RE: Indian Sex Kahani डार्क नाइट
कबीर ने अलमारी खोलकर उसके लॉकर से प्रिया की दी हुई घड़ी निकाली। डायमंड और रो़ज गोल्ड की खूबसूरत घड़ी, जिसके डायल पर लिखा था ख्ख्, यानी कबीर खान। कबीर ने घड़ी अपनी कलाई पर बाँधी, और उसे एकटक निहारने लगा। घड़ी की सुइयों की टिक-टिक उसकी यादों में बहते समय को खींचकर उसके बचपन में ले गई।
कबीर के जीवन की समस्त विचित्रताओं की तरह ही उसके जन्म की कहानी भी विचित्र ही थी।
कबीर के माँ और पापा की पहली मुलाक़ात, एक स्टूडेंट रैली में हुई थी। माँ उन दिनों स्टूडेंट लीडर, और अपने कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन की प्रेसिडेंट थी, और पापा एक जूनियर पत्रकार। कबीर के होने वाले पापा, कबीर की होने वाली माँ को देखते ही उन पर फ़िदा हो गए; और फ़िदा भी ऐसे, कि उसके बाद चाहे कोई रैली हो, कोई हड़ताल हो कॉलेज या यूनिवर्सिटी का कोई फंक्शन; वे माँ से मिलने का कोई मौका हाथ से जाने न देते। मुलाक़ातें दोस्ती में बदलीं, दोस्ती प्यार में; और प्यार खींचकर ले गया शादी की दहली़ज तक। मगर वहाँ एक मुश्किल थी। कबीर की माँ हिन्दू हैं और पापा मुस्लिम। उनके घरवालों को उनका सम्बन्ध गवारा न था। कहते हैं कि लगभग साढ़े चार सौ साल पहले, मुग़ल बादशाह अकबर ने एक हिन्दू राजकुमारी से शादी कर, हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों की साझी तह़जीब की बुनियाद डाली थी; मगर शायद वो बुनियाद ही कुछ कच्ची थी, क्योंकि आज भी भारत में हिन्दू-मुस्लिम बड़ी आसानी से भाई-भाई तो कहला सकते हैं, मगर उसी आसानी से पति-पत्नी नहीं हो सकते। खैर, माँ ने तो किसी तरह अपने घर वालों को मना लिया, मगर पापा के घर वाले किसी भी कीमत पर रा़जी न हुए। फिर पापा ने की एक लव-जिहाद। अपने लव या प्यार को पाने के लिए, अपने परिवार और बिरादरी के खिला़फ जिहाद; और सबकी नारा़जगी मोल लेते हुए माँ से शादी की।
शादी के बाद पापा के सम्बन्ध अपने घर वालों से बिगड़े हुए ही रहे। कुछ औपचारिकताएँ हो जातीं; कुछ ख़ास मौकों पर मुलाकातें या बातचीत हो जाती, मगर इससे अधिक कुछ नहीं। फिर हुआ कबीर। कबीर का होना, उसके बाद यदि किसी और के लिए सबसे अधिक बदलाव लेकर आया तो वे उसके पापा के घर वाले ही थे। पूरा परिवार उसे देखने आया, मगर इस बार उनका आना मह़ज एक औपचारिकता नहीं था; उसमें एक गर्मजोशी थी, एक उत्साह था। कबीर के प्रति उमड़ता उनका प्रेम, उसके पापा पर भी छलकने लगा था, जिसमें भीगकर पापा, अपने आपसी रिश्तों में आई सारी कड़वाहट धो डालना चाहते थे। मगर कुछ देर बाद पापा को समझ आया कि उस प्रेम के पीछे एक डर था; वैसा ही डर, जो प्रेम और घृणा को एक दूसरे का पूरक बनाए रखता है। कभी अपने बेटे के गैरम़जहबी लड़की से शादी कर, उसके दूर हो जाने के डर ने उनके मन में एक घृणा पैदा की थी, और उस दिन अपने पोते के गैरम़जहबी हो जाने का डर उन्हें कबीर की ओर खींच लाया था। उन्हें डर था, कि उनसे दूरी की वजह से कबीर, मुस्लिम संस्कारों से वंचित होकर हिन्दू न हो जाए। वे उसे हिन्दू बनने से रोकना चाहते थे। उनका मानना था कि हर बच्चा मुस्लिम ही पैदा होता है, मगर उसके पालक उसे हिन्दू, सिख या ईसाई बना देते हैं। वे एक और मुस्लिम को का़फिर बनने से रोकना चाहते थे। उन्होंने तो कबीर के लिए नाम भी सोच रखा था... ‘ज़हीर।’ मगर कबीर के पापा उसे ऐसा नाम देना चाहते थे, जो अरबी न लगकर हिन्दुस्तानी लगे; जो बादशाह अकबर द्वारा डाली गई कच्ची नींव को कुछ पुख्ता कर सके; मगर साथ ही ये डर भी था, कि यदि नाम हिन्दू हुआ, तो परिवार के साथ मिटती दूरियाँ कहीं और न बढ़ जाएँ। कबीर का म़जहब तय करने से पहले ही उसके नाम का म़जहब तय किया जाने लगा था। पापा की इस कशमकश का हल निकाला माँ ने; और उन्होंने उसे नाम दिया, ‘कबीर’; यानी महान, ग्रेट। अल्लाह के निन्यानबे नामों में एक... एक अरबी शब्द, जो संत कबीर से जुड़कर, न सि़र्फ पूरी तरह हिन्दुस्तानी हो चुका है, बल्कि अपना म़जहबी कन्टेशन भी खो चुका है। कबीर को समझकर ही समझा जा सकता है कि शब्दों का कोई म़जहब नहीं होता, नामों का कोई म़जहब नहीं होता; म़जहब सि़र्फ इंसान का होता है... भगवान का कोई म़जहब नहीं होता।
बचपन में ही, जैसे ही कबीर को उसके नाम के रखे जाने का किस्सा पता चला, उसे यकीन हो चला कि वह पूरी कहानी बेवजह नहीं थी, और उसके पीछे कोई पुख्ता वजह ज़रूर थी। उसे यकीन हो चला था कि उसके नाम के अर्थ के मुताबिक ही उसका जन्म किसी महान मकसद के लिए हुआ था।
मगर आज कबीर कहाँ आ पहुँचा था? कहाँ रह गया था उसके महान बनने का मकसद? आज वह बस दो लड़कियों के बीच उलझा हुआ था। प्रिया, जो एक अरबपति पिता की बेटी थी; जिसके सामने उसका ख़ुद का कोई ख़ास वजूद नहीं था। दूसरी माया; जिसके अरबपति बनने के सपने थे; जिन सपनों के सामने वह ख़ुद को छोटा ही समझता था। क्या प्रेम में किसी लड़की को अपनी ओर आकर्षित कर लेना ही सब कुछ होता है? क्या उसे अपने प्रेमजाल में उलझाए रखना ही सब कुछ होता है? क्या उसके रूप और यौवन के प्रति समर्पित रहना ही सब कुछ होता है? आ़िखर रूप और यौवन की उम्र ही कितनी होती है? उस उम्र के बाद प्रेम का उद्देश्य क्या होता है? क्या प्रेम का अपना भी कोई महान उद्देश्य होता है? बस यही सब सोचते हुए कबीर की आँख लग गई।
अगली सुबह कबीर की आँख का़फी देर से खुली। अलसाई आँखों को मलते हुए कबीर ने टीवी का रिमोट उठाया और बीबीसी 24 न्यू़ज चैनल लगाया। मुख्य खबर थी – इन द मिडिल ऑ़फ डीप फाइनेंशियल क्राइसिस एनअदर प्राइवेट इन्वेस्टमेंट फ़र्म फ्रॉम सिटी ‘सिटी पार्टनर्स’ कलैप्स्ड। द फ़र्म इ़ज चाज्र्ड विद फ्रॉड्यूलन्ट एकाउंटिंग प्रैक्टिसेस एंड इट्स टॉप ऑफिशल्स आर अरेस्टेड, आल एम्प्लाइ़ज ऑ़फ द फ़र्म फियर जॉब लॉसेस।
कबीर को धक्का सा लगा। सिटी पार्टनर्स ही वह फ़र्म थी, जिसमें माया और कबीर काम करते थे। फ़र्म के डूब जाने का मतलब था, माया और कबीर की नौकरी जाना, माया का फ़र्म में इन्वेस्ट किया सारा पैसा डूबना। एक तो माया की ख़ुद की सेहत खराब थी, उस पर देश की अर्थव्यवस्था की सेहत भी बुरी तरह बिगड़ी हुई थी। एक के बाद एक डूबते बैंक और प्रॉपर्टी मार्केट के टूटने से अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी। ऐसे में माया के लिए नई नौकरी ढूँढ़ पाना लगभग असंभव था; ऊपर से माया पर उसके अपार्टमेंट के क़र्ज का बड़ा बोझ था। नौकरी न रहने का अर्थ था क़र्ज चुकाने में दिक्कत; और क़र्ज न चुका पाने का अर्थ था, अपार्टमेंट का हाथ से जाना। माया के तो जैसे सारे सपने ही बिखर जाएँगे। ऐसे में सि़र्फ एक ही सहारा थी... प्रिया। प्रिया ही मदद कर सकती थी। कबीर ने तय किया कि वह प्रिया से मिलेगा; उसके हाथ जोड़ेगा, ख़ुद का सौदा करेगा; मगर माया के सपने बिखरने नहीं देगा। माया ने सफलता और सम्पन्नता के जो सपने देखे हैं, वे पूरे होने ही चाहिएँ। शायद इसी त्याग में उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण होगा; उसका नाम ‘कबीर’ सार्थक होगा।
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