RE: Indian Sex Kahani डार्क नाइट
कबीर, नौकरी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं था, मगर माया का साथ उसे अच्छा लगने लगा था। माया, उसकी आवारा उमंगों को काबू करना चाहती थी। कबीर को अपनी आवारगी पसंद थी, मगर फिर भी उसका मन माया की लगाम में कस जाना चाह रहा था। माया के बॉसी रवैये में उसे एक सेक्स अपील दिखने लगी थी; जैसी उसे कभी लूसी की अदाओं में दिखी थी। प्रिया की आँखों में कबीर ने एक तिलिस्म देखा था, जिसमें भटककर वह अपनी मंज़िल ढूँढ़ना चाहता था। मगर माया तो पूरी की पूरी एक तिलिस्मी हुकूमत थी। इस हुकूमत में एक अजीब सा आकर्षण था, उसकी किशोरमन की फैंटेसियों की झाँकी थी, उसके अतीत की कल्पनाओं का बिम्ब था। यौवन का प्रेम, किशोर मन की कल्पनाओं की छवि होता है। प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है।
अगले दिन कबीर का इंटरव्यू हुआ और उसे जॉब मिल गई। माया बहुत खुश हुई। उसने चहकते हुए कबीर को गले लगाकर कहा,‘‘कन्ग्रैचलेशंस कबीर! वेल डन।’’
‘‘थैंक्स माया।’’ कबीर ने भी माया को बाँहों में भींचते हुए कहा। मगर कबीर जानता था, कि वह थैंक्स जॉब के लिए नहीं था। माया को बाँहों में भींचते हुए कबीर को वैसा ही महसूस हुआ, जैसा उसे कभी टीना की बाँहों में लिपटकर हुआ था। भय में लिपटा आनंद, जिसे वह अपनी बाँहों से निकलने तो नहीं देना चाहता था, मगर माया के आलिंगन में पिघल जाने का भय उस आनंद को निस्तेज कर रहा था।
‘‘कबीर, ट्रीट कब दे रहे हो?’’ कबीर की बाँहों के घेरे से ख़ुद को हल्के से छुड़ाते हुए माया ने पूछा।
‘‘जब चाहो।’’ बाँहों से माया के निकलते ही, कबीर का मन भी उसके भय से स्वतंत्र हुआ।
‘‘आज शाम को?’’
‘डन।’
‘‘कहाँ ले जाओगे?’’
‘‘वह तुम्हें शाम को ही पता चलेगा।’’ कबीर ने मुस्कुराकर कहा।
उस शाम कबीर, माया को थेम्स नदी पर डिनर क्रू़ज पर ले गया। चेरिंगक्रॉस मेट्रो स्टेशन से निकलकर, एम्बैकमेंटपियर पर बोट में पहुँचते ही एक जादुई परिवेश ने उन्हें घेर लिया। बोट के भीतर बना खूबसूरत रेस्टोरेंट, चमचमाता बार, काँच की चौड़ी खिड़कियों के पार नदी के किनारे तनी भव्य इमारतें, नदी की धारा में झिलमिलाती सतरंगी रौशनी; और बोट के भीतर लाइव जा़ज बैंड की धीमी मादक धुन, जो दिलकश माहौल पैदा कर रहे थे; उसमें उनका डूब जाना ला़जमी था। बार से ड्रिंक्स लेकर वे डेक पर पहुँचे। थेम्स के प्रवाह से उठती ठंढी मंद हवा में, जा़ज संगीत की धुन तैर रही थी। शाम ढलने लगी थी, और आसमान में कुछ तारे भी टिमटिमाने लगे थे।
‘‘वाओ! दिस इ़ज अमे़िजंग; मेनी थैंक्स फॉर दिस कबीर।’’ माया ने ड्रिंक का एक हल्का घूँट भरते हुए कहा।
‘‘धीमी रौशनी, धीमी हवा, धीमा संगीत... सब कुछ कितना अच्छा लग रहा है न माया!’’ कबीर ने कहा।
‘‘सच में कबीर; मन कर रहा है कि समय बस यहीं ठहर जाए।’’ माया ने अपने बालों की लहराती लटों को सँभाला।
‘‘समय नहीं ठहरता माया; हमें ठहरना होता है।’’
‘मतलब?’
‘‘माया! समय के प्रवाह के परे, जहाँ से पल टूटते हैं; उसमें डूबना होता है। उसमें डूबकर, हर टूटते पल को ख़ुद से गु़जरने देना होता है। कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंद लो; इस ठंढी हवा को, इसमें तैरते संगीत को ख़ुद से होकर गु़जरने दो। इसके हर कॉर्ड को, हर नोट को महसूस करो माया।’’ माया की पलकों पर अपना हाथ फेरते हुए कबीर ने कहा।
माया ने आँखें बंदकर, कुछ देर के लिए समय के प्रवाह को ख़ुद से बेरोकटोक गु़जरने दिया। ठंढी मंद हवा उसके बदन को सहलाती रही; उसमें तैरता संगीत उसकी आत्मा को भिगाता रहा।
‘‘हे माया, कहाँ खो गर्इं?’’ कबीर ने हल्के से माया का कन्धा थपथपाया।
‘‘इट वा़ज एन अमे़िजंग एक्सपीरियंस कबीर।’’ माया ने धीमे से आँखें खोलीं।
‘‘क्या महसूस किया?’’
‘‘ऐसा लगा, जैसे कि सुर मेरी आत्मा से होकर बह रहे हों... जैसे कि संगीत मेरे भीतर गँुथ रहा हो; जैसे कि मेरा विस्तार हो रहा हो संगीत के इस छोर से उस छोर तक...।’’ माया का चेहरा किसी सूरजमुखी सा खिला हुआ था।
‘‘माया, आज तुम पहाड़ी राग की तरह सुंदर लग रही हो।’’ कबीर की ऩजरें माया के खिले हुए चेहरे पर थम गर्इं। कबीर के शब्द, माया के चेहरे पर एक शर्म में लिपटा अभिमान बिखेर गए। माया ने अपनी पलकें झुकाईं, और नदी की धारा में झिलमिलाती रौशनी निहारने लगी। माया ने अब तक अपनी न जाने कितनी प्रशंसाएँ सुनी थीं; मगर हर बार तुलना किसी मूर्त बिंब से ही हुई थी। पहली बार किसी ने उसके सौन्दर्य में एक अमूर्त अलंकार जड़ा था। कबीर की प्रशंसा से उसके भीतर एक मधुर रागिनी सी मचल गई।
अगली शाम कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! चलो तुम्हें किसी से मिलाता हूँ।’’
‘किससे?’
‘‘मेरे गुरु हैं।’’
‘‘किस ची़ज के?’’
‘‘हर ची़ज के; मेरे जीवन के गुरु हैं।’’
‘‘अच्छा, चलो।’’
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