RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
ऊपर एडिट सुईट में एडिटर अस्तबल के सारे घोड़े बेचने में लगा था। बोलियाँ इतनी तेज़ लग रही थीं कि खर्राटों की आवाज़ साउंडप्रूफ रूम के बाहर तक सुनाई दे। एफसीपी पर टाइमलाइन सुस्त लेटी पड़ी थी, जैसे उसे भी सिंकारा की ज़रूरत हो… या फिर शायद स्मोक की।
ये फ़िल्म स्मोक पर जाएगी, ऐसा बॉस कल ही बोल रहे थे। ज़रूरत भी है। पहला ही शॉट कितना डल है! रोहित को अचानक पहले शॉट में कमरे से दनदनाता हुआ निकलता हीरो याद आ गया था। कोई इनोवेशन नहीं, न शॉट में न एडिट में…
रोहित ने टाइमलाइन को प्ले करके देखा। अभी तो चार सीन भी एडिट नहीं हुए थे कल के बाद। ये नाइट लगाकर करते क्या हैं आख़िर? इतना टाइम एक सीन एडिट करने में लगता है?
शॉट्स की बेतरतीबी देखकर वो कुछ देर उन्हें क़रीने से सजाने के लिए मचलता रहा, फिर किसी के काम में दख़लअंदाज़ी न करने की बॉस की हिदायत को याद करके वापस एक किनारे खड़ा हो गया।
देर तक खड़े रहने के बाद भी वो तय नहीं कर पाया कि एडिटर को जगाए या वापस लौट जाए। वैसे स्टूडियो की चाभी निकाल कर बाहर से लॉक करने का भी एक विकल्प था। जो एडिटर उठ भी गया तो रोहिणी को फ़ोन तो करेगा ही। वैसे उसकी नींद देखकर लगता नहीं था कि अगले दो घंटे गहरे शोर वाली साँसें निकालने और भीतर लेने के अलावा उसका बदन कोई और हरकत भी करता। जो यमराज भी आते तो डरकर लौट जाते।
स्टूडियो को बंद करके रोहित रोहिणी के पीछे-पीछे चलता रहा। एक तो सिगरेट के धुँए से परेशानी होती, फिर उसके साथ चलते हुए बातचीत करने की अतिरिक्त सज़ा कौन भुगतता?
चौथे माले से सीढ़ियों से उतरकर दोनों लोखंडवाला क्रॉसिंग की ओर मुड़ते, उससे पहले रोहिणी सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठ गई। रोहित खड़ा रहा और उसके शरीर की हरकतों को अनिश्चित आँखों से पढ़ता रहा।
पहले रोहिणी ने दाहिने हाथ से बाईं ओर का स्लीव खींचकर कंधे तक चढ़ाया, फिर बाएँ हथेली में रखे सिगरेट के डिब्बे को देर तक देखती रही। दाहिने हाथ की उँगलियों से एक सिगरेट निकाला, डिब्बे पर उसे तीन बार ठोंका, जीन्स की जेब में हाथ डालकर लाइटर निकाली और एक गहरे कश के साथ सिगरेट जलाकर वापस बैठ गई…
सिगरेट के गहरे कश लेती हुई। किसी गहरे ख़्याल में डूबी हुई।
“तू कहाँ से आया रे इधर?” रोहिणी के अप्रत्याशित सवाल से रोहित की तंद्रा टूटी और वो घबराकर वापस सड़क की ओर देखने लगा।
“मैं पूछ रही हूँ कि तू आया किधर से। बंबई का तो नहीं लगता।”
“जी, इलाहाबाद से।”
“भागकर आया?”
“जी? जी नहीं।”
“फिर लड़कर आया होगा।”
रोहित ने नज़रें झुका ली।
“अरे इसमें गिल्टी फील करने का क्या है। बंबई भागकर आओ तभी लाइफ़ बनती है इधर। सिगरेट पिएगा?”
रोहित ने सिर हिलाकर मना कर दिया। कोई लत लगे, इसके लिए चंद लम्हे बहुत होते हैं। ख़ुद को बुरी आदतों से बचाया रखा जा सके, इसके लिए पूरी ज़िंदगी भी कम पड़ जाती है।
“मैं भी भागकर आई। ज़्यादा दूर से नहीं। इधर ही, रतलाम से। वेस्टर्न रेलवे की सीधी ट्रेन आती थी इधर। आई थी हीरोइन बनने, और देख क्या बन गई।”
“वैसे दीदी, आप करती क्या हैं?”
“तूने तो दस मिनट में रिश्ता भी बना लिया। बड़ी तेज़ चीज़ है। ख़ाली रिश्ते ग़लत बनाता है,” रोहिणी की बात सुनकर रोहित झेंप गया और दो क़दम पीछे हटकर वापस सड़क किनारे पेट्रोल पंप पर खड़ी गाड़ियों के मॉडल पहचानने की कोशिश करने लगा।
“गर्लफ़्रेंड है?”
“जी?”
“गर्लफ़्रेंड? उधर इलाहाबाद में?”
“जी। है।”
“गुड। जीने की वजह है तेरे पास फिर तो। क्या पूछा तूने, क्या करती हूँ? पूछ क्या नहीं करती।”
“जी?”
“सब स्साले कंगना रनाउत की क़िस्मत लेकर थोड़े आते हैं इधर? मैं देखने में कैसी लगती हूँ रे?”
“जी?”
“जी…एच… आई… जे… के… अंग्रेज़ी इतनी ही आती है तुझको?”
“जी नहीं। जी, मतलब… इससे ज़्यादा आती है।”
“तो अंग्रेज़ी में बोल, कैसी दिखती हूँ मैं?”
“जी, ब्यूटीफुल।”
“बस? दो-चार वर्ड और गिरा मार्केट में।”
“प्रीटी… अम्म… लवली… अम्म…”
“अबे, सेक्सी बोल सेक्सी। शर्म आती है बोलने में? बोल, सेक्सी दिखती हूँ, बॉम टाइप।”
“जी, वही।”
“तेरा कुछ नहीं हो सकता। गर्लफ़्रेंड को कैसे पटाया रे?”
“वो तो अपने आप प्यार हो गया,” लतिका का सोचकर रोहित अपने आप मुस्कुराने लगता था।
रोहिणी के ठहाके ने उसे फिर एक बार लिंक रोड की सख़्त सड़क पर पटक दिया।
“नया मुर्गा है। तेरे हलाल होने में टाइम लगेगा अभी। एनीवे, मैं इधर हीरोइन बनने को आई लेकिन अब जो करा ले, सब करती हूँ। प्री प्रोडक्शन, पोस्ट प्रोडक्शन, प्रोडक्शन कंट्रोल और ज़रूरत पड़ी तो कास्टिंग काउच की सेटिंग भी। ये प्रोडक्शन वालों ने इतना बेवक़ूफ़ बनाया कि सोच लिया, प्रोडक्शन करूँगी और सबकी माँ-बहन करूँगी। अब पूरा बदला लेती हूँ। तू मेरी गालियों से डरता तो नहीं?”
“जी नहीं। हमारे यहाँ भी बोलते हैं लोग ये सब। हमारे घर में अच्छा नहीं मानते।”
“मेरे यहाँ भी नहीं मानते थे। घर छोड़ा तो तमीज़ भी छोड़ आई। तू भी स्साला सुधर जाएगा। चल अभी, तेरे को बरिस्ता में कॉफ़ी पिलाती है।”
“जी, मैं कॉफ़ी नहीं पीता।”
“तो ज़िंदगी में करता क्या है, प्यार करने के अलावा?”
“एडिटिंग सीख रहा हूँ।”
“सीख ले। फिर बताना। काम दिलाऊँगी तेरे को। बिना किसी फेवर के। तू अच्छा लगा मुझे।”
“अभी तो टाइम लगेगा। बेसिक्स पर हाथ साफ़ कर रहा हूँ।”
“कॉन्फिडेंस से बोल, सब कर लूँगा। तब काम मिलेगा। मेरे एडिटर को नहीं देखा? स्साला एक शॉट अपनी अक्ल से नहीं लगाता। छोड़ दो तो दो शिफ़्ट की एडिट में पंद्रह दिन लगाएगा। माथे पर चढ़कर काम कराती हूँ। कमबख़्त शक्ल अच्छी है उसकी, वरना रात में नींद ख़राब करने का कोई और मतलब ही नहीं बनता था।”
“जी?”
“जी क्या? नहीं जानता वो मेरा नया बॉयफ़्रेंड है? प्रोडक्शनवालों को एडिट पर बैठे देखा कभी? तुझे वाक़ई टाइम लगेगा। तेरे तो बेसिक्स भी क्लियर नहीं रे।”
बॉयफ़्रेंड की बात सुनकर रोहित के कानों में दमदार खर्राटों की आवाज़ लौट आई थी। वो अब ऐसे गहरे सदमे में था कि उसकी ज़ुबान तालू से चिपक गई थी शायद और उसकी आँखों के आगे एडिट सुईट के बाहर कल रात लटकता ‘प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब’ का बोर्ड झूल गया था।
जिस बेफ़िक्री से कल रात बोर्ड टाँग दी गई होगी एडिट सुईट के बाहर, उतनी ही बेफ़िक्री से रोहिणी अपनी तीसरी सिगरेट फूँकने में लगी थी अभी।
सहयात्री
मुझे वड़नेरा स्टेशन से ट्रेन में चढ़ना था। अहमदाबाद जाने के लिए यही ट्रेन ठीक थी। पुरी-अहमदाबाद एक्सप्रेस। सुबह सात बजे तक पहुँच ही जाऊँगा, दिनभर काम करके शाम की राजधानी लेकर दिल्ली पहुँच जाना मुमकिन हो सकेगा।
मैं एक डॉक्युमेंट्री फ़िल्म की शूटिंग के लिए अमरावती आया था। साथ में था कैमरा- डीएसआर 450। हम जैसे कैमरामैनों के लिए वरदान। ज्यादा भारी भी नहीं और शूट क्वालिटी डीजी बीटा जैसी। मेरे साथ मेरा असिस्टेंट था, विजय।
वड़नेरा स्टेशन पर ट्रेन दो ही मिनट रुकती है, इसलिए विजय को मॉनिटर और ट्राईपॉड की ज़िम्मेदारी सौंप मैं दस मिनट पहले ही बोगी के इंतज़ार में खड़ा हो गया। विजय बैठना चाहता था लेकिन यहाँ कैमरामैन यानी बॉस मैं था। पीठ पर बैगपैक। कंधे पर लटकता कैमरा। दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट। बग़ल में एक अख़बार भी दबा लिया था मैंने। यानी हाथ भी खाली नहीं, दिमाग़ पर तो ख़ैर बोझ लिए चलते रहने की पुरानी आदत है मेरी।
लेकिन विजय पूरी तरह सफ़र का आनंद उठाने के मूड में था।
“ट्रेन आने में अभी देर है सर। चाय पिएँ क्या?” बिना मेरे जवाब का इंतज़ार किए वो सामान मेरी बग़ल में रख चाय की स्टॉल के पास चला गया।
जाने क्यों मेरा मन कहीं बैठने को नहीं कर रहा था। एक तो लोहे की कुर्सियाँ दूर थीं और ये जगह बिल्कुल सही थी मेरे लिए। बोगी यहीं आनी थी और फिर यहाँ से प्लेटफॉर्म पर लगा टीवी स्क्रीन नज़र आ रहा था जिसमें चित्रहार टाइप के गाने आ रहे थे। पहले संजीव कुमार-शबाना आज़मी का एक गाना और अब मॉनीटर पर ज़ीनत अमान और अमिताभ बच्चन लिपटे खड़े थे। गाने के बोल मुझे यहाँ तक सुनाई नहीं दे रहे थे लेकिन स्क्रीन पर चलते गानों को देखकर आदतन दिमाग़ में भी एक के बाद एक गाने गूँज रहे थे।
यहाँ से हिलने का मतलब था सामान को फिर से रखने और उठाने की मशक़्क़त और टीवी पर चल रहे थोड़े-से मनोरंजन से हाथ धोना।
विजय चाय ले आया था और चाय के साथ कुछ प्याज़ के पकौड़े भी। अगर प्लेटफॉर्म की ओर आते हुए मैंने स्टॉल पर सजे पकौड़ों पर मक्खियाँ भिनभिनाते नहीं देखा होता तो शायद पकौड़ों से भरा दोना विजय के हाथ से ले लिया होता। लेकिन फ़िलहाल मैंने अपने हाथ के बिस्कुट और पानी की बोतल बैग में घुसाकर सिर्फ़ चाय उसके हाथ से ले ली।
ट्रेन के लिए अनाउंसमेंट हो चुका था। एसी टू के डिब्बे में यहाँ से चढ़ने वाले हम दो ही यात्री थे। वैसे भी इस भीषण गर्मी में भला कौन सफ़र करता होगा!
ट्रेन आई। एसी टू के पहले कंपार्टमेंट में पहली सीट 1 नंबर। विजय को 38 नंबर सीट अलॉट हुई थी। लंबी दूरी की ट्रेनों पर किसी छोटे-से स्टेशन पर चढ़ने के कई नुक़सान हैं। पहला, आपको सीट मनपसंद मिल ही नहीं सकती। दूसरा अपनी-अपनी सीटों पर पसरे दूर से आ रहे सहयात्रियों और उनके भारी-भरकम बक्सों के बीच अपना सामान घुसाना नामुमिकन और तीसरा, गंदे टॉयलेट।
तीसरे नुक़सान का ख़्याल आते ही दिमाग़ भन्नाया। यहाँ तो नीचे की दोनों सीटों पर लोग यूँ भी पहले से कब्ज़ा जमाए थे। ट्रेन में चढ़ते-न-चढ़ते छोटे स्टेशन पर चढ़ने के तीनों नुक़सानों से सामना हो गया था।
सफ़ेद चादर के पीछे से एक उम्रदराज़ चेहरा निकला, ऐसा कि जैसे पचहत्तर के बाद शरीर और दिमाग़, दोनों ने उम्र की रस्सी पर साल की गिरहें लगाना बंद कर दिया हो। झुर्रियों के बीच से बिना दाँतों वाले अंकल मुस्कुराए, “ऊपर तो नहीं जा सकूँगा। आप सीट बदल लेंगे क्या?”
दाँत न होने की वजह से उनकी बात उनके बोलने से कम, उनके हाथ के इशारों से ज़्यादा समझ में आई। दूसरी तरफ़ नीचे वाली सीट पर लेटी महिला ने न किताब से सिर उठाना ज़रूरी समझा, न सीट के नीचे बिखरी अपनी चप्पलों, झोलों, न्यूज़पेपर के टुकड़ों और खाने की प्लेट के बीच से मेरे लिए जगह बनाने की ज़हमत उठाना ही।
अभी तक मैं कैमरे को कंधे पर लिए-लिए ही खड़ा था, बिल्कुल उसी मुद्रा में जैसे प्लेटफॉर्म से ट्रेन पर सवार हुआ था। पीठ पर बस्ता। कंधे पर लटकता कैमरा। दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट।
“सीट तो मैं बदल लूँगा लेकिन आप इन मोहतरमा को मेरे लिए जगह बनाने को क्यों नहीं कहते?” मैंने झल्लाते हुए कहा।
“हम साथ नहीं हैं।” किताब के पीछे से ठंडी-सी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन अभी भी उन्होंने उठकर सामान समेटने की कोई कोशिश नहीं की।
अब मेरे तेवर में पूरी गर्मी आ चुकी थी। मैंने अपने पैरों से ही उनकी चप्पलें और जूठी प्लेट को ज़ोर से मारकर डिब्बे के गलियारे में कर दिया। मैडम का पढ़ना अब भी बंद न हुआ, न ही मेरी ठोकर की उन्होंने कोई परवाह की। कंबल के नीचे से पैरों में एक हल्की-सी हरकत हुई बस। लेकिन आँखें किताब पर ही थीं। मैं भी किताब का नाम देख चुका था अब तक- ‘प्रेमाश्रम’।
अब मैंने चिढ़कर सीट के नीचे से सामान खींचना शुरू किया। लेकिन खींचता भी कैसे? सामान लोहे की कड़ियों से बँधे थे।
“आप अपना सामान समेटेंगी या मैं ट्रेन से बाहर कर दूँ इनको?”
इतने ख़राब लहज़े में बात करने के बावजूद वो महिला अपनी जगह से नहीं उठी। उलटा घूमकर जवाब दे दिया।
“ऐसे कैसे बाहर कर देंगे आप? दूसरी सीट के नीचे इतनी जगह पड़ी है, वो नहीं दिखती?”
“नहीं दिखती। सिर्फ़ बदतमीज़ी दिखती है। शाम के साढ़े पाँच बज रहे हैं। ये कोई वक़्त है लेटे रहने का? आपसे इतना भी न हुआ कि पैर समेटकर साथ वाले मुसाफ़िर के लिए जगह बना दें? और अंकल आप। हाँ, हैलो। अंकल मैं आपसे बात कर रहा हूँ। बेशक नीचे वाली सीट ले लीजिए। लेकिन अगले तीन घंटे के लिए मुझे बैठने की जगह तो दीजिए।” बुज़ुर्ग सज्जन हड़बड़ा के उठ गए।
|