RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
मैंने पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट सीट पर इतनी ज़ोर से फेंका कि पैकेट के भीतर से ही बिस्कुट के टूटने की आवाज़ सुनाई दी। करीब-करीब इसी गुस्से में मैं सीट पर पसरी महिला को डिब्बे के बाहर फेंक देना चाहता था। लेकिन मेरी झल्लाहट का उनपर कोई असर नहीं हुआ और वो वैसे ही लेटे-लेटे किताब पढ़ती रहीं। मैंने भी अपना चेहरा अख़बार के पीछे छुपा लिया लेकिन मेरे दिमाग़ की बड़बड़ाहट कम न हुई।
“जाने क्या समझते हैं ऐसे लोग अपने आपको! एक सीट रिज़र्व करते हैं और पूरी ट्रेन को अपने बाप की जागीर समझ लेते हैं। सिविक सेन्स तो है ही नहीं। जहाँ खाया वहीं फेंक दिया। यहाँ भी इनके लिए नौकर आए चप्पलें और सामान समेटने। पढ़ेंगे ‘प्रेमाश्रम’ और समझेंगे ख़ुद को भारी इन्टेलेक्चुअल। प्रेमचंद को ही पढ़ना है तो ‘गोदान’ पढ़ो, ‘गबन’ पढ़ो, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ पढ़ो। उनकी कहानियाँ पढ़ो। लेकिन पढ़ने चले हैं ‘प्रेमाश्रम’। कुछ और मिला ही न होगा स्टेशन के बुक स्टॉल पर। मिला होगा लेकिन समझ में ही न आया होगा। प्रेमचंद का नाम देखकर महारानी जी ने किताब उठा ली होगी बस और क्या,” मन-ही-मन मेरा भुनभुनाना जारी रहा।
“थेपला खाओगे?” बिना दाँतों वाले अंकल ने अचानक पूछा और मैंने हड़बड़ाते हुए न चाहते हुए भी उनके खाने के डिब्बे से एक टुकड़ा निकाल लिया।
मेरा थेपला उठाना ही मेरे लिए भारी पड़ गया। अंकल तो जैसे मौक़े की ताक में बैठे थे। छूटते ही उन्होंने बातों का पिटारा खोल दिया।
“मेरा नाम जेपी घोघारी है, जयप्रकाश घोघारी। यवतमाल का हूँ और अहमदाबाद जा रहा हूँ, बेटे और बहू के पास। मैं गुजराती हूँ लेकिन हमलोग तकरीबन सौ सालों से यवतमाल में ही रह रहे हैं। आप कहाँ के हैं बेटा?”
“मैं ओडिशा का हूँ।” मेरा जवाब संक्षिप्त था। ज़्यादा बोलने का मतलब था उनसे बातचीत को बढ़ावा देना, जो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था।
“ओडिशा के? कहीं आप दूसरी ओर की ट्रेन में तो नहीं बैठ गए? ये ट्रेन पुरी से अहमदाबाद जा रही है, अहमदाबाद से पुरी नहीं।”
“जानता हूँ।” मैंने खीझते हुए कहा, “मैं अहमदाबाद ही जा रहा हूँ।”
“अच्छा अच्छा। यही तो ख़ासियत है हमारे देश की। हम वाशिंदे कहीं के होते हैं, बसते कहीं जाकर हैं। अमरीकियों की तरह नहीं होते जहाँ ईस्ट कोस्ट के लोगों ने वेस्ट कोस्ट देखा भी नहीं होगा। अब मुझे ही देख लीजिए। मैं गुजरात का। पला-बढ़ा महाराष्ट्र में। पूरी ज़िंदगी नौकरी की दिल्ली में और अब रिटायरमेंट के बाद नागपुर में रह रहा हूँ, अपने बड़े बेटे के पास। अभी छोटे बेटे के पास जा रहा हूँ, अहमदाबाद।”
मैंने क़रीब-क़रीब टालने वाले लहज़े में सिर हिलाकर कहा, “अच्छा।”
लेकिन घोघारी साहब का घों-घों करते हुए बोलना कम नहीं हुआ।
“मैं स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों के परिवार से हूँ। हमारे जैसा गुजराती परिवार न देखा होगा आपने। महाराष्ट्र में रखकर हमने मराठी संस्कृति को अपनाने में कोई कोताही नहीं बरती। आप गोपालकृष्ण गोखले को जानते हैं?”
“जी, जानता हूँ। इतिहास में पढ़ा है उनके बारे में।” मैं अबतक नहीं समझ पाया था कि मैं क्यों उनकी बक-बक न सिर्फ़ सुन रहा था बल्कि उन्हें बोलने के मौक़े भी दे रहा था।
मुझे अपने बैग में रखी किताबें याद आ रही थीं। कितना कुछ था पढ़ने के लिए, विलियम डैलरिम्पिल, मार्केज़ और एक नाजीरियन लेखिका जिनका नाम याद नहीं आ रहा था अभी।
“पढ़ा होगा। ज़रूर पढ़ा होगा। महान हस्ती थे गोखले। मेरे दादाजी के बहुत क़रीबी दोस्त। जानते हो मेरे दादाजी यवतमाल मिडल स्कूल के प्रिंसिपल थे। जब सन् 1915 में गोखले मरे तो उन्होंने अपने स्कूल में एक शोक-सभा आयोजित की। फिर क्या था, अंग्रेज़ों ने उन्हें नौकरी से निकालकर जेल में डाल दिया।”
“हम्म।” अचानक मुझे उसे नाइजीरियन लेखिका का नाम याद आ गया। अदीची, चिदामामन्दा गोज़ी अदिची। जाने नाम भी सही समझा था मैंने या ग़लत लेकिन इस लेखिका की फ़ेमिनिस्ट राइटिंग मेरे जैसे अक्खड़ आदमी के मन में भी हलचल पैदा करती थी। किताब निकालने के लिए मैंने अपने बैग की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि घोघारी अंकल ने मुझे बीच में रोक दिया।
“अरे! बैठो न बेटा। जानते हो, कहते हैं कि गोखले जी स्ट्रेस से मरे थे। तनाव से। बड़ी कम उम्र में ही मौत हो गई थी उनकी, 49 साल भी कोई उम्र होती है मरने की!”
“उस ज़माने में, आज से सौ साल पहले भी लोग स्ट्रेस से मरते थे? नहीं!” मेरी आवाज़ में व्यंग्य था।
“स्ट्रेस कैसे ना होता? देश ग़ुलाम था। अपने आस-पास, परिवार-समाज-देश पर आप आख़िर कितना अत्याचार देख सकते हैं? आप ज़रा भी संवेदनशील होंगे तो आपको परेशानी तो होगी ही। तनाव तो होगा ही।” सामने लेटी हुई महिला एक साँस में ही बोल गई।
इस अप्रत्याशित जवाब का कोई जवाब मैं न दे पाया।
घोघारी अंकल ने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। कैसे उनके पिता स्कूल के दिनों में ही आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। कैसे दादाजी के घर की कुर्की की अफ़वाह सुनते ही दादी ने आठ बच्चों के पूरे परिवार को अपने पड़ोसी के तबेले में छुपा दिया था। कैसे उनका बचपन आज़ादी की कविताएँ लिखते-सुनते बीता और कैसे एक आज़ाद भारत के साठ सालों को देखने का सुख उन्हें भाव-विभोर कर देता है।
मैं अब भी निश्चेष्ट श्रोता ही बना रहा, बीच-बीच में हाँ-हूँ से ज़्यादा मेरी भागीदारी नहीं थी। लेकिन वो महिला बहुत देर तक लेटे-लेटे ही घोघारी जी से घुल-मिलकर बातें करती रहीं, जैसे मुद्दतों की दोस्ती थी उनकी।
ट्रेन दस बजे के आस-पास भुसावल पहुँची। मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं था, इसलिए कुछ खाने के इरादे से उतरने लगा कि मुझे विजय की याद आई। इस गहन बातचीत को सुनते रहने के क्रम में मैं उसे तो भूल ही गया था।
मैं उठने लगा कि उस महिला ने मुझसे उड़िया में कहा, “ट्रेन रू ओलिहबे कि? मो पाईं पाणिर बोटल आणिबे कि? (नीचे उतरेंगे क्या? मेरे लिए पानी की एक बोतल ले आएँगे?)
“आपको कैसे मालूम चला कि मैं उड़िया बोलता हूँ?” मैंने हैरान होकर पूछा।
“आप ही ने तो सामने वाले अंकल को बताया कि आप ओडिशा से हैं?”
“ओ हो! तो आप किताब पढ़ने का स्वांग रच रही थीं। आपका ध्यान तो दरअसल हमारी बातों पर था।” मैं फिर अपने व्यंग्य पर उतर आया था।
महिला ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। घूमकर लेट भर गईं। मुझे अपने ऊपर बड़ी कोफ़्त हुई। ये कमबख़्त ज़ुबान अपने नियंत्रण में कभी होती क्यों नहीं? फिसलने और ज़हर उगलने की बुरी आदत है उसको। लेकिन माफ़ी माँगने की हिम्मत भी न हुई।
मैंने अंकल की ओर घूमकर पूछा, “आपको कुछ चाहिए क्या?” अंकल ने हाथ के इशारे से मना किया, कहा कुछ नहीं।
मैं भारी मन से प्लेटफॉर्म पर उतर गया। कुछ खाने की इच्छा नहीं हुई। विजय के लिए खाना पैक कराकर मैं दूसरे दरवाज़े से डिब्बे में चढ़ा और उसे खाने का पैकेट पकड़ाकर फिर प्लेटफॉर्म पर उतरकर टहलने लगा।
एक बार जी में आया, जाकर माफ़ी माँग लूँ। लेकिन अहं ने डिब्बे के दरवाज़े पर एक बाँस का मोटा बल्ला डाल दिया था। उछलकर लाँघना भी मुश्किल, झुकना तो ख़ैर नामुमकिन। मैं अपनी ऊहापोह से जी चुराने के लिए सिगरेट के गहरे कश लेता रहा। ट्रेन के एक रात के सफ़र में लोग जन्म-जन्मांतर का रिश्ता बनाने की कोशिश क्यों करते हैं? मतलब ठीक है, क़िस्मत कहिए कि हम एक साथ एक बोगी में अगल-बग़ल की सीटों पर डाल दिए गए लेकिन इसका मतलब तो ये है नहीं न कि गले ही पड़ जाया जाए? जब अपने सहयात्री के गले पड़ना अपेक्षित नहीं होता तो फिर भी अपने सहयात्री के बर्ताव या उसके साथ किए गए बर्ताव पर इतना दिमाग़ क्यों ख़राब कर रहा हूँ मैं? ये घोघारी अंकल जो भी हैं, और ये उड़िया में रिश्ता निकालने वाली महिला जो भी है, इन दोनों से मेरा नाता बस आज भर का है- बस इस सफ़र भर का। ये सोचकर मैंने एक और सिगरेट जला ली। लगा कि जैसे अचानक कोई बोझ उतर गया है।
ट्रेन खुलने के सिग्नल के बाद जब पानी की बोतल लिए डिब्बे में वापस पहुँचा तो कम्पार्टमेंट की बत्तियाँ बुझाकर मेरे दोनों सहयात्री सो चुके थे। मैं भी ऊपर वाली सीट पर लेटे-लेटे रीडिंग लाइट जलाकर कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा, फिर सो गया।
कंपार्टमेंट का सन्नाटा, पटरियों पर दौड़ती ट्रेन का शोर और घोघारी अंकल के खर्राटे की घर्र-घर्र ने फिर दिमाग़ को लुकाछिपी के किसी खेल की ओर धकेल दिया। इसी ट्रेन में तो मिली थी शालिनी।
एक सफ़र, बस एक सफ़र में रिश्ते नहीं बनते। ट्रेन में मिलनेवाले लोग दुबारा नहीं मिला करते। सफ़र पूरा होने के साथ दोस्तियाँ भी ख़त्म हो जाती हैं और बात-बेबात हुई चर्चाएँ भी। लेकिन मेरी और शालिनी की दोस्ती इसी ट्रेन में शुरू हुई थी। फिर ज़िंदगी के लंबे सफ़र में वो रिश्ता टूट भी गया था। ट्रेन के सहयात्रियों की नियति यही होती है शायद। उसके बाद मैंने ट्रेन में बहुत सफ़र किया, लेकिन दोस्ती कभी नहीं की। दोस्ती तो क्या, बात तक नहीं की। मेरे व्यक्तित्व का ये रूखापन ट्रेन में चढ़ते ही अपनी चरम सीमा तक चढ़ते हुए असंवेदनशीलता की हद तक पहुँच जाता था।
सुबह नींद खुली तो ट्रेन अहमदाबाद पहुँचने वाली थी। सभी यात्री अपने-अपने सामान समेटने लगे थे। घोघारी अंकल भी अपनी चप्पलें समेटकर बैग में रखने लगे थे। मैं भी नीचे उतरकर जूते पहनने लगा। किसी से बात करने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई। सामनेवाली सीट पर लेटी महिला वैसे ही दूसरी ओर घूमकर सोती रहीं। दो अच्छे सहयात्रियों की तरह हम एक-दूसरे से किया बर्ताव भूल चुके थे।
ट्रेन के अहमदाबाद पहुँचते ही कुलियों के साथ-साथ एक चौबीस-पच्चीस साल का शख़्स डिब्बे में घुस आया और हमारे सामने लेटी महिला के पास आ खड़ा हुआ।
“दीदी, दीदी। तमो फोन बॉन्द काहि कि ओछि? मू बहूत सोमोयो रू चेष्टा कारूछि? कितनी चिंता हो रही थी मुझे। फोन तो ऑन रखतीं।”
“नहीं रे, फ़ोन डिस्चार्ज हो गया था। इसलिए बंद हो गया। अब मैं चार्ज करने के लिए पावर प्वाइंट तक पहुँचूँ तब ना?” पिछले चौदह घंटों में पहली बार मुझे महिला के चेहरे पर हँसी की एक लकीर नज़र आई थी।
“किसी की मदद ले लेती। अपने सहयात्रियों से कह देती।” भाई की आवाज़ में अब भी परेशानी घुली थी।
“सहयात्रियों से मदद माँगने का न हक़ रहा न चलन,” इस बार व्यंग्य महिला की आवाज़ में था।
इसी बातचीत के बीच भाई नीचे से सामान खींच-खींचकर सीट पर रखता गया। सामान से साथ एक व्हील चेयर और एक जोड़ी बैसाखियाँ भी थीं। सामान निकालने के बाद उसने अपनी बहन को पकड़कर बिठाया और तब मुझे अहसास हुआ कि महिला की दाहिनी टाँग की जगह एक कृत्रिम टाँग लगी थी।
मुझे जाने ऐसा क्यों लगा कि मुझपर घड़ों पानी पड़ गया हो। मैं अब न उस महिला से आँख मिला पा रहा था न घोघारी अंकल से। जाते-जाते उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया तो भी मेरा ध्यान व्हील चेयर पर ही था। भाई ने कुली की मदद से एक-एक करके सामान उतारा और अपनी बहन को भी डिब्बे से उतारकर व्हील चेयर पर बिठाया।
मैं भारी मन से सीट पर ही बैठा रहा। विजय के आने तक डेढ़ महीने पहले लंदन की मेट्रो पर लगे पोस्टर पर पढ़ी हुई दो लाइनें अपने मन में जाने कितनी बार दुहराई थी मैंने उस दिन, “इवन इफ़ यू आर ट्राइंग टू बी पोलाइट / ट्राई नॉट टू मेक स्पेस टू टाइट।”
सच ही कहा है किसी ने, किसी का सब्र और स्वभाव दोनों की पहचान करनी हो तो उसके साथ ट्रेन में सफ़र करिए। उस दिन पुरी-अहमदाबाद एक्सप्रेस के उस सफ़र के बाद मैं अचानक समझ गया था कि शालिनी ने मुझे क्यों छोड़ा होगा…
नीला स्कार्फ़
शांभवी चुपचाप अपना सामान ठीक करती रही। बिस्तर पर एक जंबो साइज़ सूटकेस पड़ा था और रंग-बिरंगे तह किए कपड़े बिस्तर पर समेट लिए जाने के मक़सद से बिखरे पड़े थे। तीन महीने की पैकिंग तो बहुत ज़्यादा नहीं होती, लेकिन विदेश प्रवास का हर लम्हा अच्छी तैयारी माँगता है- मौसम और कल्चर के अनुकूल।
वैसे भी शांभवी को सब कुछ क़ायदे से करने का ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर है। कपड़े क़ायदे से तह करती है, पहनती है, वापस रखती है। जो मूर्त है और नज़र आता है, सब सलीक़े में बँधा हुआ है- जैसे फ्रिज में डाले जा रहे डिब्बे, फल, सब्ज़ी, बर्तन… रसोई की दराज़ें… लिविंग रूम के कुशन… गुलदानों में लगे फूल… अमितेश के साथ सात सालों की गृहस्थी।
जो अमूर्त है और दिखाई नहीं देता, सब बेसलीक़ा है- जैसे रिश्ते, मन, सुख, दुख, शिकायतें…
और सलीक़े से तह किए रखे कपड़ों के बीच एक बेसलीक़ा-सा सिल्क का नीले रंग का स्कार्फ़ फ़र्श पर लोट-पोट कर किस अमूर्त बेरुख़ी के ख़िलाफ़ अपनी शिकायत दर्ज़ करा रहा था? शांभवी की नज़र उस स्कार्फ़ पर पड़ी तो उसने बस यूँ ही उठाकर मुचड़ी हुई अवस्था में ही अपने हैंडबैग में ठूँस लिया।
ये कमबख़्त स्कार्फ़ भी न… बेवजह न जाने क्या याद दिला गया था शांभवी को! याद बेरहम कसाई है। बेवजह वक़्त-बेवक़्त दिल को, लम्हों को, तजुर्बों को चीरने-काटने की बुरी आदत है उसको। कैसी ज़िद्दी होती हैं यादें कि हमारी पकड़ से कभी इधर, कभी उधर, कभी यहाँ, कभी वहाँ फिसलती रहती हैं और हमारे ही वजूद पर लिसलिसी-सी पड़ी रहती हैं। न पोंछना आसान, न धोना।
इस बार नीले स्कार्फ़ की डोर यादों के जिस वृक्ष से जा उलझी थी, उस वृक्ष पर लटकी हुई थी एक तारीख़- 26 दिसंबर की।
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