RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
मैं इस लड़की से ये सब क्यों कह रही हूँ? नहीं, इसके लिए तो मैंने इसे बुलाया नहीं। मुझे तो और बात करनी थी इससे! इसकी मम्मी से मिलने का कोई और बहाना भी तो हो सकता है। सुश्रुता भी अविश्वास के साथ ऐसे देख रही है जैसे मेरे चेहरे पर झूठ की कोई लकीर ढूँढ़ना चाहती हो। मैं उसके बिफर पड़ने का इंतज़ार कर रही हूँ, “मम्मी से मिलना था तो यूँ ही मिल लेतीं, झूठ क्यों बोलती हैं टीचर?” लेकिन सुश्रुता कुछ कहती नहीं, मुझे देखती रहती है बस।
“पेन और पेपर है आपके पास?”
सुश्रुता के अप्रत्याशित सवाल से मैं चौंक जाती हूँ। “पेपर पर अपने घर का नंबर लिख दीजिए टीचर। जितना हो सकेगा, मैं आपकी मदद कर दूँगी।” मैं सुश्रुता को अपने घर का नंबर लिखकर दे देती हूँ। जाने क्यों मुझे यक़ीन है कि सुश्रुता स्कूल के बाद मुझसे मिलने ज़रूर आएगी।
छुट्टी के बाद अपनी स्कूटी लेकर मैं सिया को क्रेश से उठाने चली जाती हूँ। नर्सरी की छुट्टी के बाद सिया को बस स्टॉप से क्रेश के स्टाफ़ ही लेकर चले जाते हैं। स्कूल से लौटते हुए मैं उसे ले लिया करती हूँ। काम करते हुए बच्चे को बड़ा करना आसान नहीं, ख़ासकर तब जब आपके पति साल में छह महीने ज़मीन पर होते हों और बाक़ी छह महीने समंदर की लहरों के साथ जूझते हों। यही वजह है कि मैं अनुशासन में यक़ीन करती हूँ, वक़्त की पाबंद हूँ। घड़ी की सुइयाँ मुझे व्यस्त रखने का काम करती हैं। हर घंटे, हर घड़ी मैंने अपने लिए कुछ-न-कुछ मुक़र्रर कर रखा है। सनक ही है एक तरह की, लेकिन मुझे सही मायने में सनकी बन जाने से इसी पाबंदी ने बचाए रखा है।
शाम को घर की घंटी बजते ही मैं समझ जाती हूँ, ये सुश्रुता है। बालकनी से नीचे झाँककर देखती हूँ तो सुश्रुता ही है, किसी लड़के के साथ मोटरसाइकिल से आई है। मैं दोनों को ऊपर बुला लेती हूँ। ड्राईंग रूम अस्त-व्यस्त है। एक खिड़की पर हैंडलूम का गहरा लाल-नारंगी पर्दा लटक रहा है। दूसरी ख़ाली है। कमरे में बेतरतीब सोफ़ों पर फैले कार्टन के डिब्बों को परे धकेलते हुए मैं दोनों के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हूँ। सिया वहीं कार्पेट पर किताबों को ट्रेन के डिब्बे बनाए खेल रही है। इंजन की जगह ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी रखी है। मैं तीस सेकेंड के भीतर कमरा जितना ठीक कर सकती हूँ, कर देती हूँ।
“आप परेशान न हों टीचर। हम बस निकलेंगे अब। ये आपके लिए कुछ नंबर लाई हूँ। मेड को बोल दिया है, छह बजे आकर आपसे बात कर लेगी।” ये कहते हुए वो मेरी ओर काग़ज़ का एक टुकड़ा बढ़ा देती है। काग़ज़ पर उतरी हैंडराइटिंग सुश्रुता की कॉपियों में किसी तरह फेंकी हुई राइटिंग से बहुत अलग है। एक-एक अक्षर संभालकर लिखा गया है जैसे। इसमें किराने की दुकान, दूधवाले, प्लंबर, बिजली मिस्त्री और बढ़ई के नंबर हैं।
“मैं नहीं जानती थी कि आपकी बेटी है, इतनी छोटी। आपको डॉक्टर और अस्पताल के नंबर कल दे दूँगी, स्कूल में।”
मैं हैरान हूँ। ये वही सुश्रुता है जिसकी क्लास में ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतें मुझे क़रीब-क़रीब इस्तीफ़ा देने के कगार पर धकेल दिया करती हैं! ये वही सुश्रुता है जिसकी वजह से मैं दिन में कम-से-कम दस बार अपनी नौकरी को कोसती हूँ! ये वही सुश्रुता है जिसने पिछले आठ महीनों में कम-से-कम अस्सी बार टीचर के रूप में अपनी अक्षमता का अहसास कराया है!
“आप स्कूल जाती हैं तो आपकी बेटी किसके पास रहती है टीचर?” मैं तेरह साल की एक लड़की से ऐसे किसी प्रश्न की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं कर रही।
“क्रेश में रहती है स्कूल से आने के बाद।” मेरा अपराध-बोध शायद मेरी ज़ुबान पर उतर आया है। इसलिए मैं तुरंत सफ़ाई देती हूँ, “सिया के पापा होते हैं तो यहीं होते हैं, उसके साथ दिन भर। जब जहाज़ पर होते हैं तब मुझे क्रेश में छोड़ना पड़ता है।”
लेकिन मैं इस लड़की को सफ़ाई क्यों दे रही हूँ? इस तरह के सवाल पूछनेवाली ये होती कौन है? मैं अपने आवाज़ की मृदुता को फिर घोंट जाती हूँ और सख़्त टीचर का लबादा ओढ़ लेती हूँ।
“पानी लोगी? तुम्हारा भाई भी बहुत देर से खड़ा है। तुम दोनों बैठ क्यों नहीं जाते?”
सुश्रुता हँस देती है। “भाई नहीं है टीचर, बॉयफ़्रेंड है मेरा।”
सुश्रुता मेरी नज़रों में उतर आई परेशानी और शॉक को पहचान लेती है और उसके होंठों के कोनों पर खिल्ली उड़ाने जैसी मुस्कान लौट आई है- वैसी मुस्कान जिसे ‘स्मर्क’ कहते हैं। इस ‘स्मर्क’ को नज़रअंदाज़ करते हुए मैं सुश्रुता से बैठने को कहती हूँ। आभार व्यक्त करने के लिए दोनों को शर्बत पिलाने के अलावा मुझे फ़िलहाल कुछ नहीं सूझ रहा।
मैं शर्बत बनाने के लिए भीतर चली गई हूँ। सुश्रुता और उसका ‘बॉयफ़्रेंड’ फ़र्श पर बैठकर सिया के साथ खेलने लगे हैं। क्रेश जाने का एक फ़ायदा सिया में नज़र आया है मुझे, वो अजनबियों से घुलने-मिलने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगाती। जितनी देर में मैं टैंग बनाकर लाती हूँ, उतनी देर में उस लड़के ने सिया के लिए किताबों की इमारत खड़ी कर दी है और तीनों ‘क़ुतुब मीनार-क़ुतुब मीनार’ कहते हुए तालियाँ बजा-बजाकर हँस रहे हैं।
मैं अपने चेहरे पर जबरन मुस्कुराहट चिपकाए दोनों की ओर एक-एक कर शर्बत का ग्लास बढ़ाती हूँ। सोचती हूँ, कैसी माँ है इसकी जिसे मालूम तक नहीं कि उसकी बेटी अपने ‘बॉयफ़्रेंड’ के साथ गली-गली चक्कर लगाया करती है। लड़की की बेशर्मी तो देखो, अपनी टीचर से मिलाने तक ले आई है इसको।
थोड़ी देर बैठने के बाद सुश्रुता चली जाती है। मुझसे ज़्यादा दोनों सिया से ही बातें करते रहते हैं। ये लड़का मुझे किसी कोने से बदतमीज़ या लफंगा नहीं लगता। लेकिन ‘बॉयफ़्रेंड’ वाली बात मैं अपने हलक़ से नीचे धकेल नहीं पाती। जाने इस पीढ़ी के लिए ‘बॉयफ़्रेंड-गर्लफ़्रेंड’ के रिश्ते का मतलब क्या होता होगा?
मैं बहुत देर तक परेशान हूँ। सिया मुझसे बात करने आती है तो मैं उसे दो-एक बार झिड़क भी देती हूँ। इस परेशानी को मैं नाम नहीं दे पा रही। लेकिन मैं एक साँस में सुश्रुता और सिया दोनों के बारे में क्यों सोच रही हूँ। धीरज फ़ोन करेंगे तब उठ जाऊँगी खाने के लिए, ये सोचकर मैं सिया को किसी तरह दूध का ग्लास थमाकर अपने बढ़े हुए थायरॉड पर अपनी झल्लाहट के सारे दोष डालती हूँ और शाम को जल्द ही सोने चली जाती हूँ।
सुश्रुता फिर आ गई है सुबह-सुबह, कामवाली को लेकर। इस बार वो लड़का नहीं है साथ में। मैं जितनी देर कामवाली से काम और पैसे को लेकर मोल-तोल कर रही होती हूँ, उतनी देर सुश्रुता सिया के साथ खेलने में लगी है। सिया उसे श्रुति दीदी बुलाती है। सुश्रुता ने ही कहा होगा उससे। कामवाली को काम पर लगाकर मैं सुश्रुता और सिया दोनों से नाश्ते के लिए पूछती हूँ। दोनों ‘ना’ में सिर हिलाते हैं और सुश्रुता सिया को अपने साथ पार्क लेकर जाने की इजाज़त माँगती है। इस बार ‘ना’ में सिर हिलाने की बारी मेरी है, ये जानते हुए भी कि इस समय अगर सिया को थोड़ी देर के लिए भी सुश्रुता देख लेती है तो मैं कई काम निपटा सकूँगी। पर्दे लग जाएँगे, अलमारियाँ सहेजी जा सकेंगी। किताबों को शेल्फ़ से सजाने का काम पूरा हो जाएगा। सब्ज़ी और दूध भी आ जाए शायद।
लेकिन मैं सुश्रुता को सिया की हमजोली बनाने के लिए क़तई तैयार नहीं। यदि सिया भी उसी की तरह…नहीं नहीं…ऐसी संस्कारहीन लड़कियों से दूर ही रखना होगा सिया को…। मैं इस बार स्पष्ट रूप से ‘नहीं’ कहती हूँ। सुश्रुता मुझे अपने घर का और अपना मोबाइल नंबर देकर चली जाती है, “कोई ज़रूरत पड़े तो फोन कर लीजिएगा टीचर।”
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