RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“क्या बात है, बाबा !” - अशोक बोला - “तुम तो यूं भाग रही हो जैसे भूत दिखाई दे गया हो ।”
“भूत ही दिखाई दे गया है ।” - आशा बोली ।
“किस्सा क्या है ?”
“किस्सा भी बताती हूं । फिलहाल यहां से चलो ।”
“क्या ? फिल्म नहीं देखोगी ?”
“फिल्म किसी और दिन देखेंगे ।”
अशोक ने असमंजस पूर्ण ढंग से आशा की ओर देखा और फिर कन्धे झटककर उसके साथ हो लिया ।
दोनों सिनेमा से पर रोड पर आ गये ।
“अब बताओ क्या बात थी ?” - अशोक बोला ।
“सिन्हा साहब बैठे थे ।” - आशा बोली ।
“सिन्हा साहब कौन ? अच्छा वो तुम्हारा बास ।”
“हां ।”
“तो फिर क्या हो गया ? क्या सिन्हा साहब की नौकरी में ऐसी भी कोई शर्त है कि जिस सिनेमा में सिन्हा साहब होंगे वहां तुम फिल्म नहीं देख सकती ?”
“यह बात नहीं है । दरअसल आज सिन्हा साहब ने मुझे शाम के शो में फिल्म के लिये आमन्त्रित किया था । मैंने बहाना बनाकर टाल दिया था कि मैंने घर किसी को खाने के लिये बुलाया हुआ है । उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि वे भी अप्सरा में ही आने वाले है अब अगर वे मुझे सिनेमा में देख लेते तो बड़ा घपला हो जाता ।”
“क्या घपला हो जाता ? तुम उसके साथ सिनेमा देखने नहीं आना चाहती थीं, इसलिये तुमने बहाना बना दिया । अक्लमन्द के लिये इशारा ही काफी होता है । अब अगर वह इशारा नहीं समझे तो भाड़ में जाये ।”
“ऐसा नहीं होता, बाबा । वह मेरा बास है । मैंने दफ्तर मैं सारा दिन उसके साथ गुजारना होता है । मेरे लिये उसके सैन्टीमैन्ट्स का ख्याल रखना बहुत जरूरी है ।”
“बहुत ख्याल हे तुम्हें सिन्हा साहब का ।”
“क्या करें ? नौकरी तो करनी ही है न ?”
“वैसे एक बात पूछं ?”
“पूछो ।”
“तुमने सिन्हा साहब का निमन्त्रण स्वीकार क्यों नहीं किया ।”
“क्योंकि सिन्हा साहब केवल कम्पनी या मनोरंजन की खातिर ही मुझे सिनेमा के लिये आमन्त्रित नहीं करते । मुझे साथ ले जाने के पीछे उनके बड़े गन्दे इरादे छुपे हुए होते हैं । सिनेमा हाल की रोशनियां गुल होते ही वे शैतानी हरकतों पर उतर आते हैं ।”
“पहले कभी सिनेमा देखने गई हो उसके साथ ?”
“हां । इसीलिये तो मुझे उनकी गन्दी नीयत का निजी तजुर्बा है ।”
“दफ्तर में भी वे अपनी गन्दी नीयत का प्रदर्शन करते रहते हैं ?”
“हां... खूब । बेहिचक ।”
“फिर भी तुम उनके यहां नौकरी कर रही हो ?”
“और क्या करूं ?”
“नौकरी छोड़ दो । कहीं और नौकरी कर लो ।”
“इतनी आसानी से दूसरी नौकरी कहां मिलती है । और अगर मान लो मिल भी गई तो इस बात क्या गारन्टी है कि नया बास सिन्हा साहब से भी बड़ा शैतान नहीं होगा ? सिन्हा साहब तो मेरी ‘न’ के आगे थोड़ी देर के लिये परास्त हो जाते हैं, चुप हो जाते हैं और मुझे फांसने का प्रोग्राम किसी बेहतर मौके के लिये पोस्टपोन कर देते हैं क्योंकि वे विषय लोलुप होने के साथ साथ हीन भावना के भी शिकार हैं । अग्रैसिव नेचर नहीं है उनकी । किसी चीज को झपट कर अपने कब्जे में कर लेने का साहस वे अपने में नहीं जुटा पाते । लेकिन सम्भव है नया बास ऐसा न हो । वह मेरे विरोध से परेशान होकर शायद किसी न किसी बहाने मुझे नौकरी से ही निकाल दे । अशोक साहब सरकारी नौकरी ही या प्राइवेट, बड़े शहरों में साहब लोग अपनो सैक्रेट्री से इश्क लड़ाना तो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं । सैक्रेट्री मेरे जैसी हुई तो वे सैक्रेट्री बदल लेंगे । कहने का मतलब यह है कि सिन्हा साहब के साथ अच्छा है, जब तक निभती है, निभ जाये । दूसरी नौकरी तो तभी तलाश करूंगी जब सिन्हा साहब ही मुझे निकालने की सोचने लगेंगे ।”
“तुम नौकरी करती ही क्यों हो ?”
“यह क्या सवाल हुआ ?” - आशा बोली - “नौकरी नहीं करूंगी तो पैसा कहां से आयेगा ? पैसा नहीं होगा तो खाऊंगी क्या ?”
“तुम मेरी बात नहीं समझी” - अशोक एकाएक बेहद गम्भीर हो गया था - “देखो, पैसा कमाना तो मर्द का काम होता है । औरत का काम तो मर्द के कमाये हुए पैसे को इस ढंग से खर्च करना है कि जिन्दगी की गाड़ी भागे बढती रहे ।”
“तुम्हारा इशारा शादी की ओर है ।”
“हां । शादी कर लो तुम ।”
“शादी कर लूं मैं !” - आशा तनिक खीज भरे स्वर से बोली - “किससे शादी कर लूं ? शादी किसी मर्द से ही तो करूंगी मैं । किसी दीवार से, किसी पेड़ से तो शादी नहीं कर सकती मैं । कोई मुझे प्रपोज तो करे । मुझ से शादी करने के लिये कहे तो सही ।”
“मुझ से शादी कर लो ।” - अशोक बोला ।
उसने ये शब्द इतने सहज से कहे थे कि आशा का मस्तिष्क उनकी गम्भीरता को तत्काल ग्रहण नहीं कर सका । फिर जब राज उसकी समझ में आई तो उसके नेत्र फैल गये ।
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