RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'किन्नरी!' महापुजारी का तीव्र स्वर गूंज उठा। किन्नरी ने अपने को संभाला। शीघ्र ही पूजन समाप्त हुआ।
युवराज ने महापुजारी एवं द्रविड़राज के पैर छुए। महापुजारी और द्रविड़राज ने उनकी मंगलकामना की। जिस समय युवराज मंदिर से बाहर जा रहे थे, उन्होंने देखा कि एक कोने में किन्नरी निहारिका खड़ी है।
'किन्नरी...।' युवराज ने पुकारा।
किन्नरी उनके पास तक चली आई। '
व्यथित न हो, कलामयी। मैं शीघ्र ही विजय लाभ कर लौटूंगा...।' बोले युवराज।
'.........।' किन्नरी कुछ न बोली, केवल उसने अपने अंचल से थोड़ा-सा कुंकुम निकालकर पुन: उनके मस्तक पर लगा दिया।
'मुझे भूलोगी तो नहीं, कलामयी ?' ........।'
'बोलो किन्नरी।'
'क्या बोलू देव।' कहकर वह जोरों से रो पड़ी। पुन: अस्थिर होने के पूर्व ही युवराज आगे बढ़ गये। चक्रवाल की आंखों में आंसू और हृदय में दारुण रोर उठ खड़ा हुआ था। वाणी उसकी मूक थी—मगर हृदय व्यथित था।
और उसी समय युवराज नारिकेल गुप्त सुरंग द्वारा सीमांत की ओर रवाना हो गये। द्रविड़ सेना कल ही जा चुकी थी।
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ग्यारह
आर्य सम्राट के विशाल शिखिर के चतुर्दिक शस्त्रधारी सैनिक पहरा दे रहे थे। युद्ध की समस्त तैयारियां गुप्तनीति से सम्पन्न की जा रही थीं, क्योंकि आर्य सम्राट तिग्मांशु को यह भली प्रकार ज्ञात था कि स्वाभिमानी द्रविड़राज बिना युद्ध के कभी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे।
यद्यपि उन्होंने अपने दूत को बहुत प्रकार से समझा-बुझाकर द्रविड़राज के पास भेजा था, फिर भी हृदय में यह शंका तो थी कि द्रविड़राज युगपाणि उनका प्रस्ताव स्वीकार करेंगे या नहीं।
आर्य-सम्माट तिग्मांशु अपने शिविर में नवीन सैन्य-संचालक पर्णिक एवं अन्य सैनिक पदाधिकारियों के साथ किसी गुप्त मंत्रणा में तल्लीन थे।
शिविर के द्वारदेश पर कई सैनिक पहरा दे रहे थे। इस समय पर्णिक की वेशभूषा अनोखी थी। अब वह पहले का नग्न शरीर वाला किरातकुमार पणिक नहीं था। उसके शरीर पर उस सम बहुमूल्य वस्त्र चमक-दमक रहे थे, जिनकी आभा को उनके कण्ठ-प्रदेश में पड़े रत्नहार ने द्विगुणित कर रखा था।
अनेक प्रकार के नवीन अस्त्र-शस्त्र उसके शरीर पर सुशोभित हो रहे थे, जिससे उसकी मुखाकृति पर शौर्य की अविस्मरणीय आभा प्रस्फुटित हो रही थी।
इधर कुछ ही दिनों के सम्पर्क में आर्य-सम्राट को विश्वास हो गया कि किरात-समुदाय में रहने वाला यह वीर युवक अवश्य उच्च-कुलोत्पन्न है।
'यद्यपि हमने द्रविड़राज के पास अपना राजदूत भेज दिया है, परंतु अभी-अभी हमारे गुप्तचर यह समाचार लाये हैं कि द्रविड़राज की सेना यहाँ से योजन भर की दूरी पर आ गई है और वहीं उनका शिविर पड़ गया है। अब बिना युद्ध के हमारा कार्य सफलीभूत नहीं हो सकता...परन्तु आश्चर्य तो यह है कि हमारा राजदूत अभी तक लौटा क्यों नहीं?'
'आता ही होगा. श्रीमान। पर्णिक बोला—'विपक्षी की सेना आ गई है. हमारे लिए यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। हमें युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाना चाहिये।'
'उनकी सेना का संचालक कौन है...?' पूछा आर्य सम्राट ने।
"पता लगा है...।' एक सैनिक बोला—'कि अभी तक युद्ध क्षेत्र में संचालक आया नहीं है। प्रात:काल तक आने की संभावना है।'
'कितनी सेना होगी?'
'आर्य सेना की आधी।'
'इतनी छोटी सेना लेकर वे किस प्रकार हमारा सामना कर सकेंगे?' आर्य सम्राट को आश्चर्य हुआ।
'परन्तु श्रीमान्।' सैनिक बोला—'सुना है कि उसका संचालन करने के लिए राजकुल का कोई बहुत ही योग्य व्यक्ति आ रहा है। ऐसी अवस्था में हमें उन्हें निर्बल समझ लेना भारी भूल होगी।'
'आ गये राजदत।' द्रविड़राज के यहां से लौट हुए राजदत को आता देखकर, आर्य सम्राट अतीव प्रसन्न हुए–'क्या समाचार लाये हो ? क्या कहा है उन्होंने?'
राजदूत ने सम्राट को अभिवादन किया तत्पश्चात् बोला— 'मेरा जाना निष्फल हुआ, श्रीमान्... । द्रविड़राज ने युद्ध की आकांक्षा प्रकट की है। साथ ही आपका और हमारे धर्म का...।'
'हमारे धर्म का और मेरा उपहास किया होगा...क्यों?'
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