RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
भाभी जी के लिए शहर के सबसे बड़े डॉक्टर के अस्पताल में कमरा किराये पर ले लिया गया है। आठवें महीने में ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है और रनिया की ड्यूटी अब अस्पताल में लगा दी गई है।
जाने कौन-सा डर है मालकिन को कि सारा दिन पूजा-पाठ और मन्नतें माँगने में निकाल देती हैं और शाम को भाभी जी के पास प्रसाद का पूरा टोकरा लेकर चली आती हैं! अब किसी पर चीखती-चिल्लाती भी नहीं वो। क्या जाने कौन से रूप में विराजमान ईश्वर नाराज़ हो जाए? क्या जाने कब किसमें दुर्वासा ऋषि समा जाए? पूजा-पाठ के पुन्न-परताप से पोता हो जाए, इसके लिए शक्कर-सिंदूर के साथ हनुमान जी के सामने इक्यावन मंगलवारों का निर्जल व्रत भी क़बूल आई हैं।
बच्चा होना इतनी बड़ी बात तो नहीं, रनिया सोचती है अक्सर! उसकी माँ के तो हर साल एक हो जाता है।
भैया जी काम से छुट्टी लेकर घर लौट आए हैं। वो भी पूरे दिन भाभीजी के सिरहाने बैठे रहते हैं।
रनिया ने दोनों को अपने माँ-बाप की तरह कभी लड़ते नहीं देखा, ख़ूब बातें करते भी नहीं देखा। दोनों एक कमरे में रहकर भी कितने दूर-दूर लगते हैं। कुछ भी हो, लड़-झगड़कर ही सही, माँ-बाबू बच्चे तो पैदा कर रहे हैं न हर साल!
एक शाम रनिया अस्पताल से घर लौटती है तो माँ का अजीब-सा खिंचा हुआ चेहरा देखकर डर जाती है। रनिया की बड़ी बहन सरिता बग़ल से मुनिया की दादी को बुलाने गई है।
माँ का चेहरा दर्द से काला पड़ता जा रहा है। रनिया समझ नहीं पाती कि भागकर बाहर से किसी को बुला लाए या माँ के बग़ल में बैठी उसे ढाँढस बँधाती रहे। इससे पहले कभी उसने बच्चा होते देखा भी नहीं। हाँ, दीदियों से कुछ ऊटपटांग क़िस्से ज़रूर सुने हैं।
रनिया माँ की दाहिनी हथेली अपनी मुट्ठियों में दबा लेती है। साहस देने का और कोई तरीक़ा रनिया को आता ही नहीं।
माँ बेहोशी के आलम में कुछ-कुछ बड़बड़ाती जा रही है।
“संदूक में नीचे धुली हुई धोती है, निकाल ला… छोटे वाले पतीले में ही गर्म पानी करके देना… तेरा बाबू नहीं लौटा क्या… सरिता कहाँ मर गई, अभी तक लौटी क्यों नहीं…”
पता नहीं कितने मिनटों और कितनी चीखों के बाद पीछे से उसकी बहन सरिता मुनिया की दादी और पड़ोस की दुलारी काकी को लेकर आती है। औरतों ने दोनों लड़कियों को कमरे से बाहर निकाल दिया है और ख़ुद माँ को संभालने में लग गई हैं।
बाहर बैठी रनिया कुछ देर तो अंदर की अजीब-अजीब आवाज़ें सुनती रही है और फिर जाने कब आदतन ऊँघते-ऊँघते वहीं दरवाज़े के पास लुढ़क जाती है।
माँ के पेट से सँपोला निकला है जो उसकी छाती से चिपका सब की ओर देखकर ज़हरीली फुफकारी मार रहा है। रनिया के हाथ में छोटी-सी छड़ी है, सोने की। रनिया अपनी सुनहरी छड़ी पर साँप का ख़ून नहीं लगाना चाहती। बाबू उसकी चोटी खींच रहा है, “हाथ उठाती क्यों नहीं? कैसी पागल है तू रनिया…”
दुलारी काकी रनिया की चोटी खींच-खींचकर उसे जगा रही है।
“कितना सोती है रे तू रनिया। कुंभकरन की सगी बहन है तू तो। एक घंटे से चिल्लाकर उठा रहे हैं। चल अंदर जा। भाई हुआ है तेरा। खूब सुंदर है, माथे पर काले-काले बाल और रंग तो एकदम लाट साब वाला… भक्क-भक्क सफेद। अरे समझ में नहीं आ रहा क्या बोल रहे हैं? ऐसे क्यों देख रही है? जा, अंदर जा। माँ का ख्याल रख, समझी?”
हक्की-बक्की रनिया उठकर भीतर चली आई है। बच्चा पैदा कर देने के बाद माँ इत्मीनान और थकान की नींद सो रही है और उसकी बग़ल में सफ़ेद धोती में लिपटा उसका भाई गोल-गोल आँखें किए टुकुर-टुकुर ताक रहा है। रनिया झुककर उसे देखती रहती है और फिर उसी की बग़ल में लेट जाती है। साँप और सोने की लाठी वाला सपना कहीं गुम हो जाता है।
रनिया की नींद देर से खुलती है। माँ तब तक वापस चौके में आ चुकी है और चूल्हा जला रही है। रनिया का नया भाई सो रहा है, बाबू काम पर जाने के लिए सब्ज़ी की टोकरियाँ निकाल रहा है और उसकी बड़ी बहन सरिता छोटकी को गोद में लिए दरवाज़े पर झाड़ू दे रही है।
जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोकर रनिया भाभी जी के पास अस्पताल की ओर भाग जाती है। डेढ़ महीने हो गए हैं भाभीजी को अस्पताल में! ये डॉक्टर भी कैसा पागल है! माँ को बच्चा जनते देखकर तो डॉक्टर के पागल होने का शक और पुख़्ता हो गया है।
भाभीजी बीमार थोड़े हैं, बच्चा ही तो होना है उनको। फिर ये ताम-झाम क्यों?
फिर एक दिन अस्पताल के दरवाज़े पर कमेसर काका रोक लेते हैं उसको। काका का चेहरा सूखा हुआ, आँखें लाल। रनिया को देखकर बोल पड़ते हैं, “घर जा रनिया। तेरी जरूरत नहीं अब भाभी जी को।”
रनिया हैरान उन्हें देखती रहती है और फिर बिना कुछ कहे भाभी जी के कमरे की ओर बढ़ जाती है। रनिया सोचती है कि भाभी जी के डॉक्टर के साथ-साथ भैया जी के ड्राईवर कमेसर काका भी पागल हो गए हैं शायद!
भाभी जी के कमरे के बाहर सन्नाटा है। अंदर वे लेटी हुई हैं, बिना पेट के। भैया जी गलियारे में डॉक्टर साहब से कुछ बात कर रहे हैं और मालकिन बग़ल में कुर्सी पर आँखें बंद किए बैठी हैं। कोई रनिया की ओर नहीं देखता। कोई रनिया से ये नहीं पूछता कि उसे आने में इतनी देर क्यों हो गई।
पीछे से कमेसर काका उसका हाथ पकड़कर नीचे खींच ले जाते हैं। “लेकिन हुआ क्या है काका? भाभीजी तो कमरे में सो रही हैं। फिर सब इतने परेशान क्यों हैं? और उनको बेटी हुई या बेटा? मैंने पेट देखा उनका…”
“भाभीजी के पेट से मरा हुआ बच्चा निकला रनिया। इतने दिन से इसी मरे हुए बच्चे की सेवा कर रही थी तू। बेचारी… कैसी किस्मत लेकर आई है ये बहू।”
स्तब्ध खड़ी रनिया कमेसर काका के शब्दों के अर्थ टटोलने लगती है।
“मरा हुआ बच्चा पेट से थोड़ी निकलता है किसी के? ये कमेसर काका न कुछ भी बकते हैं। माँ के पेट से तो किन्ना सुंदर भाई निकला उसका। भाभी जी से ही पूछेंगे बाद में। अभी तो ये बुढ्ढा हमको अंदर जाने भी नहीं देगा,” ये सोचकर रनिया धीरे से अस्पताल से बाहर निकल आई है।
दोपहर को जब कमेसर काका भैया जी और मालकिन को लेकर घर की ओर निकलते हैं तो रनिया सीढ़ियाँ फाँदती-कूदती भागती हुई भाभीजी के कमरे में जा पहुँचती है।
रनिया को देखकर भाभी जी ठंडे स्वर में कहती हैं, “जा रनिया। मुझे तेरी ज़रूरत नहीं। मुझे तो अपनी भी ज़रूरत नहीं।”
रनिया घर लौट आई है। किसी से कुछ नहीं कहती, बस अपने नवजात भाई को गोद में लिए बैठी रहती है।
बैठे-बैठे ऊँघती हुई रनिया सपने में लाल सितारोंवाली साड़ी में भाभीजी को देखती है और उनकी गोद में देखती है सफ़ेद कपड़े में लिपटा बेजान बच्चा। उसके भाई की गोल-गोल काजल लगी आँखें, माँ का बढ़ा हुआ पेट, भाभी जी के आलता लगे पाँव, ख़ून-सी लाल फूलों की क्यारियाँ, हाथों की कटी-फटी उलझी हुई लकीरें… नींद में सब गड्ड-मड्ड हो गए हैं।
प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब
“तू रोज़ इधर ही सोता है?”
ये पहला सवाल तो नहीं हो सकता जो कोई किसी से पूछता हो।
लेकिन ये मुंबई है और यहाँ इतना वक़्त नहीं किसी के पास कि लंबी-चौड़ी भूमिका के साथ कोई बातचीत शुरू की जाए। इसलिए मुंबई में कोई भी सवाल पहला सवाल हो सकता है। और आख़िरी भी।
बहरहाल, सवाल पूछने के बाद स्टूडियो के रिसेप्शन पर कोने में लगे लाल रंग के सोफ़े पर क़रीब-क़रीब पसरती हुई रोहिणी ने अपनी आँखें बंद कर लीं, बिना जवाब का इंतज़ार किए। रोहित को सूझा नहीं कि क्या कहे। तंग जीन्स और आधी कटी बाजू वाली टॉप से झाँकती रोहिणी की उम्र की ओर ठीक से ताका भी नहीं जा रहा था। वो पैंतीस की भी हो सकती थी और पच्चीस की भी। उम्र का कपड़ों से कोई लेना-देना नहीं होता। दरअसल उम्र का रंग-रूप, फ़ितरत, आदत… किसी से भी कोई लेना-देना नहीं होता।
ऐसी कच्ची-पक्की बातें अब समझ में आ रही हैं रोहित को, मुंबई में रहते हुए।
बॉस ने रोहित को नाइट शिफ़्ट लगाने की हिदायत दी थी, मंगल-बुध की डबल छुट्टी के वादे के साथ। बॉस का छुट्टी के नाम पर किया हुआ वायदा महबूब के वायदे से कम ख़तरनाक नहीं होता। पूरा न हो तो मुश्किल, पूरा हो तो क़यामत।
ख़ैर बॉस का वायदा पूरा नहीं ही होना था और इसमें रोहित को ज़्यादा नुक़सान दिखता भी नहीं था। स्टूडियो में रुके रहने का कोई भी मौक़ा वो खोना नहीं चाहता। एक तो जुलाई की उमस भरी गर्मी से निजात और दूसरा, नाइट शिफ़्ट की आदत तो उसे पड़नी ही चाहिए। दो साल में एसिस्टेंट एडिटर बन जाना है और पाँच साल में एडिटर। बिना दिन-रात स्टूडियो में मेहनत किए ये मुमकिन न था।
“तू जाग रहा है अब तक?” रोहिणी फिर जाग गई थी। “मेरा एडिटर तो सो गया रे। अपन के पास कोई काम भी नहीं। चल लोखंडवाला क्रॉसिंग से सिगरेट की डिब्बी लेकर आते हैं।”
रोहित की नज़रें अपने आप दूर दीवार पर टिक-टिक करती चौकोर घड़ी की ओर घूम गईं।
“नया है क्या इधर? जानता नहीं, इधर रात नहीं होती? तेरे को डर लगता है तो मैं लेकर आती है। तू इधर ही बैठ, डरपोक कहीं का। मेरा एडिटर उठ जाए तो उसको बोलना मैं पंद्रह मिनट में आएगी।”
“नहीं मैम, मैं चलता हूँ न साथ में। आप अकेले ऐसे कैसे जाएँगी?”
“तू कोई सलमान ख़ान है जो मेरा बॉडीगार्ड बनेगा?”
“नहीं मैम। मैं तो बस…”
“कुछ खाया कि ऐसे ही पड़ा है इधर? ढाई बज रहे हैं। भूख लगी हो तो नीचे वड़ा-पाव भी मिलेगा।”
“खाया मैम।”
“ऊपर जाकर उस घोड़े को बोलकर आ, हम दस मिनट में लौटेंगे। ये फालतू में नाइट लगाते हैं हम। काम तो होता नहीं कुछ, स्साली नींद की भी वाट लगती है।”
“जी।”
“तू क्या सीधा लखनऊ से आया इधर? ऐसे बात करेगा तो इधर सब तेरा कीमा बनाकर डीप फ्रीजर में डाल देंगे और टाइम-टाइम पर स्वाद ले-लेकर खाएँगे। चल अब, बोलकर आ ऊपर। फिर हम तफ़री मारकर आते हैं थोड़ी।” रोहिणी फिर सोफ़े पर लुढ़क गई थी।
सीढ़ियों से चढ़ते हुए उसने रोहिणी की ओर एक बार और चोर नज़रें फेंकी, इतनी रात गए वाक़ई ये बाहर जाएगी?
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