RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
“अच्छा? ऐसे ही जीती हैं सब? डॉक्टर भी? मरीज़ भी? फिर तो बच जाऊँगी मैं भी, मरूँगी नहीं।”
“तू भी बच जाएगी और मैं भी और शायद वो औरत भी जिसके ट्रिप्लेट्स की डिलीवरी करानी है अगले पंद्रह मिनट में।” ये कहते हुए लेडी डॉक्टर गगन शेरगिल ने अपना सफ़ेद चोग़ा पहना, गले में स्टेथोस्कोप लटकाया और मुस्कुराते हुए अपने चेंबर से निकल गईं। सिर्फ़ ये कहने के लिए लौटती हैं कि शिवानी दवा खाती रहे और अगले महीने मिलने से पहले अपनी पेंटिंग एक्ज़ीबिशन का इन्विटेशन कार्ड ज़रूर छपवा ले।
शिवानी अपनी साड़ी के चुन्नट ठीक करते हुए सोचती है कि ज़िंदगी नाम की लाइलाज बीमारी का इलाज भी ज़िंदगी ही है शायद। जो ज़िंदगी बेरंग दिखती है उसमें कृत्रिम रंग भरे जाने चाहिए।
फिर कोने में पड़े हुए डस्टबिन की बग़ल में पड़े हुए झाड़ू को उठाकर शिवानी डॉक्टर शेरगिल की मेज़ पर चढ़कर झाड़ू की मदद से छत से लटक रही मकड़ी को आज़ाद कर देती है।
हाथ की लकीरें
“ऐ रनिया… रे रनिया। उठती है कि एक लात मारें पीठ पर? आँख के सामने से जरा देर को हटे नहीं कि पैर पसारकर सो रहती है! नौकर जात की यही तो खराब आदत है, जब देखो निगरानी करनी पड़ती है। अब उठेगी भी कि गोल-गोल आँख करके हमको ऐसे ही घूरती रहेगी?”
माँ ने बड़े प्यार से जिस बेटी का नाम ‘रानी कुमारी’ रखा होगा, उस रानी को मालकिन ने रनिया बना डाला। नाम का ये अपभ्रंश रानी से ऐसे चिपका कि मालकिन और उनके घर के लोग तो क्या, अड़ोसी-पड़ोसी और रनिया के घरवाले भी उसका असली नाम भूल गए।
सात साल की उम्र में ही रानी रनिया हो गई, और मालकिन का आलीशान घर उसकी दुनिया।
हर रोज़ बिना लात-बात के रनिया की नींद खुलती नहीं है, सो उस दिन भी क्या खुलती! जेठ की चिलचिलाती दुपहरी तो अच्छे-अच्छों की पलकों पर भारी पड़ती है, फिर रनिया का तो यूँ भी कुंभकर्ण से पुराना नाता है। उस दिन भी भरी दुपहर में खटाई डालने के लिए एक छईंटी कच्चे आम छीलने को कह दिया था मालकिन ने रनिया को, और ख़ुद चली गई थीं पलंग तोड़ने। अब नींद मालकिन की मुलाज़िम तो है नहीं कि उनके कहे से रनिया के पास आती और जाती!
ख़ैर, मालकिन की एक फटकार ने रनिया को बिल्कुल सीधा खड़ा कर दिया। वैसे कहीं भी सो रहने की पुरानी आदत है रनिया की। कहीं भी ऊँघने लगती है और और जाने कैसे-कैसे सपने देखती है! मिठाई-पकवान, साड़ी-कपड़े, बग़ल के बिन्नू, पड़ोस की मुनिया… सब आते हैं सपने में।
आजकल भाभी जी बहुत आती हैं सपने में। अभी-अभी देखा कि भाभी जी…
“ओ महारानी! खड़े होकर खाली मुँह ताकेगी हमारा कि कुछ काम-धाम भी होगा?” रनिया सोच भी पाती कि उसके सपने में भाभी जी क्यों उदास बैठीं नारंगी रंग की साड़ी में गोटा लगा रही थीं कि मालकिन ने फिर से उसकी सोच में ख़लल डाल दिया।
“अभी आँखें खोलकर सपने देखेंगे तो मालकिन हमारा यहीं भुर्ता बना देंगी,” रनिया मन ही मन बुदबुदाई। हाथ-पैर सीधा करने का वक़्त न था। मालकिन के चीखने-चिल्लाने के बीच ही बड़ी तेज़ी से काम भी निपटाने थे।
वैसे ठाकुर निवास में क़हर बाक़ी था अभी। रनिया को सोते देख भड़की मालकिन के क्रोध की चपेट में घर के बाक़ी नौकर भी आ गए। मालकिन एक-एक कर सबकी किसी-न-किसी पुरानी ग़लती की बघिया उधेड़ती रहीं। अब तो सब आकर रनिया की धुनाई कर देंगे! सबसे छोटी होने का यही तो नुकसान है।
ऐसे में एक भाभी जी का कमरा ही रनिया की शरणस्थली बनता है। रनिया ने जल्दी से घड़े से ताज़ा ठंडा पानी ताँबे की जग में उलटा और भाभी जी के कमरे की और बढ़ गई।
इन दिनों ठाकुर निवास में उसे दिन भर भाभी जी की सेवा-सुश्रुषा की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। यहाँ काम करनेवाला ड्राइवर कमेसर काका रनिया के टोले का है। रनिया को ठाकुर निवास में वही लेकर आया था। माँ ने कितनी ही मिन्नतें की थी कमेसर की, तब जाकर हवेली के अहाते में काम मिला था उसको! सात की थी तब रनिया, अब चौदह की होने चली है। तब मालकिन के पैरों में तेल लगाना इकलौता काम था। अब प्रोमोशन हो गया है उसका। मालकिन की परछाईं बना दी गई है रनिया। पिछले कुछ हफ़्तों से मालकिन ने रनिया को भाभी जी को सौंप दिया है। अपनी तिजोरी की चाभी सौंपने से पहले अपनी सबसे विश्वासपात्र नौकरानी बहुओं को सौंपना इस ठाकुर निवास का दस्तूर हो शायद!
वैसे रनिया का एक घर भी है, जहाँ हर रोज़ देर शाम लौट जाती है वो। रनिया की माँ पाँच घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती है और बाप मटहरा चौक पर सब्ज़ियों की दुकान लगाता है। तीन बड़े भाई हैं और रनिया दो बहनों के बीच की है। सब काम पर लग गए हैं। वैसे माँ को सुबह-सुबह आने वाली उल्टियों के दौर से लगता है, अभी परिवार के सदस्यों की संख्या पर पूर्ण विराम नहीं लगने वाला।
माँ जैसा ही हाल यहाँ भाभी जी का है। अंतर बस इतना है कि आठ सालों के इंतज़ार के बाद भाभी जी पहली बार माँ बनने वाली हैं। पूरा परिवार जैसे उन्हें सिर-आँखों पर रखता है। वैसे ठाकुर निवास के नौ कमरों के मकान में रहने वाले लोग ही कितने हैं! दिन भर पूरे घर को अपने सिर पर उठाए रखने वाली एक मालकिन, ख़ूब ग़ुस्सा करने वाले एक मालिक और एक भैया जी, जो काम के सिलसिले में जाने किस नगरी-नगरी घूमा करते हैं! पाँच नौकरों और दो नौकरानियों की एक पलटन इन्हीं चार लोगों के लिए मुस्तैदी से तैनात रहती है।
रनिया भाभी जी के कमरे में पानी रख आई है। भाभी जी सो रही हैं। दरवाज़ा खुलने की आहट से भी नहीं उठतीं। दिन भर बिस्तर पर ही रहती हैं वो। शाम होते-होते छत पर चली आती हैं और छत पर तबतक बैठी रहती हैं जब तक शाम ढलकर रात में न बदल जाती हो और रनिया के घर लौटने का समय न हो जाता हो।
रनिया भाभी जी के आजू-बाजू परछाईं की तरह डोलती रहती है। लेकिन अपनी परछाईं से भला कौन बात करता है जो भाभी जी करेंगी? दोनों ने एक-दूसरे की ख़ामोशियों में सहजता ढूँढ़ ली है। एक को दूसरे के बोलने की कोई उम्मीद नहीं होती। एक उदास ख़ामोश आँखों से हुक़्म देती रहती है, दूसरी ख़ामोश तत्परता से उसका पालन करती रहती है। दोनों अपने-अपने रोल में एकदम सहज हो गए हैं।
इसलिए उस दिन अचानक भाभी जी ने चुप्पी तोड़ी तो रनिया भी चौंक गई।
बात पिछले बुधवार की ही तो है। मालकिन का आदेश था कि भाभी जी झुक नहीं पातीं, इसलिए रनिया उनके पैर साफ़ कर दें। नाख़ून काटकर पैरों में आलता भी लगा दे।
मालकिन के आदेशानुसार रनिया लोहे की बाल्टी में गर्म पानी ले आई थी। भाभी जी ने बिना कुछ कहे अपने पैर बाल्टी में डुबो दिए थे। रनिया भी बिना कुछ कहे गर्म पानी में डूबीं भाभी जी की गोरी एड़ियों की ओर देखती रही थी।
“क्या देख रही है रनिया?”, भाभी जी ने ही चुप्पी तोड़ी थी।
“आपके पाँव भाभीजी। कितने सुंदर हैं…” रनिया अपनी हैरानी छुपा न पाई थी। लेकिन ये न बोल पाई थी कि पाँव ही क्यों, भाभी जी आप ख़ुद भी तो कितनी सुंदर हैं! माँ नहीं कहती अकसर कि भैंस पर भी गोरे रंग का मुलम्मा चढ़ जाए तो लोग गाय की तरह पूजने लगें उसको! सब रंग का ही तो खेल है। और भाभी जी तो वाक़ई सुंदर हैं…
उस दिन पहली बार भाभी जी के चेहरे पर हँसी देखी थी रनिया ने, जेठ को औचक भिंगो देने वाली बारिश की तरह! हँसकर बोलीं, “हाथ की लकीरें हैं रनिया कि ये पाँव ऐसी जगह उतरे कि फूलों पर ही चले!”
फिर एक पल की चुप्पी के बाद बोलीं, “मुझे चलने के लिए इत्ती-सी फूलों की बगिया ही मिली है रनिया। तेरी तरह खुला आसमान नहीं मिला उड़ने को।”
किसी को अपनी ज़िंदगी मुकम्मल नहीं लगती। हर किसी को दूसरे का जिया ही बेहतर लगता है। रनिया को भाभी जी से रश्क होता है, भाभी जी रनिया का सोच कर हैरान होती हैं। कितना ही अच्छा होता कि ठाकुर निवास से निकल कर हर शाम कहीं और लौट सकतीं वो भी…
रनिया से उस दिन पहली बार भाभी जी ने अपने मन की बात कह डाली थी, और रनिया ने भाभी जी के इस अफ़सोस को अपने पड़ोस के कुँए में डाल आने का फ़ैसला कर लिया था मन-ही-मन।
कुछ बातें राज़ ही अच्छी। कुछ दर्द अनकहे ही भले।
उस दिन अपना काम ख़त्म करने के बाद घर आकर जब रनिया हाथ-पैर धोने के लिए कुँए के पास गई तो फिर भाभी जी के गोरे पाँवों का ख़्याल आया। हाथ की लकीरों का ही तो दोष रहा होगा कि उसे ये बिवाइयों से भरे कटी-फटी लकीरों वाले पाँव विरासत में मिले और भाभी जी को आलता लगे गोरे, सुंदर पाँव। फूलों की बग़िया और आसमान का वैसे भी कोई सीधा रिश्ता नहीं होता।
उधर भाभी जी का पेट गुब्बारे की तरह फूलता जा रहा है और इधर माँ का। दोनों के बीच रहकर रनिया का काम बढ़ता चला गया है। मालकिन तो भाभी जी को तिनका भी नहीं उठाने देतीं। भाभी जी का खाना भी बिस्तर तक पहुँचा दिया जाता है। रनिया को मालकिन ने सख़्त हिदायत दे रखी है कि भाभी जी बाथरूम में भी हों तो वो दरवाज़े के बाहर उनका इंतज़ार करती रहे।
ठाकुर निवास में पहली बार रनिया को इतने कम और इतने आसान काम मिले हैं। लेकिन भाभी जी की बोरियत देखते रहना, उनके साथ ख़ामोशी से रोज़-रोज़ दिन के कटते रहने का इंतज़ार करते रहना- इससे भारी काम रनिया ने अपनी पूरी ज़िंदगी में कभी नहीं किया।
और माँ है कि उसके काम ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते। माँ अभी भी उन पाँचों घरों में सफ़ाई का काम करने जाती है। इसलिए घर लौटकर रनिया और उसकी बहन चौके में जुट जाती हैं ताकि माँ को थोड़ा आराम मिल सके। कम-से-कम घर में रनिया के पास कुछ अदब के काम तो हैं!
थकी-माँदी लौटी माँ को जब रनिया आराम करने को कहती है तो माँ कहती है, “अरे घबरा मत। हमको तो आदत है ऐसे काम करने की।”
कभी-कभी बातों में भाभी जी का ज़िक्र भी चला आता है। “हम अपने हाथों में आराम की लकीरें लेकर पैदा नहीं हुए रनिया। तेरी भाभी जी सी किस्मत नहीं है मेरी कि नौ महीने बिस्तर तोड़ सकें। और वो भी कितनी बार? तेरी भाभी जी की तरह जप-तप की औलाद थोड़े है ये,” माँ अपने फूले हुए पेट की ओर इशारा करती है और वापस रोटियाँ बेलने में जुट जाती है।
हाथ की लकीरें शायद पेट से ही बनकर आती हैं, रनिया सोचती है। जप-तप वाली लकीरें। यूँ ही बन जाने वाली कटी-फटी बेमतलब की लकीरें।
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