RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
अपने शिविर में बैठे हुए युवराज नारिकेल, सैनिक द्वारा लाये हुए युद्ध के समाचारों को प्रतिक्षण सुन रहे थे एवं उसे आवश्यक आज्ञा देकर पुन: रणक्षेत्र की ओर भेज रहे थे, परन्तु उनका हृदय आज न जाने क्यों अत्यधिक व्यग्न था।
सहसा युवराज का ध्यान भंग हो गया—युद्धभूमि से आये एक सैनिक का आर्तनाद सुनकर।
'अनर्थ! प्रलय! विनाश!' उस सैनिक के मुख से स्पष्ट स्वर निकल रहा था।
'क्या है. . है क्या...?' युवराज को घोर आश्चर्य हुआ उस सैनिक को पत्ते की तरफ कांपते देखकर।
'धेनुक मारा गया, श्रीयुवराज! आर्य सेना का प्रबल वेग सम्भालना असम्भव हो गया है...द्रविड़ सेना तीव्र बैग से पलायन कर रही है।'
"पलायन!' तड़प उठे युवराज।
'जी हां, श्रीयुवराज। यदि शीघ्र ही आप युद्धक्षेत्र में पदार्पण न करेंगे तो कुछ ही क्षणों में आर्य सेना...चलिए श्रीयुवराज, विलम्ब न कीजिये। बिना आपके चले द्रविड सेना के पैर स्थिर नहीं हो सकते।
'असंयत न होओ सैनिक युवराज गंभीर स्वर में बोले—'मैं चलता हूं, मेरा अश्व ठीक करो।'
वह सैनिक दौड़ता हुआ शिविर से बाहर चला गया। युवराज ने अतिशीघ्र सैनिक वस्त्र धारण किये और शिविर से बाहर आ गये। दो अश्व प्रस्तुत थे। एक पर उछलकर युवराज आसीन हो गये और दूसरे पर वह सैनिक तीव्र वेग से दोनों व्यक्तियों ने रणभूमि की ओर प्रस्थान किया। धेनुक के धराशायी होते ही समस्त द्रविड़ सेना हतोत्साह हो गई और उस समय जबकि आर्य सेना ने उन पर प्रबल शक्ति द्वारा आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया तो द्रविड़ सेना रुक न सकी और भाग चली इधर-उधर जंगल व पहाड़ों के मध्य।
आर्य-सेना अपनी विजय पर हर्षोल्लास हो जय-जयकार कर उठी।
'ठहरो...।' विद्युत के समान युवराज का तीव्र गर्जन, सूर्य छिद्र से चतुर्दिक गूंज उठा।
तीव्र गर्जन के साथ ही भागती हुई द्रविड़ सेना के पैर जहां के तहां रुक गये, मानो किसी देवी शक्ति ने उनके पैर भूमि पर जकड़ दिये हों _ 'लौट जाओ...!' वीरत्व पर लगे कलंक को अपने रक्त से धो डालो-अपने शोणित से तृषित मेदिनी की तृष्णा शांत कर दो।' युवराज को देखते ही द्रविड़ सेना का उत्साह द्विगुणित हो गया।
पलकमात्र में द्रविड़ सेना पुन: रणभूमि की ओर पलट पड़ी। देखते ही देखते पुन: घोर युद्ध प्रारंभ हो गया।
युवराज नारिकेल अपनी तीक्ष्ण कृपाण से शत्रुओं को गाजर मली की तरह काटने लगे। उनका हस्त-लाघव देखकर द्रविड़ सेना अतीव उत्साह के साथ शत्रुओं का मर्दन करने लगी। एक क्षण में ही आर्य सेना में हाहाकार मच गया।
द्रविड़ सेना का वह गुप्त संचालक रण में आ पहुंचा है श्रीमान्। एक सैनिक ने दूर खड़े हुए पर्णिक से कहा- देखिये, भागती हुई द्रविड़ सेना पुन: लौट पड़ी है और चपलतापूर्वक हमसे युद्ध कर रही हैं ऐसा ही बंग रहा तो हमारा पराजय निश्चित है।'
'मैं देखता हूं उस गुप्त संचालक को...।' पर्णिक तीव्रगति से उस ओर बढ़ा। दूसरे ही क्षण दोनों सेनाओं के संचालक एक-दूसरे के समक्ष खड़े थे, आश्चर्यचकित नेत्रों से एक-दूसरे को देखते हुए।
"किरात कुमार पर्णिक!' युवक के मुख से आश्चर्यचकित स्वर निकल पड़ा। भला उस किरात युवक को वे भूल कैसे सकते थे जिससे एक दिन भयानक वनस्थली के मध्य युद्ध हुआ था।
'युवराज आप!' पर्णिक की आश्चर्यचकित हो उठा।
'ओह !' इतने दिनों के पश्चात् आज हम लोगों का मिलन हो रहा है।
"हां युवराज! और ऐसे स्थान पर, ऐसे सुखमय वातावरण में कि हम दोनों अपनी विगत शत्रुता की अग्नि-ज्वाला को भली प्रकार शांत कर सकते हैं' पर्णिक बोला।
'यथार्थ कहते हो तुम। महामाया की कृपा से हमारे हृदयों में प्रज्जवलित प्रतिशोधाग्नि की प्रखर ज्वाला ने अन्ततोगत्वा हम दोनों को एक अत्यंत उचित स्थान पर एकत्रित कर ही दिया। यह युद्ध स्थल है और हम दोनों हैं एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी। आज हम दोनों की आकांक्षाएं अवश्य पूर्ण होगी, किरात कुमार।' युवराज ने कहा। __
'पर्णिक प्रस्तुत है, युवराज! आइये, आज हमारी शक्ति का निर्णय हो जाये।' पर्णिक ने अपना कार्मुक हाथ में ले लिया।
'तुम मेरे शत्रु हो और स्वदेशद्रोही भी...तुमने स्वदेश की पुकार के विरुद्ध विदेशी की सहायता की है, अत: तुम्हें प्राणदंड देना मेरा परम कर्तव्य है। युवराज ने भी अपना कामुक निकाल लिया।
पर्णिक ने कार्मुक पर तीर चढ़ाया और युवराज ने थी।
कान तक कार्मुक खींचकर पर्णिक ने अपना तीर युवराज के वक्ष को लक्ष्य करके छोड़ दिया।
युवराज के भी कार्मुक से तीव्र वेग से तीर निकला और बीच में ही दोनों तीर आपस में टकराकर छिन्न-भिन्न हो भूमि पर गिर पड़े।
इस बार युवराज ने तीर छोड़ा, परन्तु रण-विशारद पर्णिक ने युवराज के तीर का लक्ष्य अपने तीर से विलक्ष कर दिया। दोनों ओर से तीरों को बौछार होने लगी।
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