RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
इन्बॉक्स में अमितेश का नाम देखकर अजीब-सी सिहरन हुई थी उसको। शादी से पहले अमितेश के मेल का वो कैसे घड़ी-घड़ी इंतज़ार करती थी! किसी असाइनमेंट के लिए छह महीने के लिए बैंगलोर में था अमितेश। ऑफ़िस से चैट नहीं हो सकती थी, इसलिए दोनों एक-दूसरे को ई-मेल भेजते। हर पाँच मिनट में एक मेल आता था तब। शांभवी किसी मीटिंग में होती तो भी उसका ध्यान लैपटॉप पर ही होता। दोनों की दीवानगी का ये आलम आठ मार्च से सोलह अगस्त तक चला था। शांभवी वो तारीख़ें भी नहीं भूली थी। सोलह अगस्त को सगाई के बाद खाना खाते हुए उसने हँसकर अमितेश से कहा भी, “शादी के लिए ‘हाँ’ तो मैंने तुम्हारे मेल पढ़-पढ़कर कर दिया। जितने दिलचस्प इंसान तुम हो नहीं, उतने दिलचस्प तुम्हारे मेल हुआ करते हैं।”
फ़्लर्ट करने के लिए भी अमितेश ई-मेल लिखता था। प्रोपोज़ भी ई-मेल पर किया था। शादी की प्लानिंग भी ई-मेल पर हुई थी और इस बार सफ़ाई देने के लिए, अपनी बात कहने के लिए अमितेश ने ई-मेल का ही सहारा लिया था। बहुत देर तक शांभवी स्क्रीन को घूरती रही। जी में आया कि बिना पढ़े मेल डिलीट कर दे। आख़िर इस सफ़ाई का क्या फ़ायदा था?
लेकिन आख़िरकार उसने ई-मेल खोल ही लिया। मेल के साथ अटैचमेंट्स भी थे जिन्हें डाउनलोड होने के लिए लगाकर शांभवी मेल पढ़ने लगी।
“शांभू,
जानता हूँ बहुत नाराज़ होकर जा रही हो। ये भी जानता हूँ कि इतनी नाराज़ क्यों हो। इसे कोई सफ़ाई मत समझना, लेकिन तुम्हारे लिए कुछ पेपर्स भेज रहा हूँ अटैच करके, देख लेना। मेरे बैंक स्टेटमेंट हैं और एक एग्रीमेंट की कॉपी है जो मैंने कल ही साइन की है।
तुमसे मिलने के बाद लगा कि तुम्हारे लिए बेहतर ज़िंदगी का इंतज़ाम कर सकूँ, इसके लिए कुछ ख़तरे उठाने होंगे। इसलिए नौकरी छोड़ी और कंपनी शुरू कर दी। तुम्हें किराए के घर में नहीं रखना चाहता था, इसलिए लोन लेकर और सारी बचत तोड़कर घर ले लिया। जानता हूँ कि शादी के बाद तुम्हें वो कुछ भी नहीं दे सका जिसके सपने हमने बुने थे। लेकिन मैं इन सबके लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था शांभवी। तुमसे ये सब तब नहीं बाँटना चाहता था, तुम परेशान हो जाती। तुम यूँ भी बहुत परेशान थी। भले मुझे बच्चे के न आने के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दो, लेकिन अपनी ख़स्ताहाली में एक बच्चा लाकर मैं बोझ और नहीं बढ़ा सकता था। तुमपर तो बिल्कुल नहीं।
कुछ चीज़ों पर हमारा बस नहीं होता, कई बार अपनी भावनाओं, अपनी प्रतिक्रियाओं पर भी नहीं। कुछ मैं विवेकहीन हुआ, कुछ तुम्हारा व्यवहार दिल दुखाने वाला रहा। लेकिन प्यार तो हम अब भी एक-दूसरे से करते हैं। वर्ना तुम मेरी सुविधा की सोचकर मेरे लिए फ्रिज पर नंबर न छोड़ जाती।
फ़ेलोशिप पूरी कर आओ, दुनिया घूम लो। तबतक मैं अपने घर में बच्चे के लिए हर तैयारी कर लूँगा। लौट आना। जल्दी।”
मेल के साथ तीन अटैचमेंट थे- एक बैंक स्टेटमेंट। किसी प्रोजेक्ट का एग्रीमेंट और एक गाना, जिसे शांभवी सुन पाती, उससे पहले उसे फ्लाइट डिपार्चर का अनाउसमेंट सुनाई दे गया।
शांभवी ने अपना लैपटॉप बंद कर दिया। सिर्फ़ एक ही ख़्याल आया था उसको, बच्चे को दोनों ने मिलकर बचाया होता और हर हाल में पाल-पोसकर बड़ा किया होता तो आज की तारीख़ को वो छः साल का होता। अब शांभवी किसी को दोषी नहीं ठहराएगी, सिवाय ख़ुद के।
अपनी क़िस्मत भी अपनी, अपने फ़ैसले भी अपने।
शांभवी अपना हैंडबैग लेकर बोर्डिंग के लिए बढ़ गई। पीछे कुर्सी पर छूट गए नीले स्कार्फ़ ने भी अपनी क़िस्मत और शांभवी के फ़ैसले से समझौता कर लिया।
कुछ यूँ होना उसका
आज भी सुश्रुता होमवर्क करके नहीं आई है।
क्लास में किसी-न-किसी बहाने टीचर का अपमान करना, बाक़ी लड़कियों से बदतमीज़ी करना, सवालों के उल्टे-पुल्टे जवाब देना- सब उसकी आदतों में शुमार हो गया है। कितनी ही बार डायरी में लिखकर शिकायत की है मैंने। लेकिन माँ-बाप की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं। अपने बच्चों पर इस क़दर ढील दी जाती है क्या?
“सुश्रुता पांडे, सुश्रुता… मैं आपसे बात कर रही हूँ।”
“यस टीचर।” चेहरे पर अन्यमनस्कता का भाव लिए सुश्रुता बैठी है क्लास में, उठने की ज़हमत भी नहीं उठाती।
“आपने आज भी होमवर्क नहीं किया?” मैं अपनी आवाज़ पर कोमलता क़रीब-क़रीब थोपती हूँ, कुछ इस तरह कि मुझे अपनी ही आवाज़ बनावटी सुनाई देती है।
“नो टीचर, नहीं किया।”
“जान सकती हूँ क्यों?” अब मेरी आवाज़ रूखी हो गई है।
“सारे बहाने दे चुकी हूँ टीचर, अब कोई नया बहाना नहीं।” उदंडता के साथ दिया गया जवाब मुझे हैरान कर देता है और बाक़ी लड़कियों की हँसी छूट जाती है।
मैं अब कुछ नहीं कहती। नहीं, आज डायरी में शिकायत नहीं लिखूँगी। प्रिंसिपल से भी कुछ नहीं कहूँगी। स्टॉफ रूम में भी कोई बात नहीं करूँगी इस बारे में। इन सबका कोई फ़ायदा नहीं है। डायरी पेरेन्ट्स तक पहुँचती नहीं। प्रिंसिपल मैम भी मीठी-मीठी आवाज़ में कहेंगी, “यू हैव टू हैंडल इट सुचित्रा। यू आर द टीचर। यू हैव टू हैंडल इट वेरी केयरफुली।”
मुझे पाँच साल की नौकरी में आज तक समझ नहीं आया कि प्रिंसिपल मैम जिस ‘वेरी’ पर इतना ज़ोर डालती हैं, उस ‘वेरी’ का दरअसल तात्पर्य क्या है।
क्लास ख़त्म कर मैं किसी तरह स्टॉफ रूम में चली आई हूँ। यहाँ भी सुश्रुता की नज़रें मेरे पीछे-पीछे चली आई हैं। किसी की आँखें कैसे आपके पीछे आपका मखौल उड़ा सकती हैं, ये मुझे स्कूल में टीचर बनने के बाद समझ में आया है।
लंच ब्रेक में मैंने सुश्रुता को लाइब्रेरी के पास मिलने के लिए बुलाया है। लाइब्रेरी के बाहर खिड़की पर बैठकर मैं उसके आने का इंतज़ार करती हुई बाहर का शोर सुन रही हूँ। जिस खिड़की पर मैं बैठी हूँ, वहाँ से स्कूल का लॉन नज़र आता है और यहाँ से नज़र आती हैं लॉन में कुलाँचें भरतीं, छोटे-छोटे दलों में बैठी, खेलती-हँसती, बोलती-बतियाती लड़कियाँ। देखते-देखते ये भी बड़ी हो जाएँगी।
जिस साल मैंने इस स्कूल में नौकरी शुरू की उस साल सुश्रुता तीसरी में थी। अब आठवीं में आ गई है। जब मैंने नौकरी शुरू की तब सिया एक साल की थी। धीरज की ज़िद पर एम.एससी. किया। बी.एड. किया। पीएचडी के लिए एनरोल कराया ख़ुद को। धीरज की ज़िद पर ही इस स्कूल में पढ़ाने के लिए तैयार हुई। “मैं छह-छह महीने जहाज़ पर रहूँगा। मेरी गैरहाज़िरी में तुम अपने ख़ाली दिन कैसे भरोगी सुचित्रा? तुम्हें लोगों से मिलने की, बाहर निकलने की, अपनी ज़िंदगी जीने की ज़रूरत है। सिया के साथ तुम ख़ुद को बाँधकर ख़ुद को पूर्ण मत समझो।”
धीरज ने सही कहा था। लेकिन स्कूल में बड़ी होती लड़कियों को पढ़ाना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं। ख़ासकर तब जब आप बेवक़ूफ़ होने की हद तक संवेदनशील हों, जब आपने ख़ुद को अनुशासित रखकर पढ़ाई पूरी की हो, और जब दूसरों से भी आपकी अपेक्षाएँ कुछ ऐसी ही हों।
रोज़ शाम को धीरज के पास न लौटना और सिया को अकेले पालने की ज़िम्मेदारी निभाना मेरी ज़िंदगी की उलझनों को न चाहते हुए भी कई गुना ज़्यादा उलझा देता है। मेरे सामने धीरज या अपने परिवार के साथ रहने का विकल्प है। लेकिन एक उम्र के बाद किसी तरह की दख़लअंदाज़ी आपको रास नहीं आती। आप अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहते हैं। अपने तरीक़े से जीना चाहते हैं। तमाम चुनौतियों, अकेले होने के तमाम अहसासों के बावजूद।
“टीचर, यहीं बैठकर मुझे भाषण देंगी या स्टॉफ रूम में सबके सामने?” सुश्रुता के व्यंग्य से मेरी तंद्रा टूटती है।
“भाषण देने के लिए नहीं बुलाया सुश्रुता। लंच किया है तुमने?”
“हाँ। कैंटीन में एगरोल खाया।” न जाने क्यों सुश्रुता की आवाज़ अचानक नर्म पड़ गई है।
“तुमसे मदद चाहिए थी, इसलिए बुलाया। तुम गाँधीनगर में रहती हो ना, ए ब्लॉक में?”
“हाँ, घर का नंबर भी दूँ? घर आकर मेरी शिकायत करेंगी क्या?” सुश्रुता फिर कड़वा बोलने लगी है।
“ओ हो सुश्रुता, तुम भी न! मैंने कहा न तुम्हारी मदद चाहिए मुझे। वैसे अपने नाम का मतलब जानती हो?”
“हाँ, जानती हूँ। और ये भी कि मेरा बिहेवियर मेरे नाम से बिल्कुल अपोज़िट है।”
“मेरे साथ भी ऐसा ही है। नाम तो है सुचित्रा, लेकिन मैं किसी ऐंगल से फ़ोटोजेनिक नहीं हूँ।” अपनी भौंडी नाक और साधारण से नैन-नक्श को लेकर मैंने कभी ऐसा कहा नहीं, आज जाने क्यों कह गई हूँ। वो भी इस लड़की के सामने, जो मेरा मज़ाक उड़ाने का कोई बहाना नहीं छोड़ती।
“दरअसल सुश्रुता, हमलोग दो दिन पहले लालपुर से गाँधीनगर शिफ़्ट हुए हैं। आज सुबह स्कूल आते हुए मैंने तुम्हें बस स्टैंड पर खड़ा देखा, तभी समझ गई कि तुम मेरी पड़ोसी हो। मैं उस इलाक़े को ठीक-ठीक जानती नहीं। न आस-पास किसी को पहचानती हूँ। तुम्हारी मम्मी से मैं कुछ ज़रूरी फ़ोन नंबर और जानकारियाँ ले सकती हूँ?”
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