RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“इफ़्तारी का वक़्त हो गया है नफ़ीज़ा। ये कबाब लाई हूँ। खाओगी? दीदी कितनी अच्छी हैं! पकौड़ियाँ तल रही हैं मेरे लिए।”
“दीदी अच्छी हैं क्योंकि तुम नयी मुर्ग़ी हो। इन पकौड़ियों में डाले गए बेसन, प्याज और नमक की क़ीमत धीरे-धीरे वसूलेंगी तुमसे।” नफ़ीज़ा ने धीरे-से कहा।
“ऐसा? अच्छा हुआ तुमने आगाह कर दिया। लिली और विशाखा कब तक आती हैं?”
“लिली को देर होती है। कई बार बारह भी बज जाते हैं। स्टार पर प्राइमटाइम के सीरियल का प्रोडक्शन संभालती है। कभी फ़ुर्सत में हो तो टीवी स्टारों की गॉसिप सुनना उससे। और ये विशाखा है न, इसका एक्स-बॉयफ़्रेंड मॉडल था। नेस्ले का एड देखा है? वो हेज़ल आईज़ वाला हंक? नाम भूल रही हूँ उसका। शायद वीर सप्पल। विशाखा का बॉयफ़्रेंड था। रोज़ अपनी एन्टाइसर लेकर नीचे खड़ा हो जाता था। पता नहीं क्या हुआ, ब्रेक-अप हो गया उनका। अब कोई जर्मन है। पर मैंने देखा नहीं उसे।”
“मैंने सिर्फ़ उनके वापस आने का वक़्त पूछा नफ़ीज़ा।” असीमा नीचे देखते हुए सेब काट-काटकर प्लेट में रखती रही। उसके बाएँ हाथ की उँगली में एक हीरा चमक रहा था।
“एन्गेज्ड हो?” बातूनी नफ़ीज़ा ने न असीमा का व्यंग्य समझा न गॉसिप के लिए एक और सवाल ज़ुबान पर लाने से रोक पाई।
“नहीं। शादी-शुदा। शौहर दुबई में हैं।”
“हाउ इंटरेस्टिंग! इसलिए डिज़ाइनर कपड़े पहनती हो। मैं तो पहले ही सोच रही थी कि आख़िर ये आर्किटेक्ट कमाती कितना है कि पूरा वॉर्डरोब इतने महँगे कपड़ों से भरा पड़ा है। हस्बैंड गिफ़्ट करते होंगे, नहीं?”
असीमा ने नज़रें उठाकर नफ़ीज़ा को घूर भर लिया, कुछ कहा नहीं। लेकिन वो ये समझ गई कि किसी के सामने ज़रूरत से ज़्यादा खुलना उसे अपनी ज़िंदगी में ताक-झाँक का मौक़ा देने के बराबर होगा। ये ताक-झाँक असीमा को मंज़ूर न था।
लिली से बातचीत का पूरे हफ़्ते कोई मौक़ा नहीं मिला, न विशाखा ने असीमा से कोई सवाल पूछा। असीमा की चुप्पी और रवैये को देखकर नफ़ीज़ा भी कमरे में अपनी सरहद, अपने बिस्तर तक सिमट गई।
नफ़ीज़ा की ये क़सम अगले ही इतवार को टूट गई। सुबह-सुबह लिली ने कमरे में मौज़ूद तीनों रूममेट से पूछा, “फेम एडलैब्स में ‘अ ब्यूटीफुल माइंड’ लगी है। रसेल क्रो को पक्का ऑस्कर मिलेगा इसके लिए। सुबह के शो की टिकट तीस रुपए में मिल भी जाएगी। कोई चलेगा मेरे साथ?”
“आई एम गेम।” पहला जवाब विशाखा की ओर से आया।
“मैं चल सकती हूँ क्या?” ये सवाल पूछते ही असीमा मन-ही-मन पछताई।
एक बार फिर उसने अनजान रूममेटों से दोस्ती कर लेने का, उन्हें अपनी ज़िंदगी में ताक-झाँक करने देने का मौक़ा देने चली थी। लेकिन मसला रसेल क्रो से जुड़ा था। इसलिए रूममेट के साथ दोस्ती को लेकर तमाम आशंकाओं के बावजूद असीमा बाक़ी तीन लड़कियों के साथ फेम एडलैब्स जा पहुँची।
फ़िल्म के बाद लंबी बहस के साथ कॉफ़ी और फिर लंच का सिलसिला चलता रहा। फ़िल्म के कथानक से लेकर पात्रों की अभिनय-शैली, स्क्रिप्ट से लेकर कैमरा एंगल तक पर लिली कुछ-न-कुछ बोलती रही।
“जॉन नैश की तरह तो तुम भी कोई प्रोडिजी लगती हो लिली। मुझे तुम्हारी प्रतिभा का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।” असीमा ने कहा।
“अभी तुमने मुझे पहचाना कहाँ है जानेमन! अव्वल-अव्वल-सी दोस्ती है अभी। जुहू बीच चलोगी शाम को? अपने हुनर के और नमूने दिखाऊँगी।”
असीमा न कहते-कहते ‘हाँ’ बोल बैठी। कुछ संडे की शाम के कट जाने का लालच था, कुछ लिली की बेबाकी में दिलचस्पी।
“तुम मेरे लिए कहीं चार्ल्स हरमन तो नहीं बनने जा रही लिली, जॉन नैश के रूममेट के कभी ग़ायब, कभी हाज़िर रूममेट की तरह?” असीमा ने हँसते हुए पूछा था।
जाने क्या था इस लड़की में, जो उसे अनायास उसके क़रीब ले जा रहा था। दिन भर चार बंगला के आस-पास भटकने के बाद चारों रूममेट शाम को पैदल ही जुहू चौपाटी की ओर चल दीं।
पूरे रास्ते लिली का बोलना जारी रहा। पटना का घर, दिल्ली का हॉस्टल, आरा का गाँव, मुंबई के सेट। लिली बाक़ी लड़कियों को अपनी रंग-बिरंगी दुनिया की सैर कराती रही।
नफ़ीज़ा ने भी अपनी कहानी सुनाई थी सबको, भयंदर में कैसे एक कमरे के दबड़ेनुमा घर में बिन बाप की तीन बेटियों को माँ ने बड़ा किया। कैसे शराब की ख़ातिर बहन को जीजा ने चार ही दिनों में छोड़ दिया। कैसे अपनी ऑल-वूमैन फैमिली के लिए नफ़ीज़ा को कमाई का इकलौता ज़रिया बनना पड़ा।
“मेरी दुनिया इतनी रंग-बिरंगी नहीं लड़कियों। जीने के लिए बड़े पापड़ बेले हैं हमने।” नफ़ीज़ा ने कहा तो बहुत कम लेकिन बहुत उम्दा बोलनेवाली विशाखा ने जवाब दिया, “ज़िंदगी किसी के लिए आसान नहीं होती। जीने के लिए सेंस ऑफ ह्यूमर चाहिए जो तुम्हारे पास नहीं है नफ़ीज़ा।” उस शाम विशाखा की बेशक़ीमती ज़ुबान से निकली ये पहली और आख़िरी बात थी।
रात के नौ बजे भी चारों में से कोई पीजी नहीं लौटना चाहता था। यूँ तो अपनी-अपनी ज़िंदगी के क़िस्से सबने सुनाए, लेकिन लिली की बातें सबने बड़े मज़े से सुनी। कैसे-कैसे पात्र थे लिली के जीवन में! प्रोडक्शन मैनेजर सतीश भाई जिन्होंने तेलुगू फ़िल्मों में क़िस्मत आजमाई लेकिन असफल रहे। मुंबई में अब आर्टिस्टों, तकनीशियनों के लिए नाश्ते-खाने का इंतज़ाम करने में ही उन्हें जीवन का अनुपम आनंद प्राप्त होता है। सात भाषाएँ बोलते हैं और भूल जाते हैं कि किससे कौन-सी भाषा में बात करनी हैं, तो स्पॉट बॉय से अंग्रेज़ी बोलते हैं, डायरेक्टर से गुजराती और लिली से तेलुगू। सामनेवाले को याद दिलाना होता है कि उससे किस भाषा में बात की जाए। जिस सीरियल का काम लिली संभाल रही है, उसकी कहानी सेट पर मौज़ूद कलाकारों को देखकर लिखी जाती है। कलाकार अनुपस्थित तो एपिसोड से किरदार भी ग़ायब!
जितना बोलती थी, उतना ही गाती भी थी लिली। बात बेबात।
उस रात भी उसने एक गीत सुनाया, वो झूमर जो उसकी माँ रोटियाँ बेलते हुए गाया करती है। अपनी माँ के बारे में बात करते-करते रेत पर पसरे हुए लिली अपनी खनकती हुई भोजपुरी में एक गीत गाने लगी थी, जिसमें सास-ननद के तानों की कोई बात थी। वहीं रेत पर पसरे-पसरे बाक़ी तीनों लड़कियाँ लिली की आवाज़ का सहारा लिए अपनी-अपनी ख़ामोशियों, अपने-अपने ख़्यालों, अपनी-अपनी ज़िंदगियों में डूबती-उतरती रही थीं। सिर्फ़ चौपाटी का शोरगुल था और समंदर की लहरों की बेपरवाह बातचीत थी। ख़ामोशी का अपना सुकून है, लेकिन बेपरवाह बातचीत ही ईंट-ईंट जुड़ते रिश्तों के बीच के सीमेंट और मसाले का काम करती है।
रूममेटों में रिश्ता जुड़ने लगा था, लेकिन सिर्फ़ दो रूममेटों में।
अब नई रूममेट से पूछा था लिली ने, “अपने बारे में भी कुछ बताओ असीमा।”
“मेरी ज़िंदगी में इतना रस नहीं।” असीमा ने कहा था, लेकिन उसकी आवाज़ में न नफ़ीज़ा की तल्ख़ी थी, न विशाखा की बेचारगी। इस आवाज़ में एक यथार्थ था। न नकारे जा सकने वाला यथार्थ।
“मॉल बनवाती हूँ, इमारतें बनवाती हूँ और कॉन्क्रीट के बारे में सोचते-सोचते ख़्याल भी पत्थर-से हो गए हैं।” असीमा ने सिर्फ़ इतना ही कहा।
“ये पत्थर हमारे साथ रहकर पिघल जाएगा असीमा।” लिली ने हँसते हुए कहा था और अपने कपड़ों से रेत झाड़ती हुई खड़ी हो गई।
“आज वीकेंड खत्म हो गया है। कल देखेंगे किसे कहाँ पत्थर तोड़ने जाना है, और किसमें पत्थरों को पिघलाने की ताक़त बची रहती है। अब चलोगी कि रात यही समंदर किनारे बिताने का इरादा है?” नफ़ीज़ा की आवाज़ में तल्ख़ी रह-रहकर लौट आती थी।
रूममेटों पर पूरा हफ़्ता वाक़ई भारी पड़ता था। किसी को किसी से मिलने या बात करने की फ़ुर्सत न होती। किसी के पास किसी के लिए वक़्त नहीं था। सब रूममेट थे, लेकिन दोस्त नहीं थे। विशाखा कई बार अपने बॉयफ़्रेंड के फ़्लैट पर रुक जाया करती। हर बात में नफ़ीज़ा का सिनिसिज्म झेलना मुश्किल होता इसलिए असीमा उससे दूरी बनाकर ही रखती। एक लिली थी जिससे बात करना असीमा के लिए मुमकिन था। लेकिन लिली का काम ऐसा था कि वो देर रात शूट से वापस लौटती। सबके सो जाने के बाद और दोपहर को उठती सबके ऑफ़िस चले जाने के बाद। सुबह-सुबह लिली को उठाना असीमा को उचित न लगता। लेकिन वो लिली से फिर भी बात करना चाहती थी, उससे कहना चाहती थी कि एक और झूमर सुना दे कभी। लिली से उसका मोबाइल नंबर भी नहीं लिया था असीमा ने। अब नफ़ीज़ा से माँगती तो नफ़ीज़ा शोले के गब्बर की तरह आँखें घुमा-घुमाकर कहती, “बड़ा याराना लगता है!”
मकान मालकिन से नंबर के लिए पूछा तो उन्होंने सीधे पूछ दिया, “कोई काम है? मुझे बता दो। मैं मैसेज दे दूँगी। वैसे तुम इन तीनों से दूर ही रहो तो अच्छा है असीमा। तुम पढ़ी-लिखी हो, शरीफ़ हो, इन तीनों से उम्र में भी बड़ी हो। इनसे क्या मतलब तुम्हें?”
असीमा समझ गई कि मकान मालकिन नहीं चाहतीं कि चारों में दोस्ती हो। दोस्ती होने का मतलब उनके विरुद्ध एकजुट होना, उनके ख़िलाफ़ साज़िश। और अगर चारों ने उनकी अधपकी दाल और प्रेशर कुकर में चढ़ने वाले बासी चावल के साथ पकनेवाले नए चावल के विरोध में झंडा उठा लिया तो उनका क्या होगा? इसलिए रूममेटों के बीच डिवाइड एंड रूल की नीति वो उतने ही सालों से चलाती आ रही थीं, जितने सालों से अपने घर में पेइंग गेस्ट्स रख रही थीं।
एक रोज़ फ़र्ज़ की नमाज़ के लिए असीमा उठी तो लिली उसे बाहर ड्राइंग रूम में बैठी मिली।
“नमाज़ के लिए उठी हो? सेहरी करोगी? दूध पियोगी? ले आऊँ?” लिली ने असीमा को देखते ही पूछा।
“तुम बैठो लिली। मैं सब कर लूँगी। कब लौटी?”
“थोड़ी देर पहले। नैश की एक बात नहीं भूल पा रही, फाइंड ए ट्रूली ओरिजिनल आइडिया। इट इज़ द ओनली वे आई विल एवर मैटर। एक ओरिजिनल आइडिया खोजना होगा। तभी कुछ हो सकेगा मेरा। ये टीवी सीरियल का काम नहीं होता मुझसे।”
“ओरिजनल आइडिया सुबह के चार बजे? कल शनिवार है और परसों इतवार। तुम्हारा शो ऑन-एयर नहीं होता होगा। कल से लेकर परसों तक सोचना इस बारे में। अभी सो जाओ, और अपना नंबर देती जाओ।” असीमा ने लिली को ड्राईंग रूम से क़रीब-क़रीब धक्का देते हुए बाहर कर दिया था।
दिन में असीमा ने लिली को एसएमएस किया कि शनिवार को उसे डिनर के लिए भिंडी बाज़ार ले जाएगी। इफ़्तार के वक़्त भिंडी बाज़ार की रौनक़ देखने लायक़ होती है और कई दिनों से असीमा शालिमार रेस्टूरेंट की तंदूरी खाना चाहती थी। लिली ने वापस एसएमएस कर डिनर के लिए ‘हाँ’ कह दिया।
लिली असीमा के दफ़्तर आ गई और दोनों वहाँ से मोहम्मद अली रोड के लिए टैक्सी में बैठ गए।
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