RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
मेरी सुशीला चाची से ख़ूब गहरी छनती थी। जब सारे बच्चे फुलवारी और बग़ीचे में पूरी-पूरी दुपहर अमलतास के फूल और अंबियाँ चुन रहे होते, मैं उनके कमरे में बैठकर कोई-न-कोई गीत सुन रही होती। क्या मीठा गला था चाची का! जब साड़ी पर कढ़ाई करती चाची अपनी मीठी आवाज़ में बेटी के ब्याह के गीत गातीं तो उनकी आवाज़ में जाने क्या जादू होता कि मैं नाक सुड़क-सुड़ककर सुबक रही होती।
निमिया तले डोली रख दे कहरवा
आईल बिदाई के बेला रे
अम्मा कहे बेटी नित दिन अईहऽ
बाबा कहे छव मास रे
भईया कहे बहिनी काजे परोजन
भाभी कहे कौन काम रे
अम्मा के रोवे से नदिया उमड़ गईल
बाबा के रोवे पटोर रे
भईया के रोवे से भींगे चुनरिया
भाभी के मन में आनंद रे।
तभी से मेरे मन में ये बात गहरी पैठ गई कि लड़कियों की सबसे बड़ी दुश्मन तो दरअसल भाभियाँ ही होती हैं। शुक्र है कि मेरा कोई भाई नहीं था।
लेकिन मैं सुशीला चाची के बेटे रोहित के लिए हर साल राखी भेजती थी। श्वेता को तो मैंने गोद में खिलाया था। उसकी चुटिया में लाल रिबन लगाए थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल पारने का काम मेरा ही होता था, पूरी गर्मी। दोनों बच्चे बड़े होने लगे तो उनको अक्षर ज्ञान से लेकर हिसाब पढ़ाने का काम मैंने ही किया हर गर्मी-छुट्टी। बदले में मुझे चाची से कई तोहफ़े मिलते, इमली डालकर लाल मिर्च का अचार चाची ख़ास मेरे लिए बनाकर रखतीं। पटना वापस आने लगते हम तो चुपके से बराबर का अचार, आम की खट्टमीठी, चने का सत्तू, तीसी और असली खोए का पेड़ा, ये सब चाची मेरे लिए एक बैग में बंदकर रात में हमारे कमरे में पहुँचा आया करतीं। दिक़्क़त ये थी कि उनके इस अगाध स्नेह के बारे में मैं परिवार में किसी के सामने शेखी भी नहीं बघार सकती थी। बाक़ी दादियों, चाचियों और बहनों की जलन का कोई इलाज न मेरे पास था, न सुशीला चाची के पास।
इलाज तब भी नहीं था, अब भी नहीं है। दिल्ली में मेरे तीन चाचा रहते हैं और कई भाई-बहन शहर के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। तब भी चाची ने मेरे यहाँ आकर ही अपनी दुलरवी बेटी की देखवकी करना तय किया है।
दरअसल, अपने-अपने छोटे शहरों से हमारी पीढ़ी के सभी बच्चे दिल्ली ही आए थे पढ़ाई करने। सबके-सब एक ही ख़्वाब लेकर आए थे दिल्ली-आईएएस बनने का ख़्वाब। दिल्ली विश्वविधालय के बी और सी ग्रेड कॉलेजों में किसी तरह पढ़ने-लिखने के बाद हम सबको अपनी हक़ीक़त का अहसास हो गया था। मैंने भी कॉलेज के बाद एक कॉल सेंटर में मार्केटिंग असिस्टेंट की नौकरी कर ली।
तीन साल की लगातार कोशिश के बाद पापा मेरी शादी कराने में किसी तरह कामयाब हो गए थे। लड़के का परिवार पास के ही गाँव से था, पारिवारिक पृष्ठभूमि बिल्कुल हमारे जैसी। मेरे भावी ससुर भी मेरे पिता की तरह ही एक सरकारी दफ़्तर में मुलाज़िम थे। लड़के के पिता की सरकारी नौकरी की वजह से कानपुर में दो कमरों का एक सरकारी फ़्लैट था जहाँ बाक़ी परिवार रहता था। साल में एक बार ये लोग भी अपने गाँव आते कभी होली पर, कभी छठ पर। पापा की तरह ही मेरे भावी ससुर ने भी एक ही कभी न पूरी होने वाली महत्वाकांक्षा पाल रखी थी, रिटायरमेंट के बाद गाँव में बस जाने की। फिर भी पापा और मेरे भावी ससुर, दोनों ने अपने-अपने शहरों में चार-चार कट्ठा ज़मीन लेकर चहारदीवारी डलवा दी थी।
मेरी तरह ही मेरे होनेवाले पति न गाँव के थे, न किसी छोटे शहर के हो सके और न दिल्ली को ही अपना घर बना पाने में कामयाब रहे। हम जड़ों से उजड़े हुए लोग कहीं बसे होने का ढोंग ही कर सकते हैं बस! और जो अपनी जड़ों का नहीं हो पाता, वो कहीं का नहीं हो पाता।
मेरे पति दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टेंट सेल्स मैनेजर थे। चार लाख नक़द में इससे बेहतर दामाद क्या खोज पाते पापा? फिर मेरे पीछे मेरी दो बहनें भी तो थीं। सो, जब कुल तीन बार देखवकी और रिजेक्शन के बाद मुझे दिल्ली में इनसे मिलने के लिए कहा गया तो मैं बिना किसी उम्मीद के चली गई थी वसंत विहार के प्रिया कॉम्पलेक्स में मिलने। जब इन्होंने कहा कि मैं वसंत कुंज में रहता हूँ तो मैं समझ गई कि इनके लिए भी वसंत कुंज की चौहद्दी दरअसल किशनगढ़ तक बढ़ जाती है, वैसे ही जैसे मेरे लिए निलौठी गाँव में रहना पश्चिम विहार के पॉश मीरा बाग में रहने से कम नहीं।
मेरी शादी गाँव से ही हुई। सुशीला चाची ने मम्मी का सारा काम संभाल लिया था। मेरे लिए चादरें और साड़ियाँ कढ़ाई करके रखी थीं उन्होंने। दादी जब पराती गाने के लिए पौ फटने से पहले उठतीं तबतक सुशीला चाची अपनी ओर के चौके का काम निपटाकर हमारे आँगन के चौके में दूध उबालने और चाय बनाने के लिए आ डटतीं। शाम को घर की औरतें गीत गाने बैठतीं तो चाची पहला तान छेड़तीं।
पीपल पात झलामल बाबा बहेऽला सीतल बतास
तहि तर बेटी के बाप पलंग बिछवनी
आ गईल सुख के रे नींद
राती राती जागे बेटी के माई
काहे बाबा सुतेनी निस्चिंत रे
जेकर घर बाबा धियरे कुमारी
से कैसे सुते निस्चिंत रे।
मैं और श्वेता अंदर बातें करते।
“सुने न दीदी गीत? बेटी के बाप को चैन से निश्चिंत सोने का अधिकार थोड़े है? आप तो इतनी पढ़ी-लिखी, शहर में रहीं, इतनी सुंदर। जब आपकी शादी में इतनी अड़चन आई तो जाने मेरी शादी कैसे होगी!”
मैं उसे हँसकर चिढ़ाती, “तुम तो सुशीला चाची की बोली बोलने लगी हो श्वेता।”
“हाँ दीदी, क्या करें। पूरा-पूरा दिन यही सुनना पड़ता है। भोरे से माँ का टेपरिकॉर्डर चालू हो जाता है। ‘आपन बेटी के बियाह तऽ हम शहर में रहे वाला लईका से करब। इहाँ रहकर चिपरी थोड़े पाथेगी बेटी?’ ये कैसी जिद है दीदी? इतना आसान थोड़े है? बाबूजी पटना वाले चाचा की तरह चार लाख कहाँ से ला पाएँगे?”
“सब हो जाएगा श्वेता। जिसकी किस्मत जैसी, वो वहाँ पहुँच ही जाता है। सुना नहीं अभी बाहर मम्मी लोग क्या गा रही थीं? जाईं बाबा जाईं अबध नगरिया / जहाँ बसे दसरथ राज / पान सुपारी बाबा तिलक दीहें / तुलसी के पात दहेज / कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा / मानी जायब श्रीराम हे।”
“ये सब बोल गीतों में ही अच्छे लगते हैं दीदी। श्रीराम को भी सीता से ब्याह रचाने के लिए शिवजी का धनुष तोड़ना पड़ा था।”
गाँव में ही पली-बढ़ी श्वेता वैसे भी मुझसे ज़्यादा व्यवहारिक बातें करती थी।
फिर श्वेता के लिए धनुष तोड़ने को कौन राज़ी हो गया था? दिल्ली में नौकरी करनेवाले लड़के के लिए दहेज़ कहाँ से जुटा पाएँगे विनोद चाचा?
इन सभी सवालों पर विचार करना मैंने चाची के दिल्ली पहुँचने तक छोड़ दिया। वैसे भी चाची के शहर के प्रति सम्मोहन से मैं वाकिफ़ तो थी ही। उनकी ज़िंदगी के दो ही मक़सद थे- श्वेता की किसी शहर में बसे परिवार में शादी और रोहित की शहर में नौकरी। वो शहर दिल्ली हो तो और भी अच्छा।
मैं जितनी बार गाँव जाती, चाची खोद-खोदकर शहर के बारे में पूछतीं, “बबुनी, घर कईसन बा? उहाँ के घर में आँगन तो नाहिए होता होगा? चलो, लीपने से छुटकारा। रसोई गैस मिल तो जाता है वहाँ? ऐं! अइसन बड़ा बाज़ार लगता है वहाँ? मेट्रो कवन चीज है बबुनी? चापाकल थोड़े चलाना पड़ता होगा हर काम के लिए। नल खोलो तो हर-हर पानी…”
शहर के प्रति उनका ये मोह समझना मुश्किल नहीं था। हम बचपन से गाँव आते रंग-बिरंगे रेडिमेड कपड़ों में और चाची रोहित-श्वेता के लिए चैनपुर बाज़ार से कपड़े मँगवातीं। देहाती कपड़ों के अलावा यहाँ मिलेगा भी क्या, बाद में तो श्वेता भी कहने लगी थी।
हमारी बोली-चाली, रवैया, रहन-सहन सब शहरी हो चला था। माँ भी अक्सर हिंदी में ही बात किया करतीं। माँ की शिफॉन-सी दिखने वाली सिथेंटिक साड़ियों और पापा की चक-चक पैंट-शर्ट पर भी फ़िदा थीं चाची।
“भाई साहब केतना सुंदर शर्ट पहिनेनी। एकदम बड़े आदमी के माफ़िक़। आउर चाचा आपके पूरा दिन उघारे देह एक ठो धोती लपेटे कभी गाय को सानी-पानी दे रहे होते हैं, कभी खेत में ट्रैक्टर चलाते हैं। हमको तो उनका देह भी भूसा जइसा महकता है।” चाची कहती तो मैं खी-खी करके हँस देती। अक्सर मैंने अपने ऊटपटाँग सपनों में चाची को भूसे की ढेरी पर पैर फेंककर सोते देखा था!
पता नहीं चाची को चाचा के देह से भूसे की महक आनी बंद हुई या नहीं, लेकिन चाची का शहर-प्रेम आख़िर उन्हें दिल्ली ज़रूर खींच लाया।
चाची और श्वेता के साथ पूरा-का-पूरा पकवलिया गाँव उतरा था दिल्ली स्टेशन पर! पकवलिया गाँव में सुशीला चाची का मायका है और ये गाँव अपनी उज्जडता के लिए मशहूर है। जाने उस गाँव की बेटी होकर चाची की बोली और आचरण में इतना माधुर्य कहाँ से आया था!
मेरे होश तो स्टेशन पर उतरी उस छोटी-मोटी बारात को देखकर ही उड़ गए। इन लोगों को अपने दो कमरों और एक टॉयलेट-बाथरूम के घर में कहाँ रख पाऊँगी?
श्वेता मेरी गर्दन से आकर लग गई और मैंने उसी से पूछा, “ये सब तेरे साथ आए हैं क्या? लड़के को अगवा करने का इरादा है? हथपकड़ा शादी करनी है?”
“अरे नहीं बबुनी। हमारे बड़का भैया ही का तो लगाया हुआ रिस्ता है। सो, उनका आना जरूरी था। बाक़ी एक मेरा भतीजा है, एक भगीना, एक सुमित्रा फुआ का बीच वाला बेटा और वो किनारे…,” चाची बिना थमे सबका परिचय देने में लग गईं।
“वो तो ठीक है चाची, लेकिन ये सब लोग रहेंगे कहाँ?”
“काहे? आपके घर में जगह नहीं है?” चाची का ये प्रश्न मुझे दंश की तरह चुभा।
तभी श्वेता के मामा ने बात संभाल ली। “काहे परेसान हो बबुनी? हम दिल्ली पहिली बार थोड़े आए हैं? हमरा एक ठो साला रहता है यहाँ, उसके यहाँ चले जाएँगे।”
यही तो ख़ास बात है दिल्ली की। हर बिहारी परिवार के हर वयस्क सदस्य का कोई-न-कोई रिश्तेदार दिल्ली में ज़रूर रहता है।
मैं चाची और श्वेता को लेकर बस स्टैंड की ओर बढ़ गई। चाचा नहीं आए थे।
“कटनी-दौनी के टैम पर कइसे निकलते?” पूछने पर चाची ने मायूस होकर कहा था।
हम तीनों ने 604 नंबर की बस ले ली थी। नई दिल्ली से वसंत कुंज तक की। चाची खिड़की के पास बैठी थीं और बैसाख की धूप में बाहर दौड़ते-भागते शहर को देखकर बच्चे की तरह आह्लादित हो रही थीं। उन्हें जैसे मुँहमाँगा वरदान मिल गया था। श्वेता चुप-सी थी, बस में ठुँसी चली आ रही भीड़ को देखकर परेशान।
हम वसंतकुंज के डी-3 ब्लॉक के स्टैंड पर उतर गए थे। हम तीनों ने थोड़ा-थोड़ा सामान ले लिया था और किशनगढ़ की धूल भरी गलियों को पीछे छोड़ते हुए एक तीन मंज़िले मकान के पहले तल्ले में आकर थमे थे।
श्वेता बाहर वाले कमरे में लगे दीवान पर धप्प से बैठ गई थी। चाची घूम-घूमकर मेरे दो कमरे के घर का मुआयना कर रही थीं।
“खड़ा होकर खाना बनाती हैं, नहीं बबुनी? ठीके है। हम तो मिट्टी का चूल्हा पर चुका-मुका बईठकर खाना बनाते-बनाते घुटने के दर्द के मरीज हो गए। छोटा-सा घर है, साफ-सफाई में सुबिस्ता। ओतना बड़का आँगन में झाड़ू बुहारते-बुहारते हमारे डाड़ में दरद उबट जाता है।” श्वेता कुछ नहीं बोली, सिर्फ़ इधर-उधर देखती रही।
शनिवार का दिन था, इसलिए मेरी छुट्टी थी। मैं मशीन में कपड़े डालकर गई थी, वो श्वेता के साथ लेकर छत पर पसारने चले गए हम दोनों।
छत पर से जब किशनगढ़ का नजारा देखा श्वेता ने तो और परेशान हो गई। “बाप रे! इतनी भीड़ दीदी। कैसे माचिस के डब्बों जैसे घर हैं दीदी!”
“यहाँ तो कुछ नहीं है श्वेता। गुड़गाँव चल गुड़गाँव। वहाँ जाकर तो आकाश छूती इमारतें देखकर तेरा सिर घूमने लगेगा, सच्ची में। वैसे ये गुड़गाँव वाला लड़का मिल कैसे गया चाची को?”
“बड़े मामाजी के बचपन के दोस्त हैं लड़के के पिता। बीस-पच्चीस साल पहले पकवलिया से यहीं, दिल्ली आ गए थे ये लोग। मामाजी ने ही बात की थी लड़केवालों से। दीदी, फोटो खिंचवाने के लिए भी कितना तमाशा हुआ घर में! माँ जिद करती रही कि फोटो दिल्ली के किसी प्रेम स्टूडियो में ही खिचवाएँगे। आपका भी फोटो तो वहीं खिंचाया था न दीदी?”
मैं हँस दी। अपनी शादी वाली तस्वीर खिंचवाने का अनुभव याद आ गया और ये भी याद आया कि कैसे गाँव में माँ सबको मेरी फोटो दिखा-दिखाकर बता रही थी, “वैसे तो हमारी ऋचा रिजेक्ट करने लायक थोड़े है लेकिन फोटो भी हम लोग प्रेम स्टूडियो में जाकर खिंचवाए। दू-तीन सौ रुपैया ज्यादा लिया तो क्या, लड़केवालों को देखते ही पसंद आ गई फोटो।” माँ ने बातों बातों में बड़ी सफाई से फोटो पसंद आने के बाद से लेकर लड़की और पैसे की बात पसंद आ जाने के बीच की कवायद गोल कर दी थी।
“तो खिंची गई या नहीं कोई फोटो?” फ्लैशबैक से उस लम्हे में लौटते हुए मैंने हँसते हुए श्वेता से पूछा। “और पैसा-वैसा? उसकी बात हुई कि नहीं?”
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