RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“क्यों नहीं करेगी ? क्या कमी है तुम में ? अच्छे खासे खूबसूरत आदमी हो । पैसा भी कमाते ही हो । बड़ा अच्छा बड़ा मीठा स्वभाव है तुम्हारा । और क्या चाहिये किसी लड़की को ? और फिर तुम जैसे अपनी बातों में फंसा कर लोगों को बीमे की पालिसी बेच लेते हो, मेरे ख्याल से तो वैसे ही तुम किसी लड़की को यह आईडिया बेच लोगे कि उसे तुम से बेहतर पति चान्द पर भी नहीं मिल सकता ।”
“देखते हैं ।”
“क्या देखते हैं ?”
“यही कि शादी के मामले में हमारी हाई प्रैशर सेल्ज मैन शिप काम आती है या नहीं ।”
“जरूर देखो । वैसे कोई लड़की है नजर में ?”
“लड़कियां तो बहुत नजर में हैं लेकिन वे मानेंगी नहीं ।”
“कौन हैं ?”
“कई हैं ।” - अशोक लापरवाही से बोला - “जैसे वहीदा रहमान, आशा पारेख, बबीता, सिमी...”
“मजाक मत करो ।” - आशा उसकी बात काट कर बोली ।
अशोक हंसने लगा ।
आशा ने उसे घूर कर देखा ।
“दरअसल एक लड़की है मेरी नजर में ।” - अशोक बोला - “अगर आप मुझसे शादी के लिये उससे हां कहलवा दें तो मैं आपका भारी अहसान मानूंगा ।”
“कौन है वह ?”
“मैं कभी आपको मिलवाऊंगा उससे ।”
“खूबसूरत है ?”
“बहुत ।”
“सच्चरित्र है ?”
“बहोत...”
“पढी लिखी है ? स्वाभाव की अच्छी है ?”
बहोत...”
“मुझे मिलवाना उससे ।”
“जरूर मिलवाऊंगा ।”
“चलें ?”
“वाह साहब, आपके बारे में कुछ पूछने की मेरी बारी आई तो आप चलने के लिये तैयार हो गई । आप भी तो अपने बारे में कुछ बताइये ।”
“क्या बताऊं ?”
“वही कुछ जो आपने मुझसे पूछा है ।”
“सुन लो ।” - आशा तनिक गम्भीर स्वर में बोली - “मेरा नाम और काम-धाम तो तुम जानते ही हो । कोलाबा में स्ट्रैंड सिनेमा के पीछे की गली में, एक पांच मंजिली इमारत की चौथी मंजिल पर एक कमरे के फ्लेट में अपनी एक सहेली के साथ रहती हूं और इस संसार में बिल्कुल अकेली हूं ।”
“क्या ?” - आखिरी बात सुनकर अशोक चौंका ।
“हां । मेरे मां बाप, भाई बहन कोई नहीं है ।”
“क्या कोई दुर्घटना...”
“हां । भूचाल से मकान गिर गया था और मेरा सारा परिवार उसमें दबकर मर गया था । मैं उस समय पढने गई हुई थी इसलिये बच गई थी ।”
“ओह !” - अशोक गम्भीर स्वर से बोला - “यह तो बड़ी ट्रेजिक बात सुनाई आपने ।”
“आओ चलें ।” - आशा बोली और बान्ध की दीवार से नीचे उतर आई ।
“वापिस ।” - अशोक भी दीवार से उतरकर फुटपाथ पर खड़ा होता हुआ बोला ।
“हां ।”
“कैसे जाओगी ?”
“बस से जाऊंगी और कैसे ?”
“चलिये फिर आपको बस स्टैण्ड तक छोड़ आऊं ।”
“चलो ।”
दोनों फुटपाथ पर चलने लगे ।”
“आज बहुत मजा आया ।”
“हूं ।”
“बम्बई की एकरसता भरी जिन्दगी में आज जैसी लुभावनी शाम पता नहीं फिर कब आयेगी ।”
आशा चुप रही ।
“कभी फिर मिलियेगा ।” - अशोक बोला । उसके पूछने के ढंग से यह मालूम नहीं होता था कि वह सवाल पूछ रहा है या राय दे रहा है ।
“हां, हां क्यों नहीं ?”
“मैं आपको कभी कभी फोन कर दिया करूं तो कोई हर्ज तो नहीं है ?”
“क्या हर्ज है ?” - आशा दार्शनिक भाव से बोली ।
“मैं आपको फोन करूंगा ।”
“करना ।”
“बस पर जाने की जगह अगर कोलाबा तक पैदल ही चलें तो कैसा रहे ?” - अशोक आशापूर्ण स्वर से बोला ।
“नहीं ।” - आशा बोली - “मैं चलने के मूड में नहीं हूं ।”
“तो फिर टैक्सी ले लें ?” - अशोक ने एकदम राय दी ।
“क्या जरुरत है ? बस बड़ी सहूलियत से मिल जाती हैं । क्यों खामाखाह टक्सी का भाड़ा भरा जाये ।”
“आप ठीक कह रही हैं ।” - अशोक एक गहरी सांस लेकर बोला ।
आशा चुप रही ।
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