RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“मैं पहली बार किसी मुसलमान के साथ इफ़्तार के वक़्त खाना खाऊँगी असीमा। मेरी लंबी-चौड़ी उम्मीदों पर पानी मत फेरना।” लिली ने टैक्सी में बैठते हुए कहा।
थोड़ी देर में दोनों मोहम्मद अली रोड पर थे। सड़क के इस किनारे से भिंडी बाज़ार तक लगी रंग-बिरंगी दुकानें, खाने-पीने के स्टॉल, मिठाइयों के ढेर- मुंबई की इस गली का नाम किसी ने ‘खाऊ गली’ यही देखकर रख दिया होगा।
असीमा लिली को सीधे शालिमार ले गई। तंदूरी रान मसाला और शालिमार चिकनचिली, दोनों के लिए असीमा ने ही ऑर्डर किया था। लिली थोड़ी देर तक अंदर से आती गंध से परेशानी महसूस करती रही लेकिन खाने का लोभ उसे रोके हुए था। कुछ सोचते हुए उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट पसर आई।
“जानती हो असीमा, पापा के एक मुसलमान कॉलीग थे, शाहिद अंकल। घर से जब वे पापा से मिलकर जाते थे, दादी उस कुर्सी का कवर धुलवाया करती थीं, डिटॉल से। उनके लिए अलग कप, अलग बर्तन थे। माँ को पता लगेगा कि मैं यहाँ तुम्हारे साथ हलाल मीट खा रही हूँ तो मुझे हलाल कर देंगी।”
“अच्छा! इक्कीसवीं सदी में भी? ख़ैर, ये बताओ कि वो ओरिजिनल आइडिया क्या है जो तुम्हें परेशान किए जा रहा है?”
“वही आइडिया जिसके लिए मैं मुंबई आई। जानती हो, मैं बचपन से पूरी सिनेमची थी। मेरे यहाँ जब वीसीपी आया तो मैं ग्यारह साल की थी। दूरदर्शन पर आनेवाली हर फ़िल्म याद रहती। मैं देखती भी। वीसीपी पर भी सभी नई-पुरानी फ़िल्में देखती। बच्चे बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर बनना चाहते हैं, मैं फ़िल्मों की दुनिया में शामिल होना चाहती थी। मुझे याद है कि मैं ननिहाल में थी, गर्मी की छुट्टियाँ के लिए। मामाजी ट्रैक्टर की बैटरी चार्ज कराकर लाए थे कि इतवार को सब मिलकर रामायण देखेंगे। और मैंने हड़ताल कर दी कि नहीं, शाम को आनेवाली फ़िल्म देखेंगे। मैं जीत गई। हमने प्रकाश झा की ‘हिप हिप हुर्रे’ देखी थी उस शाम। तभी मैंने सोच लिया था कि मैं भी ऐसी ही फ़िल्में बनाऊँगी जिनमें छोटे शहरों के ख़्वाब हों, उनकी ख़ुशियाँ, उनकी इनसिक्युरिटी, उनकी संवेदानाएँ हों।”
“तो फिर, क्या रोके हुए है तुम्हें?”
“इतना आसान नहीं है। दिल्ली तक मेरे जाने में किसी को परेशानी नहीं हुई। पटना से दिल्ली रातभर की ही तो बात है। फिर आधे बिहारी तो दिल्ली में आ बसते हैं। लेकिन मुंबई आने के लिए ज़िंदगी दाँव पर लगानी पड़ी।”
“मैं समझी नहीं लिली।”
“पापा ने कहा मैं शादी कर लूँ तभी मुंबई आ सकती हूँ। किसी तरह शादी तो टाल दी मैंने, सगाई नहीं टाल पाई। मंगेतर यहीं पवई के पास लार्सन एंड टूब्रो में इंजीनियर है।”
“तो इसमें परेशानी क्या है। तुम मुंबई में हो, नौकरी कर ही रही हो। आइडिया तो वैसे भी दिमाग़ से सोचना है न। वो तुम कहीं भी सोच सकती हो।”
“परेशानी ये नहीं कि आइडिया कहाँ से आए, परेशानी है कि आइडिया एक्ज़िक्युट कैसे हो।”
“वो भी हो जाएगा। वैसे अपने मंगेतर से मिलवाओगी नहीं मुझे।”
“काहे नहीं जी।” लिली के भीतर की बिहारन अधिक प्यार में और अधिक उमड़ जाया करती।
“लंदन में है किसी प्रोजेक्ट के लिए। सच पूछो तो तुम्हारे साथ मैं बैठ भी इसलिए सकी हूँ क्योंकि वो है नहीं यहाँ।” लिली ने कहा।
उसकी आवाज़ में अचानक उतर आई उदासी को असीमा ने जान-बूझकर नज़रअंदाज़ कर दिया।
“ठीक है भई। ही डिज़र्व्स योर टाइम। वीकेंड पर तो मिलते होगे तुम दोनों।”
“हाँ। ख़ैर, मरीन ड्राइव चलोगी क्या? तुम्हें अपना ओरिजिनल आइडिया सुनाऊँगी।”
“बिल्कुल। ओरिजिनल आइडिया सुनने के लिए तो कुछ भी करूँगी।”
मरीन ड्राइव में समंदर के किनारे बैठे-बैठे लिली ने पहली बार अपनी वो कहानी सुनाई थी जिसपर उसे फ़िल्म बनानी थी। असीमा ने कहा था कि वो फाइनेंसर होती तो बिना दुबारा सोचे उसकी फ़िल्म में पैसे लगा देती। लेकिन चूँकि वो फाइनेंसर नहीं थी इसलिए फिलहाल वो लिली पर सिर्फ़ ढेर सारा भरोसा लगा सकती थी।
लिली के लिए इतना निवेश काफ़ी था।
ईद के लिए असीमा घर नहीं गई थी। कहा था कि एक ज़रूरी मीटिंग के लिए ईद की अगली सुबह ही बैंगलोर जाना है, इसलिए। लेकिन उस दिन लिली को लेकर वो हाजी अली गई थी। पीर की मज़ार पर चादर चढ़ाने के बाद सज्दे के लिए झुकी असीमा क्यों दुपट्टे में मुँह छुपाए रोती रही थी, लिली चाहकर भी नहीं पूछ पाई थी। दरगाह से निकलने के बाद लिली ने सिद्धिविनायक जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी।
“सारी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं यहाँ के गणपति। आज ईद का दिन भी है। पीर से जो माँगा, सिद्धिविनायक से भी माँग लो। रिइन्फोर्समेंट हो जाएगी”, लिली ने हँसते हुए कहा था।
“जो दुआ माँगी है वो बख़्शी नहीं जाएगी, न पीर की मज़ार पर न सिद्धिविनायक में।” असीमा ने धीरे से कहा था।
दर्शन की कतार में खड़ी लिली बहुत देर तक असीमा का चेहरा पढ़ने की नाकाम कोशिश करती रही, फिर धीरे से कहा, “मैं नहीं जानती कि तुम्हें कौन-सा ख़्याल परेशान कर रहा है, लेकिन कभी बात करना चाहो तो मैं हूँ असीमा।” उसके बाद किसी ने कुछ नहीं कहा।
दोनों दोपहर तक घर आ गए। कविता दीदी ने स्पेशल लंच बनाया था। खाने के बाद लिली ने मोटी-सी डायरी अपनी अलमारी से निकाली।
“आज ये खज़ाना बाटूँगी तुम सबसे। दस मिनट में मुशायरा शुरू होनेवाला है। सभी लोग अपनी-अपनी जगह ले लें।” लिली ने अनाउंस किया।
थोड़ी देर में चारों रूममेट फ़र्श पर ही पालथी मारकर बैठ गईं। लिली ने ग़ालिब से शुरूआत की।
“आज हम अपनी परीशानि-ए-ख़ातिर
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं।”
“एक मेरी ओर से सुनो, मजाज़ है।” असीमा ने कहा तो लिली ने ज़ोर से सीटी मारी। असीमा गुनगुनाने लगी, “मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़मे गा नहीं सकता / सुकूँ लेकिन मिरे दिल को मयस्सर आ नहीं सकता / कोई नग़मे तो क्या, अब मुझसे मेरा साज़ भी ले ले / जो गाना चाहता हूँ आह! वो मैं गा नहीं सकता।”
लिली ने जवाब में कहा, “ओरिजनल है, सुनो। ना, छूना ना उस गिरह को / जो पिघला कहीं अगर तो / बह पाओगे तुम कहाँ तक / कि बंद है उस जगह पर / इक सोता है कि समंदर / हमको भी ख़बर नहीं है।”
मुशायरे से शुरू हुआ सिलसिला फ़िल्मी गानों की ओर बढ़ा, फिर विशाखा ने मीराबाई का एक भजन सुनाया और नफ़ीज़ा ने सिलिन डिओन का ‘आई एम योर लेडी’। देर शाम चारों रूममेट सामने वाली पार्क में जाकर बैठ गईं।
“व्हाट अ डे। बहुत मज़ा आया आज। अच्छा हुआ तुम घर नहीं गई असीमा।” विशाखा ने कहा।
“तुम्हारे हस्बैंड नहीं आए ईद पर असीमा?” नफ़ीज़ा का ये सवाल असीमा और लिली, दोनों को तीर की तरह लगा।
“छुट्टी नहीं मिली।” असीमा ने नज़रें झुकाए हुए ही जवाब दिया। उसकी उँगलियाँ लॉन की घास से उलझती रहीं।
लिली ने असीमा की ओर गहरी नज़रों से देखा भर, कहा कुछ नहीं।
उस रात दोनों को नींद नहीं आई लेकिन कमरे में मौज़ूद दो और रूममेट के सामने कोई बात नहीं हो सकती थी।
अगली सुबह असीमा घर से निकल चुकी थी। लिली के मोबाइल इन्बॉक्स में एक मेसैज था- “बैंगलोर नहीं, बांद्रा जा रही हूँ। फ़ैमिली कोर्ट। आज क़ानूनन तलाक़ मिल जाएगा। तुम्हें क्या बताती? आज शाम घर जाऊँगी, अम्मी-अब्बू को बताने। दो दिन बाद लौटूँगी तो बात करूँगी।”
लिली भारी मन से तैयार होती रही। घर से निकली तो चाँदिवल्ली स्टूडियो के बजाय बांद्रा-कुर्ला कॉम्पलेक्स के लिए ऑटो ठीक किया। बांद्रा कोर्ट के बाहर बहुत देर तक दुविधा में खड़ी रही। कुटुंब न्यायालय, मुंबई के बाहर कई कुटुंब टूटने-बिखरने के कगार पर खड़े थे। लिली ने कभी तलाक़ होते नहीं देखा था, न परिवार में, न जान-पहचान में।
रिश्तों को तोड़ने की क्या ज़िद होती होगी, कौन-सा झटका रेशमी डोर से मज़बूत रिश्तों को तोड़ डालता होगा? एक घर और एक छत के नीचे सपने बाँटनेवाले कैसे अजनबी बन जाते होंगे, इस बारे में कोई ज्ञान नहीं था।
लेकिन लिली को असीमा की फ़िक्र थी। फ़ोन मिलाया तो कोई जवाब नहीं मिला। अब लिली कोर्ट की दहलीज़ लाँघकर भीतर जा चुकी थी।
असीमा को ज़्यादा ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उसके साथ उसका कोई वकील था और उससे थोड़ी दूर पर उसके शौहर खड़े थे। लिली को देखकर असीमा बिल्कुल हैरान नहीं हुई। “इनसे मिलो, ये आदिल हैं। अब तक मेरे शौहर हैं, लेकिन अगले एक घंटे बाद नहीं होंगे।”
आदिल ने लिली की ओर बेफ़िक्री से अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। सकुचाती हुई लिली ने जल्दी से हाथ मिलाया और असीमा को लेकर एक कोने में चली गई।
“क्या है ये सब असीमा? आई फ़ील रिअली चीटेड।”
“मुझसे भी ज़्यादा?” असीमा की आँखों में तैरते पानी के जवाब में लिली कुछ न कह पाई।
“जब यहाँ तक आई हो तो मेरे लिए थोड़ी और परेशानी उठा लो। घर जाकर दो दिनों के लिए सामान ले आओ। पूना चलो मेरे साथ। मैं अम्मी-अब्बू के सामने थोड़ी-सी हिम्मत चाहती हूँ।”
शाम को लिली असीमा के साथ पूना जानेवाली बस में थी। क्यों, कैसे इन सवालों से फ़िलहाल लिली नहीं जूझना चाहती थी।
बस में ही असीमा ने लिली को सबकुछ बताना शुरू किया।
कॉलेज में असीमा और आदिल साथ थे। साथ आर्किटेक्ट बने। साथ नौकरी शुरू की और एक दिन पूना जाकर आदिल ने असीमा का साथ माँग लिया, हमेशा के लिए। तब दोनों ने मुंबई में बसने का फ़ैसला किया। आदिल ने अपनी कंपनी खोल ली और बीच-बीच में आर्किटेक्चर पढ़ाने लगे। असीमा ने कर्माकर आर्किटेक्स में नौकरी कर ली। शादी के बाद सालभर सबकुछ अच्छी तरह चलता रहा। पूरे हफ़्ते की नौकरी और फिर लोनावला, कजरथ या महाबलेश्वर में वीकेंड।
लेकिन एक साल में ही आदिल शादी से परेशान होने लगे। उन्हें बंदिशों से, सवालों से उलझनें होने लगीं। ससुराल लखनऊ में थी इसलिए रिश्ते को मज़बूती देने के लिए उनका सहारा भी मुश्किल था।
“आर्किटेक्ट भी कलाकारों की तरह होते हैं लिली। जैसे उनकी कला को नहीं बाँधा जा सकता, वैसे ही उनकी फ़ितरत भी मनमौजी होती है, बिल्कुल स्वच्छंद। पहले मैं बहुत रोती-चिल्लाती थी। बहुत झगड़ती थी। मेरे माँ-बाप पूना से आनेवाले थे हमसे मिलने। आदिल ने उनसे मिलने के बजाय अपनी एक क्लायंट के साथ मड आयलैंड में रुक जाना ज़्यादा ज़रूरी समझा। अगले दो साल तक हम ऐसे ही डूबते-उतराते रहे। कभी बहुत क़रीब, कभी बहुत दूर। लेकिन फिर खींचना मुश्किल हो गया। हर छोटी-छोटी बात तक़रार का सबब बन जाती। एक रात मैं बैंगलोर से मीटिंग के बाद वापस आई तो मुझे मेरा सूटकेस फ़्लैट से बाहर पड़ा मिला। घर अंदर से बंद था। घंटे-भर तक घंटी बजाने के बाद भी आदिल ने दरवाज़ा नहीं खोला। मैं रातभर लावारिसों की तरह सड़कों पर घूमती रही, सूटकेस खींचते हुए। न किसी दोस्त को बता सकती थी न घर फ़ोन कर सकती थी। सुबह दफ़्तर आई, गेस्ट हाउस बुक किया और पीजी खोजने लगी। इस बीच आदिल ने न मेरे फ़ोन का जवाब दिया न एसएमएस का। मैं एक हफ़्ते तक फिर भी घर जाती रही, इस उम्मीद में कि शायद उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हो जाए। शायद कोई रास्ता हम तलाश कर सकें। एक रात एसएमएस पर उन्होंने तीन बार तलाक़ लिखकर भेज दिया। फिर ई-मेल किया और फिर अदालत के ज़रिए एक नोटिस मेरे दफ़्तर के पते पर आया। मैंने तब भी घर पर कुछ नहीं कहा और एक ट्रेनिंग के लिए छह महीने के लिए इटली चली गई। वापस आई तब भी आदिल तलाक़ पर क़ायम थे। और बस आज तुमने देखा, वो मेरी प्रेम-कहानी का आख़िरी पन्ना था।”
लेकिन पूना में सबके सामने असीमा ये सबकुछ इतनी आसानी से न कह पाई।
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