RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
मैं फिर सुश्रुता की माँ के बारे में सोचने लगती हूँ। शायद माँ के पास इसके लिए समय न हो। शायद घर की किसी परेशानी की वजह से ऐसी हो गई हो। वर्ना वो कौन-सी माँ होगी जिसे ये भी होश न हो कि बेटी सुबह-शाम जब चाहे, जैसे चाहे, घर से बाहर चली जाती है। और इसके पापा? हो सकता है उन्हें सुश्रुता से कोई लेना-देना ही न हो। या फिर ये भी तो हो सकता है कि धीरज की तरह उनकी नौकरी भी शहर से बाहर दूर कहीं हो। अकेली माँ के लिए बच्चा पालना कितना मुश्किल होता है। घूम-फिरकर सुश्रुता से जुड़े हर विचार, हर सोच जाने क्यों मेरी ओर ही मुड़ जाया करते हैं…
हर रोज़ स्कूल जाते हुए बस स्टैंड पर मैं सुश्रुता को अकेली खड़ी देखती हूँ। जी में आता है, स्कूटी रोककर उसे अपने साथ ही ले लूँ। लेकिन मेरा अहं हर बार आड़े आ जाता है। इस तरह का लव-हेट रिलेशनशिप मेरा किसी के साथ नहीं रहा आजतक। किसी दोस्त के साथ नहीं। किसी संबंधी के साथ नहीं। किसी टीचर, किसी स्टूडेंट के साथ नहीं। फिर सुश्रुता ही क्यों? मैं क्लास में उससे क़रीब-क़रीब नज़रें चुराने लगती हूँ। शायद इसलिए भी कि मुझे डर है। सुश्रुता के साथ दोस्ती बढ़ाने का मतलब उसे अपने घर बिन बुलाए आ जाने जैसा कुछ निमंत्रण दे देना। फिर सिया से उसकी क़रीबी मुझे रास नहीं आएगी। और मैं जान-बूझकर कोई तनाव नहीं चाहती अपनी ज़िंदगी में।
लेकिन सुश्रुता भी कम ढीठ नहीं। एक दिन सुबह वो मुझे अपने-आप बस स्टॉप पर रोक देती है और बिना पूछे स्कूटी पर पीछे बैठ जाती है। खीझती-चिढ़ती-कुढ़ती मैं स्कूल ले आती हूँ उसे। और फिर तो ये रोज़ का सिलसिला हो जाता है। स्कूटी मैं न रोकती, यदि आस-पास के इतने सारे लोग मुझे न देख रहे होते। ख़ुद को दी जानेवाली ये सफ़ाई बस इतनी-सी ही है। एक गैरज़रूरी सफ़ाई। शायद मैं अपनी सुविधा के लिए ही सुश्रुता को अपने नज़दीक आने दे रही हूँ। पड़ोसी है मेरी। अकेली रहती हूँ मैं। क्या पता कब मुझे इसकी ज़रूरत पड़ जाए। वैसे लव-हेट रिलेशनशिप की बात तो मैंने ख़ुद से स्वीकार कर ली है।
लेकिन मेरे सिर्फ़ इतना कर देने भर से सुश्रुता पर वो असर पड़ा है जिसकी मैंने पिछले दो सालों में उम्मीद न की होगी। सुश्रुता होमवर्क बनाकर लाती है। क्लास टेस्ट देती है और जैसे-तैसे सही, टेस्ट में पास भी होती है। स्कूटी पर चढ़ने का किराया पूरी मेहनत के साथ चुकाया है उसने।
इस बार पेरेन्ट-टीचर मीटिंग में मैंने इतने सालों में पहली बार सुश्रुता के पापा को देखा है। अधेड़ क़िस्म का एक शख़्स, जिसके दाहिने हाथ में एक लैपटॉप केस है और बाएँ हाथ में गाड़ी की चाभी। कपड़ों से, चाल-ढाल से वे कॉरपोरेट सेक्टर में काम करनेवाले कोई अफ़सर लगते हैं और पिता कम, दादा ज़्यादा दिखाई देते हैं। “या तो वक़्त ने हमें वक़्त से पहले बुज़ुर्ग कर दिया है, या वक़्त से पहले हम उम्रदराज़ दिखाई देने लगे हैं,” मेरी सहयोगी ताहिरा ने आज सुबह ही किसी बात पर तो कहा था स्टॉफ़ रूम में।
सुश्रुता के आगे-आगे चलते हुए वे मेरी मेज़ तक पहुँचते हैं। हल्के-हल्के चलकर आते उनके क़दमों की आहट मुझे हल्का कर देती है और मैं मुस्कुराकर उनसे कुर्सी पर बैठने का आग्रह करती हूँ।
“आप सुचित्रा मैम हैं न? सुश्रुता की माँ ने मुझसे कहा था आपसे मिलने के लिए।”
मैं चौंक जाती हूँ। सुश्रुता की माँ से तो मैं कभी नहीं मिली। वे बोलना जारी रखते हैं, “ये भी सुना है कि आप पड़ोसी हैं हमारी। ये जगह तो उचित नहीं आपको घर बुलाने के लिए, लेकिन सुश्रुता की टीचर की हैसियत से नहीं, हमारी पड़ोसी होने के नाते आइए न कभी हमारे घर।”
मैं मुस्कुराती हुई सिर हिलाती रहती हूँ और बार-बार बातचीत का रूख सुश्रुता के सेकेंड टर्म के क्लास रिज़ल्ट और उसके रवैए की ओर मोड़ना चाहती हूँ। लेकिन पिताजी तो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं। मौसम, सड़क, मोहल्ला, त्यौहार इन सबके बारे में ग़ैर-ज़रूरी बातें होती हैं। सिर्फ़ सुश्रुता की पढ़ाई से जुड़ी कोई ज़रूरी बात नहीं होती। ऐसा बिंदास और बेपरवाह पेरेन्ट मैंने अपने इतने सालों के करियर में नहीं देखा। मैं थककर उनकी ओर रिपोर्ट कार्ड बढ़ा देती हूँ और रजिस्टर में साइन करने का अनुरोध कर इंतज़ार कर रहे दूसरे अभिभावकों की ओर मुड़ जाती हूँ।
कम-से-कम इन्हें अपनी बेटियों की पढ़ाई में तो दिलचस्पी है। कम-से-कम इनसे बात करते हुए मेरा वक़्त तो ज़ाया नहीं होगा।
क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं। राँची में मौसम बहुत ख़ुशगवार है इस साल। अच्छी-सी धूप पसरी रहती है सुबह से शाम तक छत पर। मुझे गाँधीनगर का ये घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा है। घरों के आगे चौड़ी-चौड़ी सड़कें हैं। सड़कों के किनारे-किनारे गुलमोहर, अमलतास, नीम, सेमल के पेड़। खिड़की से पर्दे हटाने पर दिसंबर की धूप पूरे कमरे में पसर जाती है। धीरज भी आनेवाले हैं एक-दो दिनों में। मैं सुबह बालकनी में बैठकर अख़बार पढ़ रही हूँ और सिया वहीं नल के नीचे रखी बाल्टी से भर-भरकर मग से पास में रखे गमलों में पानी डाल रही है। तभी दरवाज़े की घंटी बजी है। मैंने झाँककर नीचे देखा, ये सुश्रुता है जो किसी महिला के साथ आई है।
गेट खोलने की कोशिश में सुश्रुता की एक उँगली कुंडी के नीचे आ गई है शायद। काली शॉल में लिपटी महिला उसकी चोट खाई उँगली को ज़ोर-ज़ोर से रगड़ रही हैं। मैं फ्रिज से बर्फ़ की ट्रे लिए नीचे चली जाती हूँ। बर्फ़ का टुकड़ा हाथ पर रगड़ते हुए सुश्रुता उस महिला के साथ ऊपर आ गई है। सिया के लिए उनके हाथ में चॉकलेट का डिब्बा है। मेरे ‘ना-ना’ करते रहने के बावजूद वो डिब्बा सिया के हवाले कर दिया जाता है। थोड़ी देर के लिए दोनों सिया से ही बातें करते रहते हैं। जैसे मुझसे नहीं, सिया से मिलने आए हों। मैं उठकर चाय बनाने के लिए चली जाती हूँ तो सुश्रुता मेरे पीछे-पीछे किचन तक चली आती है।
“आप मम्मी के साथ बैठिए टीचर, मैं आप दोनों के लिए चाय बना देती हूँ।”
मैं न चाहते हुए भी होंठों पर जबरन एक मुस्कान चिपकाए ड्राईंग रूम में वापस लौट जाती हूँ। काली शॉल में लिपटी महिला मुझे देखकर मुस्कुराती हैं। कनपटियों के पास से झाँकते चाँदी के गुच्छों से कई तार निकलकर माँग के बीचों-बीच चले आए हैं। बालों को रंगने की भी कोई कोशिश नहीं। इनके चेहरे को ध्यान से देखते हुए जाने क्यों मुझे वहीदा रहमान की याद आई है। कल ही तो किसी फिल्म में देख रही थी। हाँ, ‘दिल्ली 6’ में।
ये सुश्रुता की माँ हैं? मैंने तो एक दूसरे तरह की महिला की कल्पना की थी। क्यों सोच लिया था मैंने कि सुश्रुता की मॉम सुपरमॉम जैसी कुछ होंगी? फॉर्मल कपड़ों में लैपटॉप हाथ में लटकाए दफ़्तर में पूरा-पूरा दिन गुज़ारनेवाली कोई बिज़नेस वूमैन। ये घरेलू-सी दिखनी वाली अधेड़ लेकिन अभिजात महिला सुश्रुता जैसी अल्हड़ लड़की को क्या संभाल पाती होंगी?
“आपसे एक गुज़ारिश करने आई हूँ।”
“जी कहिए।”
“छुट्टियों में सुश्रुता आपसे मैथ्स और साइंस पढ़ना चाहती है।”
“लेकिन मैं ट्यूशन नहीं पढ़ाती।”
“सुश्रुता ने बताया था।”
अजीब लोग हैं ये। दूसरों के ख़्यालों की कोई क़द्र नहीं। ख़ुद को दूसरों पर थोपने के लिए हमेशा तैयार! इसलिए सुश्रुता ऐसी है।
“मैं सिया को नीचे ले जाऊँ? तबतक आप और मम्मी बात कर लीजिए टीचर।”
अब मैं ग़ुस्से में फट पड़ने को तैयार हूँ। एक तो मुझसे बग़ैर पूछे मेरे घर मिलने चले आते हैं, दूसरे मुझसे मेरे सिद्धांतों के ख़िलाफ़ काम कराने की बात करते हैं। जानते हुए भी कि मैं ट्यूशन नहीं पढ़ाती। ऊपर से तुर्रा ये कि मेरी बेटी पर भी हक़ जमाने लगी है ये लड़की!
“सिया, कहीं नहीं जाना है इस वक़्त।” मेरा क्षोभ हर बार की तरह मेरी बेटी पर निकलता है। सुश्रुता अपनी माँ की ओर देख रही है।
“बाहर ठंड है बेटा। धूप तो है, लेकिन हवा चल रही है। श्रुति, तुम सिया को लेकर यहीं खेलो। मैं और टीचर बाहर बालकनी में बैठ जाते हैं, ठीक है न?”
जाने उनकी आवाज़ में कैसा सम्मोहन है कि मेरा ग़ुस्सा अपने-आप कम हो जाता है और मैं चाय का मग लिए कुर्सी खींचती हुई बालकनी में चली जाती हूँ।
“कब से पढ़ना चाहती है सुश्रुता?” मैंने सुश्रुता नाम की चुनौती को ख़ुद ही गले लगाया है।
“जब से आप चाहें। आप अपनी सुविधा के मुताबिक़ वक़्त दे दीजिएगा। मैं आपको कुछ और बताना चाहती हूँ।”
“हाँ, कहिए न।”
“सुश्रुता मेरी छोटी बेटी है। मेरी शादी के अट्ठारह साल बाद पैदा हुई। मेरा एक बेटा भी था, शांतनु। फाँसी लगा ली उसने एक दिन। उसे डर था कि मैथ्स में फ़ेल हो जाएगा और उसके पापा ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। उसका जीना मुहाल कर देंगे। उसके हिसाब से उसके जीने से उसका मर जाना आसान था। उसको लगता था उसके मैथ्स में फ़ेल हो जाने से आसान हमारे लिए उसके मर जाने का सदमा बर्दाश्त करना होता। मैं आजतक सोचती हूँ कि एक माँ के तौर पर मैंने कहाँ ग़लती की? जहाँ-जहाँ मुझे ग़लतियाँ नज़र आईं, मैंने सुश्रुता के साथ नहीं दुहराईं। हमने इसे पढ़ाई के लिए कभी नहीं कहा। सुश्रुता की ज़िंदगी से बढ़कर पढ़ाई नहीं है। उसे मैंने बचपन से उसकी मर्ज़ी से जीने दिया है। वो उद्दंड ज़रूर है लेकिन उच्छृंखल नहीं है,” सुश्रुता की माँ लगातार बोलती चली जाती हैं और मैं सुनती चली जाती हूँ।
किसी को सांत्वना देना दुनिया का सबसे मुश्किल काम होता है।
इस छोटी-सी बातचीत में सुश्रुता के व्यवहार की सारी मनोवैज्ञानिक परतें मेरे लिए आसानी से खुल गई हैं। अब उसे लेकर मेरे मन में कोई उलझन नहीं, कोई परेशानी नहीं। हाँ, मैं ये तय नहीं कर पा रही कि उन्हें सुश्रुता के साथ घूमनेवाले ‘बॉयफ़्रेंड’ के बारे में बताऊँ या नहीं। ये मसला मैंने अगली मुलाक़ात के लिए टाल दिया है।
सिया और सुश्रुता की दोस्ती को लेकर अचानक मेर मन हल्का हो गया है। अचानक मुझे लगने लगा है कि टीचर के रूप में सुश्रुता मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। वो उपलब्धि जिसके बारे में फ़ख़्र से अपनी क्लास में आनेवाली कई पीढ़ियों को बता सकूँगी।
सुश्रुता हर सुबह मेरे घर आने लगी है। अल्जेब्रा के समीकरण हल करते-करते हमारे बीच का समीकरण भी आसान लगने लगा है। ट्यूशन के बाद सुश्रुता के पास सिया को छोड़कर मैं रसोई, घर और बाज़ार के छोटे-मोटे काम निपटाने लगी हूँ।
नए साल पर सुश्रुता फिर अपने बॉयफ़्रेंड को लेकर मेरे घर आई है। “टीचर, आप दुष्यंत को भी पढ़ाएँगी?”
उसकी धृष्टता मुझे हैरान कर देती है। मैं मना कर देती हूँ लेकिन गाहे-बगाहे दुष्यंत मेरे घर बिन बुलाए आ टपकता है। लेकिन उसकी कोई हरकत ऐसी नहीं होती जिसकी वजह से मैं उसका आना रोकूँ अपने यहाँ।
मैं एक दिन लॉ ऑफ़ ग्रैविटेशन पढ़ाते-पढ़ाते सुश्रुता को ज़िंदगी में ग्रैविटी के मायने समझाने लगी हूँ। फिर मैंने उससे पूछ ही लिया, “दुष्यंत ने हाथ पकड़ा है कभी?”
सुश्रुता अचकचाकर मेरी ओर देखने लगी है।
“किस? किस किया है तुम दोनों ने?”
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