RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
सिन्हा ने उसका हाथ पकड़ लिया ।
“मेरी बात सुनो ।” - वह तनिक कठोर स्वर में बोला लेकिन उसके खोखले स्वर में कठोरता से अधिक याचना का पुट था ।
“फरमाइये ।” - आशा अपने स्वर को भरसक सन्तुलित करती हुई बोली ।
“तुम चाहती क्या हो ?”
“आप क्या चाहते हैं, सिन्हा साहब ?”
“मैं... मैं तुम्हें चाहता हूं । तुम्हें हासिल करने के लिये मैं दुनिया की कोई भी चीज तुम्हारे कदमों में निछावर करने के लिये तैयार हूं ।”
“मैं बिकाऊ नहीं हूं ।” - आशा शान्त स्वर से बोली ।
“मेरा यह मतलब नहीं था ।” - सिन्हा जल्दी से बोला - “यह बात मैंने केवल तुम पर अपनी मुहब्बत जाहिर करने के लिये कही थी ।”
आशा चुप रही ।
“आशा” - सिन्हा आग्रह पूर्ण स्वर से बोला - “मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं ।”
“आप मुझसे मुहब्बत नहीं करते हैं” - आशा एक एक शब्द पर जोर देती हुई बोली - “मुहब्बत के धोखे में डालकर आप मुझे खराब करना चाहते हैं इसलिये आप केवल ऐसा कह रहे हैं । सिन्हा साहब, मैं बच्ची नहीं हूं । मैं उस उम्र से बहुत आगे निकल आई हूं जिसमें मर्द की मुहब्बत का झूठा वादा भी लड़की के दिल और दिमाग में ऐसा सम्मोहन पैदा कर देता है कि वह परिणाम का ख्याल किये बिना अपने झूठे और स्वार्थी प्रेमी पर अपना सब कुछ न्योछावर कर देती है और बाद में सिर पकड़ कर रोती है ।”
“आशा, सच....”
“सिन्हा साहब अगर आप सत्य ही मुझसे मुहब्बत करते होते तो आप मेरे शरीर की कीमत आंकने की कोशिश नहीं करते । इस बाक्स में अन्धेरे और तनहाई में मुझे अकेली और बेसहारा समझकर आप मुझ पर झपटने की कोशिश नहीं करते ।”
“आशा, यह बात नहीं है । मैं वाकई तुम से मुहब्बत करता हूं और क्योंकि मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं, इसलिये मैं तुम्हें अपनी बाहों में देखना चाहता हूं ।”
“लेकिन मैं आपसे मुहब्बत नहीं करती सिन्हा साहब ।” - आशा बर्फ जैसे ठन्डे स्वर से बोली ।
“तुम मेरा अपमान कर रही हो ।” - सिन्हा तमक कर बोला ।
“मैं हकीकत बयान कर रही हूं और आपको आपकी और अपनी स्थिति की बेहतर जानकारी देने की कोशिश कर रही हूं ।”
सिन्हा कुछ क्षण अग्नेय नेत्रों से आशा को घूरता रहा लेकिन जब उसने अपनी इस क्रिया का आशा पर कोई प्रभाव नहीं पाया तो हवा निकले गुब्बारे की तरह पिचक गया ।
“तुम किसी और से मुहब्बत करती हो ?” - कुछ क्षण चुप रहने के बाद उसने प्रश्न किया ।
आशा ने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम जरूर किसी और से मुहब्बत करती हो ।” - सिन्हा निर्णयात्मक स्वर से बोला ।
आशा चुप रही ।
“तुमने जरूर कोई मुझसे मोटा मुर्गा फांसा हुआ है ।”
“अगर मैंने कोई मोटा मुर्गा फांसा हुआ होता” - आशा शान्त स्वर से बोली - “तो मैं आप के दफ्तर में अपनी इज्जत को खतरे में डाल कर साढे तीन सौ रुपये की नौकरी न कर रही होती ।”
“मोटा मुर्गा न सही लेकिन तुम किसी से मुहब्बत जरूर करती हो ।”
उसी क्षण फिल्म समाप्त हो गई और स्क्रीन पर तिरंगा झंडा दिखाई देने लगा और राष्ट्रीय गान आरम्भ हो गया ।
आशा अपनी सीट से उठ खड़ी हुई ।
सिन्हा भी खड़ा हो गया ।
राष्ट्रीय गान की समाप्ति पर वे बाहर निकल आये ।
सिनेमा की इमारत के बाहर निकल कर वे सिनेमा के विशाल कम्पाउन्ड में आ गये ।
“थोड़ी देर यहीं ठहरते हैं ।” - सिन्हा बोला - “जरा भीड़ छंट ले ।”
“अच्छा, सिन्हा साहब ।” - आशा सुसंयत स्वर से बोली ।
दोनों एक ओर हट कर खड़े हो गये ।
उसी क्षण हजार वाट के बल्ब की तरह जगमगाती हुई एक महिला उस ओर बढी जिधर वह और सिन्हा खड़े थे । वह बहुत गहरा मेकअप किये हुए थी और बड़ा कीमती परिधान पहने हुए थी । उसके नेत्र सिन्हा के नेत्रों से मिले । वह क्षण भर के लिये ठिठकी और फिर बड़े ही बनावटी स्वर से बोली - “हल्लो - ओ-ओ-ओ सिन्हा ।”
महिला पर दृष्टि पड़ते ही सिन्हा का चेहरा खिल उठा । क्षण भर के लिये वह आशा को एकदम भूल गया । वह दो कदम आगे बढा और प्रसन्न स्वर से बोला - “हल्लो, आप यहां कैसे ?”
“भई, तुम तो जानते ही हो, मैं ग्रैगरी पैक की फैन हूं ।” - महिला बोली - “उसकी हर फिल्म पहले दिन देखती हूं ।”
“फिल्म देखने आई हैं आप ?”
“फिल्म तो मैंने देख ली ।”
“आम तौर पर तो आप आखिरी शो में आती हैं ।”
“हां लेकिन आज कोठी पर कुछ मेहमानों को बुलाया हुआ था, इसलिये फर्स्ट शो में चली आई ।”
“आई सी ।”
“बड़ी तगड़ी पार्टी का आयोजन है । तुम भी चलो न ?”
“मैं !” - सिन्हा अनिश्चित स्वर से बोला ।
“हां, हां, क्यों नहीं । तुम से तो वैसे भी बहुत कम मुलाकात हो पाती है । जब पूछो यही मालूम होता है साहब दिल्ली गये हुए हैं । आज चलो, सब तुम्हारे जाने पहचाने लोग भी आ रहे हैं, बड़ा मजा आयेगा ।”
“लेकिन मैडम, मैं अकेला नहीं हूं ।”
“कौन है तुम्हारे साथ ?”
सिन्हा ने थोड़ी दूर खड़ी आशा की ओर संकेत कर दिया ।
महिला ने एक उड़ती हुई दृष्टि आशा पर डाली और फिर बोली - “कौन है यह ?”
“मेरी सैक्रेट्री है ।”
“फिर क्या मुश्किल है । चलता करो इसे ।”
“नहीं ।” - सिन्हा विस्मयपूर्ण स्वर से बोला - “यह तो अच्छा नहीं लगता ।”
“तो फिर इसे भी साथ ले चलो ।”
“दरअसल बात यह है कि मैंने नटराज में डिनर के के लिये टेबल बुक करवाई हुई है । अभी हम लोग वहीं जा रहे थे ।”
“अरे, गोली मारो नटराज को ।” - महिला मर्दों की तरह अपने हाथ को झटका देती हुई बोली - “मेरी कोठी क्या नटराज से कम है । वहां, क्या लोग डिनर नहीं लेते । और फिर नटराज में तुम्हें ‘जानी वाकर’ कौन पिलायेगा । आज रात के लिये मैंने विशेष रूप से बीस बोतलें मंगवाई हैं ।”
“मेरी सैक्रेट्री तो शराब पीती नहीं है ।”
“नहीं पीती तो अब पीने लगेगी । और सिन्हा तुम साथ चलोगे तो मुझे भी थोड़ी सहूलियत हो जायेगी ।”
“क्या ?”
“मेरी गाड़ी बिगड़ गई मालूम होती है । ड्राइवर से गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही है । तुम साथ चलोगे तो मैं टैक्सी में जाने की जहमत से बच जाऊंगी ।”
सिन्हा सोचने लगा ।
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