RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
वैसे बिसेसर बो खाली बिसेसर बो यानी बिसेसर की पत्नी नहीं है। उसका एक अदद-सा नाम भी है जो माँ-बाप ने बड़े लाड़ से रखा होगा- चंपाकली। लेकिन लाड़ से किस्मत थोड़े न बदल जाती है? गोड़िन की बेटी गोड़िन की पतोहू बन गई और एक गाँव छोड़कर दूसरे गाँव का गोड़सार संभाल लिया। बिसेसर दिन भर पता नहीं पोखर किनारे बैठे-बैठे मछलियाँ पकड़ने के लिए दाना डालता है या जुआ खेलता है… लेकिन शाम को घर लौटता है तो मछलियाँ पकड़ने वाले जाल में जलकुंभी और कूड़ा-करकट के अलावा कुछ भी नहीं होता। जाने पूरे गाँव की मछलियाँ किस पोखर में खुदकुशी कर आईं? कम-से-कम बिसेसर बो उर्फ चंपाकली ने तो जिंदा मछलियाँ तब से नहीं देखी जब से बियाह के इस गाँव में आई है। हाँ, जिस दिन दिमाग दुरुस्त रहा उस दिन मरी हुई मछलियाँ ले आता है बिसेसर। उस दिन गोड़सार से सोन्हाते हुए बालू से मकई के लावे की खुशबू नहीं आती, खड़ी लाल मरीच के फोरन के पटपटाने की आवाजें आती हैं।
बिसेसर का बड़की मलकाइन के परिवार से गहरा नाता है, जुग-जुगांतर का। ये नाता मालिक बाबू के गुजर जाने के बाद और पुख्ता ही हुआ है, टूटा नहीं है। पता नहीं कितनी पीढ़ियों से बिसेसर का परिवार मालिक बाबू के परिवार की बिना पैसे की चाकरी कर रहा है। बदले में कटनी-दौउनी के वक्त चार पैसे और थोड़े से अनाज का जुगाड़ हो जाता है। बाकी के साल कभी पर्व-अनुष्ठान कभी शादी-ब्याह के बहाने लुगा-धोती, कपड़े-लत्ते की चिंता से मुक्ति मिल जाती है। महीने-दो महीने में जो जिंदा मछलियाँ हाथ आती हैं, उन्हें शायद मालिक बाबू के दरवाजे पर ही भेंट चढ़ा आता है बिसेसर।
पता नहीं बिसेसर कितना काम करता है और कितना आराम, लेकिन बिसेसर बो तो हाड़-तोड़ मेहनत करती है। अभी पौ के फटने से पहले टोले की औरतें अपना अँगना बहारने की तैयारी कर ही रही होती हैं कि बिसेसर बो के गोड़सार का चूल्हा सुलग जाता है। चूड़ा-दही के नाश्ते से पहले तक बिसेसर बो पूरे टोले का भूँजा और मूढ़ी दरवाजे-दरवाजे घूमकर पहुँचा आती है। बिसेसर काम पर जाए न जाए, बिसेसर बो एक भी दिन नागा नहीं करती। पति की अकर्मण्यता की भरपाई चौगुना काम करके करती है। रात से पहले घर लौटते-लौटते उसके अंग-अंग में दर्द रेंगनी काँटे की तरह चुभता है। जिस दिन बिसेसर की अम्मा यानी बिसेसर बो की सास थोड़ी रहमदिल होती हैं, उस दिन कहती हैं कि रेंगनी के फल को जलाकर उबट गए दरद पर लगाओ तो बड़ा आराम मिलता है। बाकी दिन तो खैर दोनों के बीच माँ-बाप, नैहर और हराम के नाम की गालियों का रिश्ता होता है।
वैसे कुछ लोग हराम का खाने के लिए ही पैदा होते हैं और कुछ लोगों की आराम से पिछले कई जन्मों की दुश्मनी होती है। बिसेसर बो के देह को भी आराम नहीं लिखा और इसका बड़की मलकाइन के घर से दो दिन में निकलने वाले छोटका बाबू की बारात का कोई रिश्ता नहीं है।
छोटका बाबू की बारात निकलने के चहल-पहल के बीच एक बात जरूर हुई है। बड़का बाबू अब अचानक अपने स्वर्गीय पिताजी उर्फ मालिक बाबू की भूमिका में आ गए हैं और घर से लेकर दुआर, बारात से लेकर बाजार की जिम्मेदारी उन्होंने बड़ी अच्छी तरह संभाल ली है। दो-चार दिन में जेठ बन जाएँगे, यही ख्याल शायद उन्हें अपनी चाल-ढाल और रवैए में संजीदगी लाने पर मजबूर किए जा रहा है। यूँ तो तीन ही साल का फासला है बड़के और छोटके के बीच, लेकिन बिन बाप के आँगन का बड़ा बेटा वक्त से पहले ही पूरे घर-परिवार का बाप बन जाता है।
“हमारा दुनाली साफ करवाना है। छज्जा पर से उतरवा देना।” कलफ लगे कुर्ते का बटन बंद करते हुए बड़का बाबू जाने आईने से कह रहे हैं या पीछे बैठी बड़की कनिया से!
“अम्माजी को बोल दीजिएगा। ये सब काम हमारे बस का नहीं है।” सेफ्टी पिन की नोक से अपनी पायल की जालियों में से गंदगी निकालने पर पूरा ध्यान लगाए बैठी बड़की कनिया जाने अपनी पायल से कह रही हैं या सामने खड़े अपने पति से!
बड़का बाबू अपनी दो साल और कुछ हफ्ते पुरानी पत्नी को दो-चार कड़ी बातें बोलना चाहते हैं, लेकिन शादी-ब्याह के घर में इस कमरे को पत्नी द्वारा कोपभवन बना देने के डर से कुछ नहीं कहते, सिर्फ किनारे रखी मेज छज्जे की ओर खींचने लगते हैं।
बड़की कनिया की मिजाजपुर्सी के बहाने कमरे में रंगी हुई धोतियाँ गिनवाने आई बिसेसर बो की रगों में अपने मालिक को धोती समेट मेज पर चढ़ने की कोशिश करते देख स्वामी-भक्ति का उबाल आ जाता है और वो आगे बढ़कर झट से मेज पर चढ़ जाती है।
“अरे आपसे न होगा मालिक। हमको बुला लेते। इतना-इतना गो काम के लिए आप अपना कपड़ा-लत्ता काहे खराब कर रहे हैं?” कुछ अपनी पत्नी की उदासीनता से चिढ़कर और कुछ अपने सीधे पल्ले को कमर में खोंसकर कुछ निचली, कुछ ऊपरी पीठ उघाड़े छज्जे पर से उचक-उचककर सामान उतारती बिसेसर बो को देखकर लिहाज में बड़का बाबू कमरे से बाहर चले गए हैं।
लेकिन अपने काम के प्रति बिससेरा बो की इस तत्परता और लगन के कई नतीजे निकल आए हैं। पहला, बड़का बाबू की दुनाली के साथ-साथ छज्जे पर का अनाप-शनाप कचरा भी साफ हो गया है। दूसरा, बिसेसर बो की पीठ में और तेज दर्द उबट गया है। तीसरा, गोली के लिए बड़की कनिया के पलंग के पाए के पास बैठी बिसेसर बो को बड़का बाबू की बेदिली और बड़की कनिया के दुखते दिल का हाल सुनते-सुनते रात हो आई है। चौथा, बड़की मालकिन ने बिना काम के आड़े-तिरछे काम करने के लिए बिसेसर बो को कस के झाड़ लगाई है।
लेकिन इस पूरी घटना का एक और नतीजा निकला है, जिसका बिसेसर बो को इल्म तक नहीं। जिस गोड़िन को उनकी माँ और पत्नी, दोनों ने माथे पर बिठा रखा है, वो गोड़िन अब बड़का बाबू के ध्यान में भी चढ़ गई है। जो चाकरी के काम इतना मन लगाकर, इतनी फुर्ती से, पटाक से, इतनी तेजी से करती है वो दुनिया का सबसे जरूरी काम कितनी अच्छी तरह करती होगी? जिसके बाजुओं में इतनी ताकत है कि अकेले दो-चार बक्से खींचकर पटक डाले, उन बाजुओं को मजबूती से थामने का सुख कैसा होता होगा? पियक्कड़, घुमक्कड़, उजबक बिसेसर ऐसी बहुमूल्य अमानत का मोल क्या जानता होगा? ऊपरवाला भी अजब खेल रचता है। अपने छोटे भाई की बारात निकालने की तैयारी में जुटे बड़का बाबू का मन किसी और तैयारी में लग गया है।
ये मन भी अजीब जंतु है। शरीर की दशा-दिशा, हालत-मकसद, ताकत-आदत और सीमाओं का कभी ख्याल नहीं रखता। शरीर होता कहीं है और मन शरीर को लिए कहीं और जाता है। मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते मन सबसे पापी हो सकता है और किसी का गला रेतते हुए यही जटिल मन गंगास्नान-से भाव में डूबा हो सकता है।
बड़का बाबू के मन ने भी उनके शरीर का साथ छोड़कर बस ऐसा ही एक अबूझ खेल शुरू कर दिया है। बारात का स्वागत करते सरातियों की तैयारी में मीन-मेख निकालते हुए, अपनी दुनाली से हवा में चार राउंड फायर करते हुए, जनवासे में विदेशी शराब के प्यालों पर नचनिया के ठुमकों पर सीटियाँ बजाते हुए, पैसे लुटाते हुए भी बिसेसर को अपनी नजरों से एक पल के लिए ओझल न होने देकर बड़का बाबू के मन की किसी ख्वाहिश ने उनके शरीर पर जीत दर्ज कर ली है।
जाने बड़का बाबू का अपने ऊपर बरसता स्नेह है या जनवासे में गूँजती दमदार आवाज में ‘सात समंदर पार मैं तेरे पीछे-पीछे आ गई’ की पैरोडी पर चलता लौंडा नाच, या खुले दिल से पिलाई गई शराब, भोर होते-होते पूरी तरह भाव-विभोर बिसेसर बड़का बाबू के मन की मुराद के पूरा होने में अपना हाथ बँटाने का पक्का वायदा कर चुका है। नीम तले चबूतरे पर सदियों से बैठे पत्थर के मोरारजी के नाम की किरिया पचहत्तर बार खाता है वो। जितनी बार शराब और बड़का बाबू के अप्रत्याशित स्नेह के नशे में बड़बड़ाता है, उतनी बार दुहराता है, “मोरारजी बाबा के नाम का किरिया मालिक, साम-दाम-दंड-भेद कुछो नहीं छोड़ेंगे। चंपाकली और हम उस दुआर का अहसान मानते हैं। इतना-सा काम नहीं करेंगे हम दोनों आपके लिए!”
बियाह-शादी का सब काम शांति से निपट जाने तक मन की मुराद का ये मामला टाल दिए जाने पर स्वामी और सेवक, दोनों राजी हो गए हैं। चंपाकली को राजी करने में बिसेसर को उतना ही वक्त लगेगा जितना बड़का बाबू बिसेसर के लिए अपनी पुरानी मोटरसाइकिल ठीक करवाने में लगाएँगे। दोनों के इस समझौते के बारे में किसी को पता चले, इसका तो खैर सवाल ही नहीं है। दोनों को किसी और का ख्याल हो न हो, गाँव-चौपाल में अपनी इज्जत का जरूर है।
उधर उसी रात बारात के जाने के बाद बड़की मलकाइन के आँगन में डोमकच खेलते हुए बिसेसर बो का मन भर आया है। अगर लोग बियाह वंश बढ़ाने के लिए करते हैं, वैध संतानें पैदा करने के लिए करते हैं और शरीर का अंतिम उद्देश्य ही संतति होता है तो बिसेसर बो की जिंदगी निरर्थक है और उसका शरीर भी। बियाहे हुए आठ साल हुए और शरीर ने खटने के अलावा कुछ न जाना। बिसेसर के साथ रहते हुए शरीर ने पूरा होना जान लिया होता तो शायद बच्चा न हो पाने का अफसोस कम हो गया होता। लेकिन बिसेसर बो को अक्सर ऐसा लगता है कि ऊपरवाले ने बच्चा इसलिए नहीं दिया क्योंकि एक बिसेसर के बाद अब दूसरा बच्चा अकेले कैसे पालेगी वो?
अपने-अपने भतार के नाम का भद्दा मजाक करती औरतों को देखकर बिसेसर बो महफिल से उठ गई है और सबके लिए चाय बनाने आँगन के उस पार चौके की ओर बढ़ गई है। चलन है कि जबतक दुल्हन के माँग में सिंदूर नहीं पड़ जाता तबतक औरतें और लड़के की माँ जागती रहती हैं। रतजगे का खेल है डोमकच। औरतों को उनकी जरूरत और औकात बताने का खेल, जो औरतें ही खेला करती हैं।
चौके में बर्तन माँजने वाले चबूतरे से लगकर बड़की कनिया को उल्टियाँ करते देख बिसेसर बो चाय-पानी भूलकर उन्हें संभालने में लग गई है। बड़की कनिया जितनी उबकाई नहीं ले रहीं, उतनी सिसकियाँ ले रही हैं।
“आप बैठिए। हम मलकिनी को बुलाकर लाते हैं।” मचिया खींचकर बड़की कनिया को बिठा रही बिसेसर बो का हाथ बड़की कनिया ने जोर से थाम लिया है। उसकी बगल में बिसेसर बो बैठी क्या है, बड़की कनिया के भीतर से आती सिसकियाँ तेज रुदन में बदल गई हैं। उल्टी से आती बास से बिसेसर बो को पूरा माजरा समझ में आ गया है। बिसेसर बो जान गई है कि मालकिन को या किसी को बताने की कोई जरूरत नहीं। वो ढेर सारा नमक-पानी देकर, बड़की कनिया के मुँह में उँगली डाल-डालकर और उल्टियाँ करवाती जाती है। फिर निढ़ाल पड़ती बड़की कनिया को चौके में ही एक कोने में बिठाकर बिसेसर बो फिनायल की बोतल उझल-उझलकर उल्टियाँ साफ करने में लग गई है। उल्टियाँ और चूहा मारने की दवा की मिली-जुली बास को सिर्फ और सिर्फ फिनायल काट सकता है।
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