RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
अनुभवहीन युवक पर्णिक ने आर्य सम्राट की सहायता करना स्वीकार कर लिया। बह निकला था देश की रक्षा करने, मगर राजनीति-कुशल आर्य सम्राट की चिकनी-चुपड़ी बातों में फंसकर वह अपने पवित्र ध्येय से च्युत हो गया।
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दस
राजसभा में घोर नीरवता व्याप्त थी। सभी की मुखाकृति म्लान एवं मुद्रा भयभीत थी। द्रविड़राज स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान थे। उनसे भी उच्चासन पर आसीन थे महापुजारी पौत्तालिक
युवराज एवं नगर के सभी गणमान्य सज्जन उपस्थित थे। आज राजसभा में कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार-विनिमय हो रहा था।
एकाएक महापुजारी ने गुप्तचर से पूछा 'आर्य सम्राट के इस प्रकार अचानक आक्रमण का कारण क्या हो सकता है?'
'गुरुदेव!' पास ही खड़े हुए गुप्तचर ने नतमस्तक होकर उत्तर दिया-'सुनने में आया है कि आर्य सम्राट मध्य अशांत महाद्वीप से कुछ आर्यजनों को यहां लाकर बसाना चाहते हैं ताकि उन लोगों द्वारा यहाँ पर आर्य संस्कृति का प्रसार हो।'
.................' द्रविड़राज के मस्तक पर दुश्चिन्ता की रेखायें उभर आयीं। वे अपना सिंहासन छोड़कर उठ खड़े हुए।
'प्रिय सज्जनों!' उच्च स्वर में बोले वे—'आज युगों की सुख-शांति के बाद, क्रांति का समय आया है। एक विदेशी सम्राट ने हम पर अन्यायपूर्ण आक्रमण किया है...हम सदा से स्वाधीन रहे हैं, अब पराधीनता को कैसे स्वीकार कर सकते हैं?'
सभा में पूर्ववत् नीरवता व्याप्त रही। 'अपना देश हम विदेशियों को कैसे सौंप सकते हैं...?' सारी राजसभा नीरवता में डूबी हुई द्रविड़राज का भाषण सुन रही थी। हमें इस आक्रमण का प्रत्युत्तर देना ही होगा। हमें अपने स्वत्व के लिए वीरतापूर्वक, समरांगण में मर मिटना है। यह जम्बूद्वीप हमारा था, हमारा है और हमारा ही रहेगा। हम लोग इस पर विदेशियों के पैर स्थिर नहीं होने दे सकते...वे बल-प्रयोग द्वारा हम पर राज्य नहीं कर सकते।'
द्रविड़राज ने स्थिर दृष्टि से राजसभा के प्रत्येक व्यक्ति की ओर देखा। 'वीरो ! क्या तुम यह चाहते हो कि यह शस्य-श्यामला भूमि विदेशियों के पैरों तले रौंदी जाय? क्या तुम चाहते हो कि हम अपनी सुख-शांति और मान-मर्यादा विदेशियों को समर्पित कर दें...क्या तुम चाहते हो कि अपना सब कुछ लुटाकर अपनी सारी सम्पदा विदेशियों के पैरों पर रखकर स्वयं भिखारी बन बैठे? क्या तुम चाहते हो कि अपनी जन्म भूमि के श्वेत सुकोमल पैरों में सर्वदा के लिए परतन्त्रता की लौह-श्रृंखलायें डाल दी जायें?'
'नहीं! हम लोग यह कभी स्वीकार नहीं कर सकते...।' सभा गर्जन उठी—'हम चाहते हैं स्वदेश की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देना।'
'धन्य है ! पुष्पपुर के वीर नागरिको आप लोग धन्य हैं।' महापुजारी बोले।
'आज हमारी परीक्षा का समय उपस्थित है।' युवराज खड़े होकर कहने लगे—'अब तक हम शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते आ रहे थे—परन्तु आज जबकि हमारा देश सिक्त नेत्रों से हमारी और देख रहा है, हम कायर नहीं बनेंगे। उसकी रक्षा के लिए अपना तन-मन-प्राण सब-कुछ विसर्जन कर देंगे। हम अपनी वीरता पर कलंक न लगने देंगे, अपने पूर्वजों के पवित्र रक्त को दूषित नहीं होने देंगे...।' \
'श्रीसम्राट...!' तभी द्वारपाल ने सभा में प्रवेश कर निवेदन किया—'द्वार पर आर्य-सम्राट द्वारा प्रेषित राजदूत उपस्थित है और श्रीसम्राट के चरण कमलों का दर्शनाभिलाषी है।'
राजदूत आया। उसने नतमस्तक होकर द्रविड़राज एवं युवराज को अभिवादन किया। 'श्रीमान की सेवा में आर्य-सम्राट का शुभ संदेश लाया हूं...।' उसने कहा।
'शुभ संदेश...!' द्रविड़राज ने व्यंग किया—'कौन-सा शुभसंदेश है...? सुनाओ तो?' द्रविड़राज विकृत हंसी हंसकर मौन हो गए।
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