RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
एक दिन सुबह आने में देर हो गई थी। उनके पूछने से पहले खुद ही बताया, “रोज़-रोज़ अच्छा नहीं लगता था कि अस्पताल पहुँचाने के लिए मैं किसी की बाट जोहती रहती। तो मैंने आज ख़ुद अम्बैसडर निकाल ली। आज पहले गियर पर चलाकर लाई हूँ। कल दूसरा डालूँगी और परसों तीसरा। ठीक है न?”
उन छह महीनों में प्रमिला के चेहरे पर निराशा और परेशानी की एक भी लकीर नज़र नहीं आई। सुकृति का स्कूल में दाख़िला ख़ुद कराया। उनकी देख-रेख ख़ुद करती रही और साथ ही घर-बार, नाते-रिश्तेदार भी संभालती रही। तब तो ये भी नहीं लगता था कि वे अपने पैरों पर खड़े भी हो पाएँगे लेकिन कई बार उन्हें लगता प्रमिला ही उनके लिए सावित्री बन गई थी। इतना ही नहीं, जब क्रैश में जीवित बच जाने के बदले उनका कोर्ट मार्शल हुआ तो प्रमिला ही उनकी हिम्मत बनी रही।
24 सितंबर को याद आई उन भूली बातों के बाद फिर उन्हें प्रमिला पर कभी ग़ुस्सा नहीं आया।
लेकिन प्रमिला की तबीयत धीरे-धीरे और बिगड़ने लगी। पहले भूलना शुरू हुआ, फिर भाषा और सोचने-समझने की शक्ति प्रभावित हुई और कई बार ऐसा हुआ कि आँखों के आगे अँधेरा छाने की वजह से वो कभी घर में, कभी बाहर बेहोश होने लगी। पिछले एक महीने में अस्पताल जाने के अलावा प्रमिला घर से बाहर तक न निकली थी।
शाम को वो ही ज़िद करके प्रमिला को बाहर लॉन में ले आए थे। पहले प्रमिला दशहरे के बाद ही कई तरह के फूलों के बीज बग़ीचे में डलवा देती थी। गुलदाऊदी, गेंदा, डहेलिया, जिनीया, पैंज़ी, पेट्युनिया और कई ऐसे रंग-बिरंगे फूल जिनके नाम उन्होंने प्रमिला से ही सुने थे।
लेकिन इस साल लॉन उजाड़ पड़ा था। माली क्या काम करके जाता, उन्हें न देखने की हिम्मत होती न बाग़-बग़ीचे की समझ थी उनमें। दोनों इसी उजड़े हुए लॉन में चाँद निकलने तक बैठे रहे। अचानक प्रमिला को जैसे कुछ याद आया।
“अंदर जाती हूँ। साड़ी चुरा लेगी।”
“कौन पम्मी? कोई नहीं है यहाँ, मैं और तुम हैं बस। देखो, मुझे देखो। मुझे पहचानती हो या नहीं?”
प्रमिला ने उन्हें ऐसे देखा जैसे पाइथगोरस थ्योरम पढ़ाते-पढ़ाते क्लास में टीचर ने उनसे दस का पहाड़ा पढ़ने को कहा हो।
“आप विक्रम हैं, सुकृति के पिता। मेरे पति।”
“सुकृति से बात करोगी?”
“नहीं, उसे सोने दीजिए। पूरी रात रोई है। रिंकी उसकी गुड़िया चुराकर ले गई। अब मेरी साड़ी चुराएगी।”
उन्हें बहुत झल्लाहट हुई। लेकिन अपनी खीझ पर काबू किए वे प्रमिला को उसके कमरे की ओर ले गए। खाना लेने के लिए रसोई की तरफ़ मुड़े ही थे कि फिर फ़ोन बजा। सुकृति ही थी।
“तुम्हें आज माँ बहुत याद कर रही थी सुकु।”
“सचमुच पापा? उन्हें याद था? मेहा और समीर के बारे में भी पूछ रही थीं?”
“नहीं बेटा। तुम्हारा बचपन याद कर रही थीं।”
“ओ। लॉन्ग टर्म मेमोरी लैप्स।”
“हाँ, लेकिन कम-से-कम वो चल-फिर पा रही है। मैं तो सोचता हूँ धीरे-धीरे जब पूरी तरह बिस्तर पर पड़ जाएगी तो क्या होगा?”
“मैं आ जाऊँगी पापा। बस कुछ दिन और। मेहा को हॉस्टल में डाल दूँगी। समीर और मैं दिल्ली शिफ़्ट कर जाएँगे। बट पापा, यू अमेज़ मी। आपने कितनी लगन से माँ की सेवा की है। आप कितना थक जाते होंगे!”
“थकता तो हूँ बेटा। कभी-कभी तुम औरतों की तरह जी भर कर रो भी लेना चाहता हूँ। लेकिन मेरे टूटने से क्या संभलेगा? जब टूटने लगता हूँ, वो चालीस साल याद करता हूँ जो तुम्हारी माँ ने हमें दिए। बिना शिकायत। मैं फील्ड में रहा तो वो सबकुछ अकेले संभालते रही। तुम्हें, मेरी माँ के कैंसर को, ख़ुद को। उसने एक दिन भी मुझसे शिकायत नहीं की। बिना बताए मैं दोस्तों की भीड़ को पार्टी के लिए अपने घर लाता रहा, वो मुस्कुराकर सबका स्वागत करती रही। मुझे कई ऐसे दिन अब याद आते हैं जब मैंने उसे बहुत तकलीफ़ पहुँचाई होगी, उससे ऐसी अपेक्षाएँ की होंगी जो उचित नहीं थीं। तो ये समझ लो बेटा कि उसकी बीमारी में मेरी ये सेवा मेरा प्रायश्चित है बल्कि मेरे लिए मेरे रिडेम्पशन, मेरी मुक्ति का एक रास्ता है…”
वे बोलते रहे और सुकृति ख़ामोशी से सुनती रही। अपने पापा को पहली बार इतना खुलते हुए सुना था सुकृति ने।
“आई लव यू पापा। आई रियली डू। ईश्वर आपको शक्ति दें,” सिर्फ़ इतना ही कह पाई थी सुकृति।
“और तुम्हें भी। बाय बेटा।”
फ़ोन रखकर वे फिर बेडरूम में आ गए, दो प्लेटों में खाना डालकर। प्रमिला सो चुकी थी। खिड़की के पर्दे अब भी समेटकर एक कोने में डाले हुए थे। बाहर से आती चाँदनी पूरे कमरे को हल्की-हल्की ख़ुशनुमा रौशनी से भर रही थी।
प्लेट में डाले हुए राजमा की ख़ुशबू उनकी भूख को और बढ़ा रही थी लेकिन प्रमिला को गहरी नींद में देखकर वो प्लेट लेकर वापस रसोई की ओर चले गए। कुछ न सूझा तो टहलने के इरादे से पैरों में जूते डालकर वो पिछले दरवाज़े से सर्वेन्ट क्वार्टर की ओर निकल आए।
अपने ड्राइवर मुकेश को उसके क्वार्टर के बाहर से ही प्रमिला की आवाज़ पर ध्यान देने के लिए बोलकर वे मेन गेट से बाहर निकलकर सड़क पर आ गए।
जलवायु विहार के इन सारे बंगलों और अपार्टमेंटों में फ़ौजी अफ़सर और उनके परिवार ही रहते थे। जिनमें ज़्यादातर रिटायर हो चुके थे। बाईं ओर रहनेवाले ग्रुप कैप्टन माथुर, दाईं ओर कॉमोडोर मिश्रा, सड़क के दूसरी ओर विंग कमांडर जोशी और कैप्टन परेरा। ये सब उनके साथी थे। शाम को क्लब में ब्रिज खेलना, सुबह टहलने के लिए निकलना, दोपहर में गप-शप के दौरान सन् 1965 और सन् 1971 युद्ध के किस्से बाँटना। रिटारमेंट के बाद की इस ज़िंदगी से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी।
प्रमिला की बीमारी के बाद साथियों से मिलना-जुलना कम होता गया और फिर तो वे उनसे मिलने से पूरी तरह बचने लगे। कई बार सवालों का जवाब देना मुश्किल हो जाता। क्या मिसेज कश्यप आपको भी नहीं पहचानतीं? अल्ज़ाइमर्स के क्या-क्या लक्षण हैं? खाना कौन बनाता होगा? कपड़े कौन धोता होगा? आप बेटी के पास क्यों नहीं चले जाते? बेटी क्यों नहीं आती?
आज भी दूर से ही उन्होंने कॉमोडोर मिश्रा को अपनी पत्नी के साथ सामने से आता देख लिया और बिना सोचे-समझे वापस मुड़ गए। बेवजह वे अपना मूड और ख़राब नहीं करना चाहते थे। जितनी तेज़ी से वे मेनगेट से निकले थे, उतनी ही तेज़ी से अंदर घुसकर उन्होंने खट से कुंडी बंद कर ली और पिछले दरवाज़े से ही घर के अंदर चले आए।
सर्वेन्ट्स क्वार्टर के दरवाज़े पर ही मुकेश की बीवी अपने ढाई साल के बेटे के साथ बैठी थी। “बड़ी जल्दी आ गए पापाजी?” मुकेश और मुकेश की बीवी उन्हें शुरू से ही पापाजी और प्रमिला को मम्मीजी बुलाते थे। बाक़ी रिटायर्ड अफ़सरों की तरह उनके यहाँ साहब-मेमसाहब बुलाने का चलन नहीं था। प्रमिला का जोड़ा हुआ यही अपनापन उनके मुश्किल दिनों का इकलौता सहारा था।
अपने साथियों से बच के लौट आने के मक़सद से अंदर आए तो थे लेकिन दिल का बोझ बाँटने के लिए वो वहीं बैठ गए, मुकेश के कमरे के बाहर।
“पापाजी, खाना खाए थे? हम राजमा बना दिए थे।” मुकेश की बीवी को इसके अलावा कुछ पूछना नहीं सूझा।
“खा लेंगे बेटा। तुम्हारी मम्मीजी सो रही हैं।” ये कहते हुए उन्होंने मुकेश के बेटे को गोद में लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया। बच्चा गोद में आकर जेब में लगी उनकी कलम से खेलने लगा।
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