RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
तेरह
इतस्ततः शरण खोजने लग
विद्युत-रेखा से आलोकित आलोक में मेघाच्छन्न नभ मण्डल ने अपना कृष्णकाय मुख देखा।
चमचम चमकती हुई मणिमाला जैसी तारकावली ने श्यामल मेघों के कोड़ में अपना प्रोज्वल मुख छिपा लिया।
प्रबल वेगवान समीरण, कर्कश ध्वनि करता हुआ उस समय पुष्पपुर नगरी पर हाहाकार करने लगा।
मानवी संसार इस प्रबल झंझावात से त्रस्त एवं व्यग्र होकर इतस्तत: शरण खोजने लगा। मेघावरण से छन-छनकर आती हुई मुक्ता सदृश जल-बिन्दुएं अबाध गति से भूमि का सिंचन करने लगीं।
वृक्ष अपनी शाखा-प्रशाखा समेत झूमने लगे। हिमराज के सर्वोच्च शिखर पर से आता हुआ प्रबलानिल, मानो मृत्यु का संदेश लेकर द्वार-द्वार घूमने लगा।
समग्र पुष्पपुर नगरी पर भयंकर वर्षा हो रही थी। घनघोर एवं पिशाचाकार मेघों के प्रलयंकारी गर्जन से राजप्रकोष्ठ की दीवारें प्रकम्पित हो रही थीं।
महामाया मंदिर के स्वर्ण-निर्मित घंटे वायु का प्रबल वेग पाकर भयंकर गति से हिल पड़ते थे और उनके द्वारा उत्पन्न टन्न-टन्न शब्द उस विकट रात्रि में सुदूर तक प्रसारित होकर एक भयंकर वातावरण की सृष्टि कर देते थे।
अर्धरात्रि की ऐसी भयानक स्थिति में जबकि पुष्पपुर राजप्रकोष्ठ के सभी लोग निद्राभिभूत थे एवं महामाया के सुविशाल मंदिर में सघन अंधकार आच्छादित था, चक्रवाल के प्रकोष्ठ की खिड़की खुली थी और उस पर बैठा हुआ महान कलाकार अपनी कला में तन्मय था।
उसके प्रकोष्ठ का द्वार खुला था, जिसमें वर्षा के जलकण भीतर प्रवेश कर भूमि पर बिछे कालीन को भिगो रहे थे, परन्तु उसे मानो किसी बात की चिंता ही न थी।
उसके नेत्रद्वय खिड़की के वहिप्रदेश के घनीभूत अंधकार में न जाने किसे ढूंढने का प्रयत्न कर रहे थे, परन्तु कभी-कभी विद्युत-प्रकाश में नन्हीं-नन्हीं जल-बिन्दुओं के गिरने से उत्पन्न बुलबुलों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था।
कैवल उसकी मधुर स्वर लहरी वर्षा के घोर रव में मिलकर विलीन हुई जा रही थी। 'घन उमड़-घुमड़कर बरस रहे, लोचन उन बिन तरस रहे।'
चक्रवाल जाने कब तक अपनी स्वर साधना में तल्लीन रहता, यदि उसे दीपशिक्षा के कम्पित आलोक में प्रकोष्ठ के द्वार पर किसी की छाया न दृष्टिगोर हुई होती।।
चलवाल का हृदय तीव्र वेग से सिर उठा—अनु-सिक्त किन्नरी निहारिका को द्वार पर खड़ी देखकर।
किन्नरी प्रकोष्ठ के भीतर चली आई। चक्रवाल ने देखा उसका सारा शरीर भीगा हुआ था और वस्त्रों से टप-टप जल चू रहा था। 'किन्नरी...!' कित स्वर में बोला चक्रवाल—'कहां से आ रही हो तुम...?'
'राजोद्यान से आ रही हूं....।' किन्नरी ने केवल इतना ही कहा।
चक्रवाल तड़प उड़ा—'हे महामाया...। तुम क्या करने गई थीं वहां? ऐसी विकट रात्रि में, ऐसी भयंकर वर्षा में, वायु की हाहाकारमय सनसनाहट में, तुम राजोद्यान में गई थी? क्यों...? किसलिए? बोलो।'
'वर्षा के दुस्सह वातावरण एवं तुम्हारे गायन से उत्पन्न असह्य वेदना से व्यथित होकर, मैंने सोचा चलकर राजोद्यान में ही हृदय की दारुण ज्वाला शांत करूं।'
'वहां कैसे शांत हो सकती थी तुम्हारी दारुण ज्वाला...? कौन बैठा था वहां, जो तुम्हारी कला की श्रेष्ठता में तन्मय हो तुम्हारा गुणगान करता और तुम भी उसके मधुर वार्तालाप से प्रभावित होकर अपने हृदय की सारी वेदना चारुचन्द्रिका के कल्लोल में विलीन कर देती...कौन था वहां, बोलो।'
'वहां उनकी मधुर स्मृति विराजमान है...।' किन्नरी ने करुण दृष्टि से देखा चक्रवाल की ओर - वहां के पल्लवों में, वहां के कण-कण में उनकी मधुर ध्वनि गुंजरित होती रहती है। जब मैं वहां जाती हूं, मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वृक्षों की शाखायें, सरोवर की कुमुदिनियां एवं भूमि के रजकण सब उन्हें के स्वर में मेरा आह्वान कर रहे हों, कलामयी। आओ न! चक्रवाल! जब-जब मैं वहां जाती हूं, उस स्थान का मंदिर वातावरण मुझे विकल, क्षुब्ध एवं द्रवित कर देता है।'
'श्रीयुवराज के लिए इतना व्यथित होना उचित नहीं, किन्नरी। अपनी अवस्था पर ध्यान दो। देखो जब से वे गये हैं, तुम्हारा शरीर सूखकर कांटा हो गया—तुम्हारे, नेत्र अहर्निश अश्रु वर्षा करते करते रक्तवर्ण हो उठे हैं—तुम्हारी देदीप्यमान मुखश्री से हाहाकारमयी करुणा का स्रोत प्रवाहित होता रहता है। अपने ही संयत करो, निहारिका।'
'व्यर्थ है चक्रवाल। हृदय की अगम सुख-शांति एवं नेत्रों का समस्त आलोक तो उनके साथ चला गया है।'
'तुम्हें हो क्या गया है किन्नरी...? क्या अब फिर लौटेंगे नहीं वे? तुम किन प्रलयंकर विचारों में विदग्ध हो रही हो निहारिका?'
'नहीं लौटेंगे, चक्रवाल। मेरा अंतस्थल कहता है कि अब वे नहीं लौटेंगे, मझसे छल करके कहीं दूर चल देंगे...मैं भयानक अनल में जली जा रही हूँ—यदि एक बार उनके दर्शन कर पाती?' निहारिका ने कहा।
चक्रवाल ने देखा, निहारिका के नेत्रों में उन्माद के लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 'तुम्हारी दशा शोचनीय है, तुम अपने प्रकोष्ठ में जाकर विश्राम करो।'
चक्रवाल ने किन्नरी का हाथ पकड़ लिया, परन्तु वह चौंक पड़ा—'यह क्या...? यह क्या अनर्थ कर रही हो, निहारिका तुम...तुम्हारा शरीर इतना तप्त है...और तुम यहां भीगी हुई खड़ी हो। जाओ किन्नरी तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है।'
'रहने दो। मुझ व्यथित को यहीं, अपने प्रकोष्ठ के द्वार पर ही खड़ी रहने दो...।' निहारिका बोली-'और तुम गाओ। कोई दु:खद गीत। गाकर यावत जगत को विह्वल कर दो, मेरे सन्तप्त हृदय को इतना सन्तप्त कर दो...कि में प्राणहीन हो जाऊं।'
चक्रवाल ने गंभीरता को समझा। समझकर उसने वीणा उठा ली। वीणा मधुर स्वर में गुंजरित हो उठी। उसका सिक्त स्वर धीमी गति से प्रवाहित हो उठा
व्यथित बाला के शुन्य द्वार, आती समझाने मृदु बयान, करती-बिखरा तन पर फुहार, सखि, वे दिन कितने सरस रहे, ये लोचन उन बिन तरस रहे।। उसी समय मृदु बयान का एक झोंका आया जो प्रकोष्ठ के द्वार पर खड़ी हुई निहारिका के उज्जवल तन पर फुहारों की वर्षा कर गया। मानो उसे संकेत कर रही हो—'सखि! वे दिन कितने सरस रहे...।'
एक तीव्र कम्पन स्वर के साथ चक्रवाल की वीणा रुक गई, परन्तु निहारिका के नेत्रों से बहते हुए जलकण न रुके...।
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