RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
"धन्य हैं आपके पिता...।'
'केवल मेरे ही पिता नहीं, तुम्हारी भी पिता-जम्बद्वीप के प्रत्येक प्राणी के पिता है वे।' युवराज बोले-'अपना कृपाण उठाओ...अभी तुमसे मेरी रणलालसा शांत नहीं हुई है....।'
युवराज ने पर्णिक का कृपाण स्वयं उठाकर उसके हाथ में दे दिया।
'युवराज बड़े सहृदय हैं...।' पर्णिक ने कहा। दोनों दुर्दान्त प्रतिद्वन्द्वी कृपाण युद्ध में संलग्न हो गये।
पुन: दोनों की मुखाकृति पर क्रोध की लालिमा दौड़ गई और दोनों एक-दूसरे पर भयंकर घात-प्रतिघात करने लगे।
उसी समय उच्च-स्वर में एक श्रृंगाल आर्तनाद कर उठा।
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श्रृंगाल आर्तनाद कर रहे हैं अंग फड़क रहे हैं...सर्वनाश होने वाला है, चक्रवाल।'
'महामाया का स्मरण करो...।' चक्रवाल ने गंभीर स्वर में कहा। इस समय रथ घनघोर जंगल के मध्य से चला जा रहा था। स्वयं चक्रवाल रथ संचालन कर रहा था और भीतर बैठी थी किन्नरी निहारिका। उसका हृदय तीव्रगति से स्पन्दित हो रहा था।
"रथ और वेग से चलाओ चक्रवाल...। संध्या सन्निकट है. न जाने क्यों हृदय-प्रदेश पर एक अनिर्वचनीय भय की सृष्टि होती जा रही है। मुझे शीघ्र से शीघ्र रणक्षेत्र में पहुंचा दो। मैं उन्हें एक बार देखना चाहती हूं-केवल एक बार।' उसके नेत्रों में अश्रु-कण झिलमिला उठे थे।
'यह तुम क्या कह रही हो...?'
'ऐसा प्रतीत होता है, चक्रवाल ! मानो शीघ्र ही मेरा सर्वनाश होना चाहता है। तुम मेरे ऊपर दया करो। रथ और बैग से ले चलो।'
चक्रवाल ने अश्वों को चाबुक मारी। अश्व तीव्र गति से भाग चला। रथ के भारी पहियों द्वारा उठता धड-धड़ शब्द शून्य बनस्थली को कम्पित करने लगा।
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'जी चाहता है, सदैव इसी प्रकार हमारा तुम्हारा युद्ध होता रहे।' युवराज कहते रहे थे –'दिवस के प्रोज्जवल प्रकाश में, रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में, ग्रीष्म की विदग्धकारी ऊष्णता में, वर्षा के अविरल बिन्दुपात में एवं हेमन्त की शीतलता में हमारे ये कृपाण इसी प्रकार संचालित रहें। ओह! कितना अच्छा प्रतीत हो रहा है, तुमसे युद्ध करना पर्णिक, अद्भुत हो तुम...?'
'युवराज अन्यमनस्क क्यों होते जा रहे हैं?'
'नहीं तो...अब तो हम अनन्त काल तक युद्ध करने में तल्लीन रहेंगे। वह देखो, सूर्य की अंतिम किरणे अस्तांचल की ओट में अन्तर्हित होने जा रही हैं। प्रतीच्याकाश पर रक्त रंजित प्रदोष का नृत्य क्या ही मनोरम प्रतीत हो रहा है। तुम देख रहे हो न...?'
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-- 'देख रही हूं, वह युद्ध शिविर है न?' पर्णिक की माता ने सामने के शिविरों की और संकेत कर दुर्मुख से पूछा। दुर्मुख ने मस्तक हिलाकर स्वीकृति दी। दोनों इस समय आर्य-शिविर के सन्निकट आ पहुंचे थे। 'मुझे शीघ्र उस स्थल पर ले चलो, जहां युद्ध हो रहा है।' पर्णिक की माता ने कहा और घोड़े से उतर पड़ी बह।
द्रविड़राज युगपाणि भी आर्य सम्राट एवं महापुजारी के साथ अभी-अभी ही गुप्त मार्ग से बाहर निकलकर युद्ध शिविर में पहुंचे थे।
पर्णिक की माता की दृष्टि द्रविड़राज पर घड़ी और द्रविड़राज की दृष्टि पर्णिक की माता पर। एक क्षण के लिए दोनों स्तब्ध रह गये 'राजमहिषी...!' आर्त स्वर में पुकारा द्रविड़राज ने।
'नाथ...।' दौड़कर पर्णिक की माता गिर पड़ी उनके चरणों पर।
'प्रिये...।' हर्षतिरेक से द्रविड़राज के मुख से शब्द ही नहीं निकल रहे थे—'मुझे क्षमा कर दो देवी।'
वे थीं राजमहिषी त्रिधारा।
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