RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
शांभवी को अमितेश की उँगलियों में फँसी हुई अपनी एक मुट्ठी में उतर आई पसीने की नरमी की याद सिहरा गई थी अचानक। नीले स्कार्फ़ ने याद दिलाया कि कैसे सात साल पहले उस बुधवार को अपनी एक हथेली से अमितेश को थामे, दूसरी हथेली में कोल्ड कॉफी के ख़ाली ग्लास में पाइप से बुलबुलों की बुड़-बुड़ भरते जनपथ के चक्कर काटते रहे थे दोनों। कोई और ख़ास वजह नहीं, लेकिन शांभवी को याद है कि 26 दिसंबर वाला वो बुधवार उसकी शादी के बाद के पहले महीने के पाँचवें दिन आया था।
शांभवी को एक और ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर है- तारीख़ें याद रखने का। चीज़ें, बातें, चेहरे, घटनाएँ- सबको तारीख़ों की गाँठ में बाँधकर मन में रख लिया करती है। इसलिए तारीख़ें भूल नहीं पाती। इसलिए उसे अच्छी तरह याद है कि नीले रंग का ये सिल्क का स्कार्फ़ उसने 26 दिसंबर को अमितेश के साथ जनपथ धाँगने के क्रम में ख़रीदा था।
ये नीला स्कार्फ़ सिर्फ़ एक एक्सेसरी हो सकता था, ज़रूरत नहीं। पता नहीं क्यों ख़रीद लिया था ये नीला स्कार्फ़ उसने?
पता नहीं क्यों शादी कर ली थी उसने? और ज़ेहन में पता नहीं क्यों ये ख़्याल अचानक आ गया था। लेकिन ज़ेहन में आए ख़्याल अक्सर बेसिर-पैर के ही होते हैं।
ख़्याल को झटककर, नीले स्कार्फ़ की याद से जी छुड़ाकर शांभवी वापस अपने काम में लगी ही थी कि बिस्तर के पायताने पड़े लाल जैकेट ने कुछ और याद दिला दिया… नए साल पर 12 जनवरी को मॉल में अमितेश के साथ हुई पहली तकरार…
बड़ी बेतुकी बात पर लड़े थे दोनों। जैकेट को लेकर। छोटा है। बड़ा है। मैटिरियल अच्छा नहीं है। बड़ा महँगा है। इस लंबी-चौड़ी बहस में पूरे पैंतालीस मिनट निकल गए थे जिसके बाद अमितेश की ज़िद पर शांभवी ने जैकेट ख़रीदकर सुलह कर ली थी। ये और बात है कि सिर्फ़ तीन बार पहना था उसने इस जैकेट को। शांभवी को लाल रंग से मितली आती है।
ये सारी बातें उसे आज ही क्यों याद आ रही हैं? इन सारी बातों को वो अपने साथ फ्लाइट में बिठाकर नहीं ले जाना चाहती, इसलिए शांभवी ने लाल वाला जैकेट वापस हैंगर में टाँगकर अलमारी में लटका दिया था।
इतनी ही देर में ये भी याद आ गया था कि जिस दिन ये जैकेट लिया था, उसी दिन दोनों ने घर के लिए पर्दे भी ऑर्डर किए थे। आसमानी रंग के पर्दों पर सुनहरे रंग की छींट। ‘जैसे शांत-से आसमान से हर वक़्त गुज़रती रहती हो धूप की सुनहरी लकीरें’, अमितेश ने कहा था पर्दे लगाने के बाद। ड्राईंग रूम में अब भी वही पर्दे लटक रहे थे, हालाँकि शांभवी ने अपने कमरे में सफ़ेद रंग की चिक डाल दी थी और अमितेश के कमरे में ब्लाइंड्स लग गए थे।
सिर्फ़ पर्दों का रंग-रूप ही नहीं बदला था, रिश्तों की सूरत-सीरत भी बदल गई थी। हालाँकि दोनों के घर के ऊपर का आसामान तमाम मटमैली अंदरूनी आँधियों के बावजूद बाहर से शांत और साफ़-सुथरा ही दिखता था। बादलों के बीच से धूप भी अपने वक़्त पर निकल आया करती थी। लेकिन आसमान बँट गया था। कमरे अलग हो गए थे। धूप को देखने-समझने के दोनों के टाइम-ज़ोन अलग हो गए थे, इतने अलग कि कई बार एक ही कमरे में होते हुए भी दोनों एक जगह, एक स्पेस में नहीं होते थे।
“कब तक लौटोगी?” बहुत देर तक बीन बैग पर ख़ामोश बैठे उसे पैकिंग करते देखते हुए अमितेश ने पूछा था। जब बात करने को कोई बात न हो तो सवाल काम आते हैं।
उसी कमरे में बैठा था अमितेश, इस उम्मीद में कि जाने की तैयारी करते हुए शांभवी कुछ कहेगी- कोई चाहत, कोई शिकायत। कोई आदेश, कोई निर्देश। लेकिन जब ख़ामोशी आदत में शुमार हो जाए जो सामने वाले की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर देना भी फ़ितरत बन जाती है।
“जानते तो हो।” शांभवी ने छोटा-सा जवाब दे दिया। बिना सिर उठाए, बिना अमितेश के चेहरे, उसकी आँखों की ओर देखे। बात करने को कोई बात न हो तो सवालों का कोई मुकम्मल जवाब भी नहीं मिलता।
अमितेश चुप हो गया और सिर पीछे की ओर टिकाए वहीं बीन बैग पर बैठे-बैठे शांभवी के कमरे में बिखरी हुई आवाज़ों से मन बहलाता रहा। लेकिन कपड़े तह करने और सूटकेस में रखने के क्रम में आवाज़ भी भला कितनी निकल सकती है? थककर वो अपने कमरे में चला गया। अपने कमरे में, जिसे वो अब भी टीवी वाला कमरा कहता है। कई महीनों से उस कमरे में अकेले रहते, उसी में सोते-जागते हुए भी।
एक घर में दो लोग साथ-साथ रहते हुए अकेले रहते हों तो भी एक-दूसरी की मौज़ूदगी की आदत नहीं जाती। किसी का साथ हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत होता है, चाहे वो भ्रम के रूप में ही क्यों न बना रहे। भ्रम में जीना और फिर भी रूमानी ख़्वाहिशों-ख़्यालों को बिस्तरा-ओढ़ना बनाकर हर रात सो जाना ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच होता है। ज़िंदगी का बेशक न होता हो, शादियों का तो होता है। जो साथ है, उसके बिछड़ जाने का डर और जो बिछड़ गया है उसके एक दिन लौट आने की उम्मीद- शादियाँ इसी भरोसे पर चलती रहती हैं।
तीन महीने के लिए जा रही थी शांभवी, सिर्फ़ तीन महीने के लिए… इस बिछड़ने को बिछड़ना थोड़े कहते हैं, अमितेश ने अपने-आप को समझाया। लेकिन ऐसा क्यों लग रहा था कि शांभवी लौटेगी नहीं अब? इस तरह चले जाने और फिर एक दिन किसी तरह लौट आने से तो उसका बिछड़ जाना ही बेहतर हो शायद। सोचते-सोचते बहुत उदास हो गया था अमितेश। रास्तों के बीहड़ में खो गए रिश्ते ढूँढ़कर, उसे खींचकर ले भी आएँ तो उनसे जुड़ी तकलीफ़देह यादों का क्या किया जाए?
शांभवी के कमरे की हालत ने भी बेसाख़्ता उदासी से भर दिया था उसको। मेहँदी का उतरता रंग, गहरा होता दिन, पहाड़ों से उतरती धूप, ख़त्म होती नज़्म, ख़ाली होता कॉफ़ी का प्याला, तेज़ी से कम होती छुट्टियाँ, मंज़िल की तरफ़ पहुँचती रेल, किसी छोटे-से क्रश की ख़त्म होती हुई पुरज़ोर कशिश और लंबे सफ़र की तैयारी करता कोई बेहद अज़ीज… इनमें से एक भी सूरत दिल डुबो देने के लिए बहुत है!
शांभवी ने एक लिस्ट फ्रिज पर चिपका दी। बाई, खाना बनानेवाली, बढ़ई, धोबी, प्लंबर, चौकीदार, अस्पताल, किराने की दुकान, यहाँ तक कि होम डिलीवरी के लिए रेस्टुरेंट्स के नंबर भी। एक घर को चलाने के लिए कितने काम करने पड़ते हैं, पिछले कई सालों में ये ख़्याल तक न आया था अमितेश को। उसे तो एक महीने पहले बाई का नाम मालूम चला था वो भी इसलिए क्योंकि शांभवी ने नोट लिख छोड़ा था मेज़ पर, ‘प्लीज़ टेल कांता टू कम ऐट थ्री टुडे।’ एक कर्ट-सा, बेहद औपचारिक-सा नोट। शांभवी की फ़ॉर्मल हैंडराइटिंग की तरह। शांभवी के उस औपचारिक, लेकिन बेहद सौम्य और शांत बर्ताव की तरह जिसके साथ जीने की आदत हो गई थी अमितेश को।
वॉशिंग मशीन चलाते हुए, धोबी को इस्तरी के लिए कपड़े देते हुए, कूड़ा बाहर निकालते हुए, ब्लू पॉटरी वाली दो प्लेटों में खाना लगाते हुए, अपने कमरे की सफ़ाई करते हुए, होली-दीवाली पर पर्दे साफ़ करवाते हुए शांभवी ऐसी ही रहने लगी थी पता नहीं कब से। ऐसी ही फ़ॉर्मल। कर्ट। औपचारिक। ख़ामोश। अमितेश मानना नहीं चाहता था ख़ुद से लेकिन, इन्डिफरेंट भी। एकदम उदासीन। बेरुख़ी की हद तक।
फिर भी घर चल रहा था… अमितेश के ये न जानते हुए भी कि धोबी इस्तरी के कितने पैसे लेता है। बाई की तनख़्वाह क्या है और दस किलो आटा मँगाना हो तो किसको फ़ोन करना होता है। तीन महीनों के लिए ये सब करना पड़ेगा अमितेश को।
तीन महीने में जाने क्या-क्या करना पड़ेगा! तीन महीने में ज़िंदगी भर के लिए ख़ुद को शांभवी के बिना जीने के लिए तैयार करना पड़ा तो? यदि शांभवी लौटकर न आई तो?
गाड़ी एयरपोर्ट के बाहर एक तेज़ स्क्रीच के साथ रुकी थी। घर में पसरी ख़ामोशी गाड़ी में भी साथ लदकर आई थी और ब्रेक की आवाज़ ने तोड़ी थी वो ख़ामोशी। उसके बाद गाड़ी के गेट की आवाज़ों ने, फिर बूट से खींचे गए सूटकेस की आवाज़ ने बहुत सारी हलचल पैदा कर दी थी अचानक।
शांभवी शायद कुछ नहीं सोच रही थी लेकिन अमितेश के मन का द्वंद्व पूरे रास्ते नज़र आया था। घर से एयरपोर्ट पहुँचने में वो तीन बार ग़लत रास्तों पर मुड़ा था। उसका वश चलता तो वो गाड़ी घर की ओर ही मोड़ लेता। लेकिन उसका वश चलता कब है, ख़ासकर शांभवी पर!
शांभवी तेज़ी से बूट से सूटकेस निकालकर उसे खींचते हुए ट्रॉली की ओर बढ़ गई थी। कोई जल्दी नहीं थी। डिपार्चर में वक़्त था अभी। लेकिन ट्रॉली में सामान डालकर वो अमितेश से बिना कुछ कहे प्रवेश गेट की ओर मुड़ गई। अमितेश ने भी रोकने की कोई कोशिश नहीं की। शांभवी को तब तक जाते हुए देखता रहा जब तक उसके गले में पड़े स्कार्फ़ का गहरा मखमली नीलापन भीड़ के कई रंगों में गुम नहीं हो गया। अमितेश का मन अचानक उसके घर की तरह ख़ाली हो गया था।
चेक-इन के लिए लंबी कतार थी भीतर। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तो यूँ भी हज़ार झमेले होते हैं। कस्टम क्लियरेंस और अपना सामान चेक-इन करके बोर्डिंग पास लेने के बाद शांभवी लैपटॉप खोलकर एक कोने में बैठ गई।
डिपार्चर में अभी भी समय था। इतनी देर में कई काम हो सकते थे। ई-मेल के जवाब लिखे जा सकते थे, जी-टॉक पर दोस्तों से बात हो सकती थी, फेसबुक पर दूसरों के स्टेटस मैसेज पर कमेंट किए जाने जैसे बेतुके लेकिन अतिआवश्यक काम निपटाए जा सकते थे, कुछ दिलचस्प ट्वीट के ज़रिए आभासी दुनिया के दोस्तों से बातचीत का कोई तार पकड़ा जा सकता था।
लेकिन शांभवी ने इतने सालों में जब ये सब कभी किया नहीं तो अब पौने दो घंटे में क्या करती? यूँ ही बंद रहने की आदत घर से बाहर पता नहीं कब फ़ितरत बन गई थी उसकी। इसलिए बिना कुछ किए बेमन से ऑफ़िस के कुछ ई-मेल पढ़ती रही, निर्विकार भाव से उनका जवाब देती रही। इधर-उधर सर्फ़िंग करती रही। फिर पता नहीं कब और क्यों उसने ‘फोटोज़’ नाम के एक फोल्डर पर क्लिक कर दिया।
जब हम ट्रांज़िट में होते हैं तो अपनी यादों के सबसे क़रीब होते हैं शायद। या होना चाहते हैं। नॉस्टेलजिया सबसे शुद्ध रूप में घर से बाहर किसी सफ़र के दौरान ही घर करता है।
एक सफ़र से जुड़ती शांभवी की पिछली कई जीवन-यात्राओं की यादें, सब-की-सब यादें इन फोल्डरों में बंद थीं। शादी के पहले की, शादी की, हनीमून की, दोस्तों की, परिवार की और उन तारीख़ों की, जिन्हें साल-दर-साल अपनी याद में दर्ज़ करती गई थी शांभवी।
शादी के सात साल, सात साल की तारीख़ें और वो एक तारीख़ जिसने सबकुछ यूँ बदला कि जैसे यही तय था। ये टूटन, ये बिखरन… और बिखरे हुए में जीते चले जाना उस अधूरेपन के साथ, जिसकी कमी अब अमितेश को खल रही थी।
तेरह फरवरी। याद है तारीख़ शांभवी को। इसलिए याद है कि तीन फरवरी की डेट उसने मिस कर दी थी। कुछ दिनों के इंतज़ार के बाद होश आया तो सेल्फ़-टेस्टिंग प्रेग्नेंसी किट ने उस डर पर मुहर लगा दी, जिस डर ने पूरी रात अमितेश को जगाए रखा था।
“वी कान्ट। हम इतनी जल्दी नहीं कर सकते शांभू।” कमरे में चहल-क़दमी करते अमितेश ने बेचैन होकर कहा था। “कितना कुछ करना है अभी। यू हैव अ करियर। मुझे अपना काम सेटल करना है। हम तैयार नहीं हैं। वी जस्ट कान्ट।” अमितेश बोलता रहा था और शांभवी सुनती रही थी। सुन्न बनी हुई। उसका दिमाग़ नहीं चल रहा था। फिर भी आदतन ज़िरह की एक कोशिश की थी उसने।
“तैयार क्यों नहीं हैं? तुम 32 साल के हो, मैं 27 की। सही उम्र भी है, फिर क्यों?” शांभवी ने पूछा तो, लेकिन उसकी आवाज़ में हार मान लेने जैसी उदासी थी।
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