि हम प्रयत्न करके उस सेना को अपनी सेना मिला सकें तो हमारी शक्ति बहुत बढ़ जायेगी—साथ ही उनसे हमें मार्ग दर्शन में अतीव सहायता मिलेगी।'
'ऐसा सम्भव हो जाये तो अत्यंत उत्कृष्ट है।'
'गुप्तचर और स्वयं आर्य-सम्राट तिग्मांशु अश्व पर आरूढ़ हो, भयंकर जंगल में परिभ्रमण करते हुए निर्धारित दिशा की ओर चल पड़े।
बहुत दूर चले जाने के बाद एक स्थान पर गुप्तचर ने अपना अश्व रोका। दोनों अश्व से उतर पड़े।
'उधर, उन आकाश चूमे वृक्षों की ओर देखिए, उनकी शीतल छाया में किरातों की सेना शस्त्र सज्जा अवस्था में ही विराम कर रही है।' गुप्तचर ने कहा।
दोनों पैदल ही उस और बढ़ चले।
अंधकारपूर्ण रात्रि थी मार्ग कंटकाकीर्ण एवं दुरूह था। बहुत बचाकर दबे पांव वे चल रहे थे। कुछ दूर चले जाने पर एकाएक सम्राट चौंककर खड़े हो गए। उनके कान के पास से ही कोई सरसराती हुई वस्तु तीव्र वेग से निकल गई थी।
'अवश्य ही यहां पर कोई शत्रु उपस्थित है, उसी ने हम पर तीर चलाया है गुप्तचर। लेट जाओ भूमि पर शब्द न हो।' सम्राट ने कहा।
दोनों भूमि पर लेटकर इधर-उधर ही आहट लेने लगे, परन्तु पुन: कोई शब्द सुनाई न पड़ा और न कोई आकृति ही दिखाई दी।
धीरे-धीरे आर्यसम्राट और गुप्तचर उठे और अतीव सावधानी से पुन: आगे की ओर बढ़ने लगे। परन्तु चारपग आगे बढ़ते ही पुन: एक तीर सरसराता हुआ सम्माट की दक्षिण भुजा में एक साधारण खरोंच करता हुआ निकल गया।
सिहरकर सम्राट एवं गुप्तचर पास के एक दीर्घकाय वृक्ष की ओट में खड़े हो गये और विस्फारित नेत्रों से चारों ओर के घनीभूत अंधकार में अपने शत्रु की खोज करने लगे।
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