RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
दत पुन: बोला—'हमारे सम्राट केवल अपने कुछ स्वजनों के जीविकार्थ आपके साम्राज्य के कुछ भाग की याचना करते हैं। अस्वीकार करने पर बल-प्रयोग भी सम्भव है।'
'बल प्रयोग...!' निर्भीक राजदूत ने उत्तर दिया--- बल प्रयोग राजनीति का अंतिम अस्त्र है।' 'याचना के साथ बल प्रयोग करना यही तुम्हारे देश की संस्कृति एवं तुम्हारे आर्य सम्राट की राजनीति है?'
'राजदूत के समक्ष श्रीमान् उसके सम्राट का अपमान कर रहे हैं।' दूत ने कहा- 'मेरे सम्राट की याचना स्वीकार कर लेने से ही आप सब का लाभ एवं कल्याण है-आप लोग किसी प्रकार भी उनके प्रबल वेग को संभाल नहीं सकेंगे।"
संभाल नहीं सकेंगे...? राजदूत, जब तुम्हारे सम्राट की सेना से द्रविड़ सेना की मुठभेड़ होगी, तब वास्तविक बलाबल का निर्णय होगा।' द्रविड़राज बोले।
'श्रीमान को विदित हो कि किरात-युवकों का दल उनके नायक सहित, हमारे सम्राट की सहायता के लिए प्रस्तुत हो गया है और मुझे आशा है कि मार्ग प्रदर्शन में उनसे आशातीत सहायता हमें मिलेगी और विश्वास है कि आपकी सेना के तैयार होने से पूर्व ही हमारी सेना पुष्पपुर नगर में प्रवेश कर जायेगी...।'
'तुम भूलते हो राजदूत...। हमारी सेना पूर्ण रूप से तैयार है तुम्हारे आर्य-शिविर में पहुंचने के पूर्व ही वह वहां पहुंच जाएगी, यह तुम निश्चय समझ लो और अपने सम्राट से जाकर कह देना कि उन्होंने हम पर आक्रमण का विचार कर, अपने को हमारी दृष्टि में हेय एवं घृणित प्रमाणित किया हैं उनके इस आक्रमण से हमारे सम्मान पर धक्का लगा। इसके प्रतिकार के लिए वे प्रस्तुत रहें। द्रविड़राज की रक्त-पिपासातुर सेना शीघ्र ही तुम्हारे सम्राट का गर्व-खर्व करेगी...।' युवराज बोले।
राजदूत ने पूछा- 'क्या यह श्रीमान् का अंतिम निर्णय है?'
'अवश्य।' राजदूत ने झुककर अभिवादन किया और राजसभा से बाहर हो गया। कई क्षणों तक राजसभा में घोर निस्तब्धता का साम्राज्य व्याप्त रहा।
कुछ देर बाद द्रविड़राज बोले—'हमें अत्यंत शीघ्र सम्पूर्ण तैयारी करके अपनी सेना गुप्त मार्ग द्वारा युद्धस्थल की ओर भेज देनी चाहिए ताकि सीमान्त पर ही हम आर्य सेना को रोक सकें। गुप्त मार्ग द्वारा वहां पहुंचना केवल दो घड़ी का कार्य है-सीधे मार्ग से वहां तक पहुंचने में दो दिन लग जायेंगे। परन्तु इससे पहले हम अपनी सेना युद्धभूमि की ओर भेजें, हमें एक सेनाधिपति की आवश्यकता है, जो इस कार्य का सफलतापूर्वक संचालन कर सके...। इस कार्य के लिए मैं स्वयं अपने को प्रस्तुत करता हूं।'
'पिताश्री !' युवराज बोले- 'आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं मैं सेनापति का कार्यभार सम्भाल लूंगा। मुझे आशा है कि मेरी यह तुच्छ याचना श्रीसम्राट को अस्वीकार न होगी।'
'युवराज!' द्रविड़राज बोले—'यह मेरे लिए सौभाग्य का विषय है कि तुम जैसा योग्य पुत्र स्वदेश के लिए रणवेदी पर बलि होने को प्रस्तुत है, परन्तु...।'
'परन्तु के व्यूह से बाहर आइये पिताजी। आज्ञा दीजिए। वचन देता हूं कि मैं जीते-जी स्वदेश पर कलंक न लगने दूंगा।'
'युवराज की जय हो।' सबने एक स्वर में जयघोष किया।
और युवराज इस युद्ध के लिए सेनाधिपति नियुक्त हुए। महापुजारी चौंक पड़े, यह घोष सुनकर। वे द्रविड़राज के निकट आकर धीरे से बोले— 'श्रीसम्राट ! श्रीयुवराज को रणक्षेत्र में भेजना उचित नहीं होगा।'
'आपका अभिप्राय?' वार्तालाप धीरे-धीरे हो रहा था ताकि कोई सुन न सके।
'इस वर्ष श्रीयुवराज की जन्मकुंडली में अनिष्टकारी ग्रह आ गये हैं...विपत्ति की आशंका है। अच्छा हो कि युवराज का जाना स्थगित कर, स्वयं आप युद्धक्षेत्र को प्रस्थान करें....।'
'यही ठीक होगा...।' द्रविड़राज ने निश्चय किया। महापुजारी अकस्मात् उठ खड़े हुए। उच्च स्वर में बोले—'श्रीयुवराज! समर भूमि में आपका जाना नहीं हो सकेगा।'
'इसका कारण...?' युवराज ने पूछा।
'श्रीसम्राट की आज्ञा।' महापुजारी बोले। युवराज ने द्रविड़राज की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।
'युद्ध का संचालन कौन करेगा?' पुन: पूछा युवराज ने।
'स्वयं श्रीसम्राट।' महापुजारी ने कहा।
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'यह कैसे हो सकता है, महापुजारी जी...। पिता कष्ट का सामना करते हुए युद्ध-क्षेत्र में प्रोणोत्सर्ग करे और पुत्र राजप्रकोष्ठ में बैठा हुआ आनंद का उपभोग करे...? यह अन्याय है गुरुदेव। ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा नहीं हो सकता। मेरे जीवन की यह प्रबल आकांक्षा है। मैं युद्ध-क्षेत्र में अपने अब तक के अनुभव की परीक्षा करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरा यह अधम शरीर देश और पिता के कार्य-साधन में उत्सर्ग हो...।'
'युवराज!'
'पिताजी...!'
'तुम्हारा कर्तव्य है, पिता की आज्ञा शिरोधार्य करना।'
'मुझे विश्वास नहीं होता पिताजी, कि ये वाक्य आपके विशुद्ध अंतस्तल से निकले हैं...मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि यह आज्ञा मेरे न्यायी पिताजी ने दी है, या मर्मव्यथा से व्यथित एवं पुत्र-प्रेम से उन्मत्त एक असहाय आत्मा ने।' ...............।'
'आप चुप हैं पिताजी...। चुप हैं आप...। आज तक आपकी आज्ञा का पालन करता आया हूं मैं। अब ऐसा अवसर न दीजिये कि उस आज्ञा का उल्लंघन करूं। आपकी यही अभिलाषा है कि मैं कायर की भांति अपनी संस्कृति को दुषित करूं? आज्ञा दीजिये, मुझे आशीर्वाद दीजिये जिससे मैं अपना शौर्य प्रदर्शित कर पिता के उज्ज्वल यश की रक्षा कर सकू। आज तक जिस पिता ने अपनी स्नेहमयी गोद में स्थान दिया–वीरत्व गाथायें सुना-सुनाकर हृदय में आत्मोत्सर्ग की अग्नि प्रज्ज्वलित की-उसी अग्नि पर पानी के छींटे मारकर आज उसे शांत कर देना चाहते हैं। देश परतन्त्र हो जाए और मुझ जैसा युवक उसे शांत चित्त से देखता रहे...यह देखने के पूर्व में मृत्यु की गोद में सो जाना पसंद करूंगा।'
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