RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
फ़ोन की घंटी बजी। माँ थी। 1200 सेकेंड, कम-से-कम। वक़्त पर शादी और बच्चे हो जाने चाहिए। लोग बातें बनाते हैं…200 सेकेंड…मोहल्ले में चिंकी-पिंकी-बिट्टू-गुड़िया की शादियाँ तय हो गईं। लड़कों के खानदान का विवरण और दहेज की तैयारी…600 सेकेंड… तुम्हारी नालायकी और सिरफिरेपन पर हमले…600 सेकेंड… यह तो बोनस था!
दरवाज़े की घंटी बजी और फ़ोन से सुबह तक के लिए निजात मिल गई।
“सिगरेट नहीं मिली। गाड़ी नहीं रोक सका कहीं,” लड़के ने कहा।
“मुझे मिल गई, पियोगे?” उसने पूछा।
“ओह! नो थैंक्स।” लड़के ने कहा।
“वोदका या बीयर?” उसने पूछा।
“कुछ ख़ास है?” लड़के ने पूछा।
“नौकरी की दूसरी सालगिरह है। अगले पच्चीस साल वहीं टिके रहने का वायदा कर आई हूँ।” उसने कहा।
“क्या चाहती हो?” लड़के ने पूछा।
“पूछो क्या नहीं चाहती। जवाब देना आसान होगा।” उसने कहा।
“तुम्हें उलझने की बीमारी है?” लड़के ने पूछा।
“इतने सालों में आज पता चला है?” उसने कहा।
“कुछ खाओगी? बाहर चलना है?” लड़के ने शाम की बदमिज़ाजी बदलने की नाकाम कोशिश की।
“ग्रीन एप्पल वोदका के साथ काला नमक मस्त लगता है,” उसने जवाब दिया।
“आई गिव अप,” लड़के ने कहा।
“बचपन से जानती हूँ तुम लूज़र हो,” उसने जवाब दिया।
“व्हॉट्स रॉन्ग विथ यू? आई फील लाइक शेकिंग यू अप,” लड़के ने झल्लाकर कहा।
“यू वोन्ट बिकॉज़ आई डोन्ट परमिट। तुम तो मुझे छूने के लिए मुझसे ही इजाज़त माँगते हो,” सिगरेट का गहरा कश लेते हुए उसने आराम से जवाब दिया।
“आर यू ड्रंक?” लड़के ने प्यार से पूछा।
“देखकर क्या लगता है?” उसने उतनी ही बेरूख़ी से जवाब दिया।
“लगता है कि कोई फ़ायदा नहीं। हम बेवजह कोशिश कर रहे हैं। मुझे वापस घर लौट जाना चाहिए,” लड़के ने हारकर कहा।
“दरवाज़ा तुम्हारे पीछे है। जाते-जाते मुझे सिगरेट की एक और डिब्बी देते जाना। रूममेट को चाहिए हो शायद। हम आधी रात को कहाँ खोजते फिरेंगे?” लड़की ने बात ही ख़त्म कर दी।
“यही होता है जब छोटे शहरों से लड़कियाँ आती हैं दिल्ली पढ़ने। बिगड़ जाती हैं। कुछ तो अपने वैल्युज़ याद रखा करो। यही करने के लिए आई थी यहाँ?” लड़के ने एक आख़िरी कोशिश की।
“ये अगर तुम्हारा आख़िरी वार था तो ख़ाली गया। अगली कोई कोशिश मत करना,” लड़की ने कहा और वोदका गिलास में डालने लगी, जान-बूझकर इतने ऊपर से कि शीशे के ग्लास में उतरते हुए वोदका की खनक दूर तक जाती। कम-से-कम लड़के तक तो जाती ही।
“आई गिव अप,” लड़के ने कहा।
“ये वोदका लेते जाओ। यू मे नीड इट। सिगरेट भी एक्स्ट्रा ख़रीद लेना। तुम्हारे सारे गुनाह माफ़ हैं। वैल्युज़ मुझे ही गठरी में बाँधकर दिए गए थे दिल्ली आते हुए। लेते जाओ। मेरे घर वापस कर आना। बॉयफ़्रेंड…सॉरी…एक्स बॉयफ़्रेंड होने का कोई तो फ़र्ज़ अदा करोगे!” लड़की ने ये कहते हुए दरवाज़े का पल्ला थाम लिया।
लड़के ने उसकी तरफ़ बहुत उदास होकर देखा और कहा, “मुझे क्यों लग रहा है कि तुम्हें आख़िरी बार देख रहा हूँ?”
“फिर तो ठीक से देख लो। मैं इतनी ख़ूबसूरत दुबारा नहीं लगूँगी।” लड़की ने दरवाज़े को थामे रखा और अपनी आवाज़ को बहकते जाने की इजाज़त दे दी।
लड़के ने नज़र भर उसको देखा, फिर एक गहरी नज़र उसके चेहरे पर छोड़कर चला गया। थोड़ी देर बाद वॉचमैन क्लासिक माइल्ड्स के पाँच डिब्बे पहुँचा गया था।
रूममेट के इंतज़ार में वो बालकनी में बैठकर एक डिब्बा फूँक चुकी थी। नया डिब्बा उसने रूममेट के आने पर ही खोला।
“मेरी कोशिश कामयाब रही। वो अब वापस नहीं लौटेगा,” उसने अचानक आ गई हिचकी को पानी के घूँट से गटकते हुए कहा।
“तुमने ऐसा किया क्यों आख़िर?”
“उसे अपने घर पर होना चाहिए, अपने माँ-बाप के साथ। ही ओज़ देम हिज़ लाइफ़। ही डिडन्ट ओ मी एनीथिंग। वैसे भी मेरे साथ रहेगा तो ज़िंदगी भर रोएगा,” उसने रूममेट के कंधे पर सिर टिका दिया था और बहुत थकी हुई आवाज़ में कहा था, “बचपन से जानती हूँ उसको। वो नहीं बदलेगा। और देखो न, मैं कैसे हर लम्हा, कित्ती तेज़ी से बदल रही हूँ। मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगा तो कोसेगा। रोएगा। चिल्लाएगा। उसका जाना मंज़ूर है लेकिन उसका एक दिन तंग आकर मुझे छोड़ देना मंज़ूर नहीं।” वो एक सुर में बड़बड़ाए जा रही थी, यूँ कि जैसे सिगरेट का नशा धीरे-धीरे हावी होने लगा हो।
“तुम उसके साथ भी तो जा सकती थी। वो किसी अनजान शहर तो जा नहीं रहा था,” रूममेट ने जाने क्यों पूछ लिया था।
“शहर अनजान या अपना नहीं होता। हम उसे अपना या बेगाना बना देते हैं,” लड़की ने कहा और रूममेट की बग़ल से उठकर जाने को हुई।
“प्यार नहीं करती थी उससे?” ये रूममेट का आख़िरी सवाल था। ज़मीन पर बैठे-बैठे अपनी बग़ल में खड़ी हो गई लड़की की आँखों में आखें डालकर रूममेट ने पूछा था ये मुश्किल सवाल।
“करती थी। करती हूँ। इसीलिए तो उसके साथ नहीं गई,” ये कहते हुए लड़की ने रूममेट के हाथ से सिगरेट लेकर एक आख़िरी गहरा कश लिया और उठकर बीयर से बालों की कंडिशनिंग करने के लिए बाथरूम में घुस गई।
देखवकी
सुशीला चाची का मन एकदम गदगद था। बात ही कुछ ऐसी थी। मन की मुराद पूरी हो जाने पर मन की हालत तो समझते ही होंगे आप!
अब बेटी के लिए अच्छा लड़का मिल जाना कोई आसान बात तो है नहीं। वो भी ऐसा लड़का, जो दिल्ली में रहता हो! बड़े भाग से मिला था ये रिश्ता। वर्ना सुशीला चाची को तो लगने लगा था कि उनकी ही तरह उनकी बेटी की पूरी ज़िंदगी भी गाँव में ही कट जाएगी, आँगन लीपते हुए। मिट्टी के चूल्हे पर जलावन फूँक-फूँक कर रोटियाँ सेंकते हुए। हर साल गर्मी की छुट्टी में आने वाले शहर में बसे रिश्तेदारों को देख-देखकर दिल जलाते हुए…।
लेकिन इसकी नौबत नहीं आई। विनोद चाचा से लड़-झगड़कर इकलौती बार ही सही, सुशीला चाची ने अपनी ज़िद मनवा ली थी। उनका फ़ोन आया था मेरे पास।
“आएँगे रउरा लगे। देखवकी उहे होगा, दिल्ली में। कौनो परेशानी तऽ न होगी आपको आउर मेहमान को?”
“न चाची। ये तो हमारा सौभाग्य है। इसी बहाने आप हमारे पास आएँगी, दो-चार दिन रह लेंगी। बताइए ना कब आना है?” मैंने अपने कमरे के दरवाज़े पर लगे पर्दे के नीचे से झाँकने वाली उघड़न पर सरसरी नज़र डालते हुए कहा था।
फ़िक्र ये भी थी कि इस दो कमरे के घर में कैसे इंतज़ाम कर पाऊँगी देखवकी का। लड़की देखने-दिखाने की रस्म भी तो कोस-भर लंबी होती है हमारे यहाँ। किसी समारोह से कम कहाँ होती है! जो बात बन गई तो ठीक, जो बात न बने तो इस सदमे से उबरने की मातमपुरसी में महीने दो महीने लगते हैं। ये मुझसे बेहतर कौन जानता होगा?
शाम को ये दफ़्तर से लौटे तो डरते-डरते चाची के फ़ोन के बारे में मैंने बताया इन्हें। शुक्र था कि मूड चंगा था। ये भी उत्साहित होकर बोले, “आने दो न सबको। किसी के बेटी की शादी-ब्याह में मदद करना बड़े पुण्य का काम होता है। हम उनके किसी काम आ सके, ये तो हमारी खुशकिस्मती होगी। फिर गाँव-जवार के अपने लोगों की मदद हम ना करेंगे तो किसकी करेंगे?”
दरअसल सुशीला चाची मेरी अपनी चाची न थीं। हमारे गाँव के घर में चार पुश्तों का परिवार एक ही आँगन में रह रहा था। अब ठीक-ठीक समझाऊँ तो सुशीला चाची के अजिया ससुर और हमारे परबाबा चचेरे भाई थे। उनका बँटवारा तो कई साल पहले हो गया था लेकिन उसके बाद की पीढ़ियों में अभी बँटवारा नहीं हुआ था। हमारे बाबा चार भाई थे, चारों शहरों में बस गए थे लेकिन ज़मीन से जुड़े रहे। दूसरे आँगन वाले बाबा एक ही भाई थे और उन्हें बेटा भी एक, विनोद चाचा। इसलिए इस आँगन से तो सब एक-एक कर आस-पास के शहरों में जा बसे, लेकिन खेती-बाड़ी, गाय-गोरू और घर-दुआर की देखभाल करने के लिए विनोद चाचा गाँव में ही रह गए।
हम सबका गर्मी की छुट्टियों में गाँव आना-जाना लगा रहा। दोनों ओर के परिवारों के चूल्हे तो बँट गए थे लेकिन आँगन और दरवाज़ा एक ही था। इसलिए अलग-अलग होते हुए भी हम पट्टीदार कम, परिवार ज़्यादा थे।
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