RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“खैर ।” - उसने आखिरी बार आशा का हाथ थपथपाया और उठता हुआ बोला - “आई विश यू गुड लक ।”
“अशोक ।” - आशा बोली - “यह अंगूठी...”
“इसे तुम अपने पास रख लो । उपहार के रूप में । मैं मित्र तो रह सकता हूं न !”
“नहीं, मैं इसे नहीं रख सकती ।”
“क्यों ?”
“इस अंगूठी को मेरी उंगली में देखकर बहुत से लोगों के मन में बहुत गलतफहमियां पैंदा हो जाती हैं ।”
“अच्छी बात है । लाओ ।”
आशा ने अंगूठी निकाल कर अशोक को थमा दी ।
उसी क्षण एक वेटर उधर से गुजरा ।
“ऐ... यहां आओ ।” - अशोक ने उसे आवाज दी ।
वेटर समीप आ गया और विनम्र स्वर से बोला - “हां, साब ।”
“क्या नाम है तुम्हारा ?”
“सदाशिव राव, साब ।”
“शादीशुदा हो ?”
“नहीं, साब ।”
“किसी से मुहब्बत करते हो ?”
“हीं हीं हीं, साब ।” - वेटर खींसे निपोर कर शर्माता हुआ बोला ।
“तुम्हारी प्रेमिका का क्या नाम है ?”
“ईंटा बाई ।”
“मुझे जानते हो ?”
“हां साब । आप अशोक साब है ।”
“हाथ बढाओ ।”
वेटर ने झिझकते हुए हाथ बढा दिया ।
अशोक ने अंगूठी उसके हाथ पर रख दी और बोला - “यह मेरी ओर से अपनी ईंटा बाई को उपहार दे देना ।”
“साब ।” - वेटर एकदम बौखला गया ।
“सलाम करो ।”
वेटर ने ठोककर सलाम दे मारा ।
“अब भागो यहां से ।”
“सलाम साब, सलाम साब ।” - वेटर बोला और लड़खड़ाता हुआ वहां से भाग खड़ा हुआ ।
आशा हक्की-बक्की सी वह तमाशा देख रही थी । वेटर के दृष्टि से ओझल होते ही उससे कहना चाहा - “अशोक,यह तुमने...”
“आओ भीतर चलें ।” - अशोक उसकी बात काट कर गम्भीर स्वर से बोला ।
दोनों फिर हाल में आ गये ।
“मैं वापिस जाना चाहती हूं ।” - आशा धीरे से बोली ।
“चली जाना । जल्दी क्या है ।” - अशोक ने उत्तर दिया ।
“लेकिन मैं...”
“खाना वगैरह खा लो फिर मैं तुम्हारे जाने का इन्तजाम कर दूंगा । ओके ?”
“ओके ।” - आशा अनमने स्वर से बोली ।
“तुम यहां बैठो ।” - अशोक कोने में पड़े एक सोफे की ओर संकेत करता हुआ बोला - “मैं जरा जेपी के पास जा रहा हूं ।”
आशा ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
वह सोफे पर जा बैठी ।
एक वेटर उसे स्कवाश और तले हुये काजू सर्व का गया ।
हाल में मौजूद मेहमान मस्ती के उस दौर में से गुजर रहे थे जहां लेाग आपा भूल जाते हैं । किसी को किसी व्यक्ति विशेष में दिलचस्पी लेने की फुरसत नहीं रहती । लोग शराब पी रहे थे और अट्टाहास कर रहे थे, और शराब पी रहे थे ।
रात के बारह बजे गये । अशोक लौट कर नहीं आया । आशा परेशान हो गई । थकान और नींद से उसकी आंखें बन्द होती जा रही थीं । पार्टी थी कि खतम होने का नाम ही नहीं ले रही थी । हंगामा बढता जा रहा था । अभी तक खाने का किसी ने जिक्र भी नहीं किया था ।
आशा अपने स्थान से उठी और मेहमानों की भीड़ में अशोक को तलाश करने लगी ।
“हे बेबी ।” - नशे में धुत्त एक युवक उसका रास्ता रोककर खड़ा हो गया ।” - कम आन... लैट्स हैव् सम फन ।”
“होश में आ बेवकूफ ।” - एक अन्य युवक उसको आशा के सामने से एक ओर घसीटता हुआ बोला - “यह अशोक की मंगेतर है ।”
पहले युवक को जैसे झटका सा लगा । उसने एक बार पूरी आंखें खोलकर आशा को देखा फिर बड़े सम्मानपूर्ण ढंग से कमर से झुकता हुआ शांत स्वर से बोला - “सारी, मैडम । प्लीज डोंट माइन्ड मी । आई एम ए ड्रंकन पिग ।”
आशा आगे बढ गई ।
मेहमान की भीड़ में उसे न अशोक दिखाई दिया और न अर्चना माथुर ।
उसने एक वेटर को रोक कर पूछा - “अशोक साहब को देखा है कहीं ?”
“नहीं, मेम साहब ।”
“अर्चना, माथुर को ?”
“मैडम अभी अभी उस सामने वाले कमरे में गई हैं !” - वेटर हाल से सटे हुए एक कमरे की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
आशा उस कमरे की ओर बढ गई ।
वह एक डबल बैडरूम था । एक नौकर बिस्तर की चादरें बदल रहा था । अर्चना माथुर एक और खड़ी थी ।
“आओ ।” - अर्चना माथुर उसे देखकर मुस्कराती हुई बोली - “यह बैडरूम मैं तुम्हारे लिये ही तो तैयार करवा रही हूं । तुम्हारे और अशोक के लिये ।”
और वह बड़े अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्कराई ।
नौकर चादरें ठीक करके कमरे से बाहर निकाल गया ।
“नीन्द आ रही है ?” - अर्चना माथुर बड़े अश्लील स्वर से बोली - “अशोक को भेजूं !”
“अशोक कहां है ?” - आशा ने पूछा ।
“यहीं कहीं होगा ।”
“मुझे तो कहीं दिखाई नहीं दिया ।”
“आ जायेगा । जल्दी क्या है । अभी तो बहुत रात बाकी है ।”
“अर्चना जी, दर असल मैं... मैं जाना चाहती हूं ।”
“जाना चाहती हो । कहां ?”
“वापिस । बम्बई ।”
“लेकिन जल्दी क्या है ?”
“देखिये अगर आप मेरे वापिस जाने का कोई इन्तजाम करवा सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी ।” - आशा विनयपूर्ण स्वर से बोली ।
“वह तो हो जायेगा लेकिन...”
अर्चना माथुर एकाएक चुप हो गई । वह एकटक आशा के बायें हाथ को घूर रही थी ।
“आशा ।” - अर्चना माथुर बदले स्वर से बोली - “तुम्हारी उंगली में अशोक की अंगूठी नहीं है । कहीं गिरा दी क्या ?”
“नहीं, जी ।” - आशा धीरे से बोली ।
“तो ?”
“मैंने अशोक की अंगूठी उसे वापिस कर दी है ।”
अर्चना माथुर के माथे पर बल पड़ गये ।
“क्यों ?” - उसने पूछा ।
“क्योंकि मैं अशोक से शादी नहीं कर रही हूं ।”
“ओह !” - अर्चना माथुर जैसे एक दम सब कुछ समझ गई ।
आशा चुपचाप खड़ी रही ।
अर्चना माथुर द्वार की ओर बढी ।
“मेरे लौटने का कोई इन्तजाम करवा रही हैं आप ।” - आशा ने व्यग्र स्वर से पूछा ।
“अभी कोई साहब जायेंगे तो तुम्हें उनके साथ भेज दूंगी ।” - अर्चना माथुर कर्कश स्वर से बोली - “नहीं तो यहीं सो जाना । सुबह तो सभी वापिस जायेंगे ।”
“लेकिन... लेकिन... मैं इस कमरे में नहीं सो सकती ।”
“क्यों !” - अर्चना माथुर व्यंग्य पूर्ण स्वर से बोली - “तुम्हें डर है कि रात को अशोक कहीं तुम्हारी इज्जत न लूट ले ?”
“अर्चना जी...”
“अगर यहां नहीं सोना है तो बाहर हाल में किसी सोफे पर पड़ी रहना ।”
और वह द्वार की ओर बढी ।
“मुझे आपसे ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी ।” - आशा दुखित स्वर से बोली ।
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