RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
अर्चना एक दम घूम पड़ी । शालीनता का नकाब उसके चेहरे से उतर गया था । वह हाथ नचाकर आशा के स्वर की नकल करती हुई बोली - “मुझे आप से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी ! तुम साली दो कौड़ी की स्टैनोग्राफर । तुम्हारी औकात क्या है ? बेवकूफ लड़की तुम्हारी कीमत तभी तक थी जब तक अशोक की अंगूठी तुम्हारी उंगली में थी । उस अंगूठी के बिना तुम कुछ भी नहीं हो । अब मुझे तुममें और अपने नौकरों चाकरों में कोई फर्क दिखाई नहीं देता है । समझी ।”
और अर्चना माथुर एक अन्तिम घृणापूर्ण द्दष्टि आशा पर डालकर कन्धे झटकती हुई बैडरूम से बाहर निकल गई ।
आशा कुछ क्षण सकते की हालत में वहीं खड़ी रही और फिर भारी कदमों से चलती हुई बाहर हाल में आ गई ।
इस बार उसने अशोक को तलाश करने की कोशिश नहीं वह उसी प्रकार धीरे धीरे कदम उठाती हुई हाल से बाहर निकल गई, इमारत से बाहर निकल गई और फार्म की बगल में से गुजरती हुई सड़क पर चल पड़ी ।
रात अन्धेरी थी । आशा को रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन उसने एक बार भी घूमकर रोशनियों से जगमगाती हुई उस इमारत की ओर नहीं देखा जहां लोग बाहर के घने अन्धकार से बेखबर ठहाके लगा रहे थे ।
“नमस्ते, जी ।” - उसके कानों में चिर-परिचित स्वर पड़ा ।
आशा चिहुंक पड़ी ।
हे भगवान कहीं यह सपना तो नहीं ।
उसने एक दम घूमकर पीछे देखा । नहीं, वह सपना नहीं था । अमर का मुस्कराता हुआ चेहरा उसके नेत्रों के सामने था ।
“अमर ।” - आशा के मुंह से निकल गया और फिर एक बड़ी ही स्वाभाविक क्रिया के रूप में उसके दोनों हाथ अमर की ओर बढे । लेकिन फिर झिझक ने अन्तर्मन के उल्लास पर विजय पाई और हाथ आगे नहीं बढ पाये ।
“नमस्ते जी ।” - अमर फिर बोला ।
“नमस्ते ।” - आशा के मुंह से स्वंय ही निकल गया - “तुम यहां ?”
“जी हां । जब से सिन्हा साहब ने मुझे नौकरी से निकाला है, मैं तो तभी से यहीं हूं । मैं यहां अर्चना माथुर के फार्म में केयर टेकर हूं ।”
“ओह !”
“लेकिन इतनी अंधेरी रात में आप कहां जा रही हैं ?”
“स्टेशन ।” - आशा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
“क्यों ?”
“बम्बई जाऊंगी ।”
“अभी ?”
“हां ।”
“लेकिन इस समय तो बम्बई कोई गाड़ी नहीं जाती है ।”
“कभी तो जाती होगी । तब तक प्लेटफार्म पर बैठी रहूंगी ।”
“आपको डर नहीं लगेगा ।”
“डर तो लगेगा लेकिन अपमानित होने से भयभीत होना ज्यादा अच्छा है ।”
“बात क्या हो गई है ?” - अमर उलझनपूर्ण स्वर से बोला - “आप तो अर्चना माथुर की सम्मानित अतिथि हैं । आप एक बहुत बड़े आदमी की होने वाली पत्नी हैं । आपका अपमान कौन कर सकता है ?”
“मैं किसी बड़े आदमी की होने वाली पत्नी नहीं हूं और क्योंकि मैं किसी बड़े आदमी की होने वाली पत्नी नहीं हूं इसलिये मैं किसी के आतिथ्य का सम्मान प्राप्त करने की भी अधिकारिणी नहीं हूं ।”
“क्या मतलब !”
“यह देखो ।” - आशा बोली और उसने अपना बायां हाथ अमर की आंखों के सामने कर दिया जिसकी दूसरी उंगली में से अंगूठी गायब थी ।
“क्या ?” - अमर उलझनपूर्ण नेत्रों से उसके हाथ को घूरता रहा और फिर एकाएक बात उसकी समझ में आ गई - “ओह ! अंगूठी ! कहां गई ?”
“जिसकी थी उसे लौटा दी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उस अंगूठी की वजह से किसी के मन में इतनी भारी गलतफहमी पैदा हो गई थी कि उसने फेमससिने बिल्डिंग तक आकर भी मुझसे मिलना जरूरी नहीं समझा, केवल मुझे अपमानित करने के लिये एक खत भेज दिया जिसमें मुझे एक ऐसे काम के लिये मुबारक दी गई थी जो कभी होने वाला ही नहीं था और समझ लिया कि कहानी खतम हो गई ।”
“आशा ।” - अमर व्यग्र स्वर से बोला - “आशा, भगवान कसम मेरा यह मतलब नहीं था ।”
“तुम्हारा यही मतलब था । तुम लोग केवल ड्रामा करना जानते हो, केवल अलंकारिक शब्द ही प्रयोग करना जानते हो, जो तुम्हारी जुबान पर होता है, वह तुम्हारे मन में नहीं होता ।”
“तुम मुझ पर एकदम गलत इलजाम लगा रही हो ! मैं...”
“तुम सिन्हा की नौकरी छोड़ने के बाद मुझसे मिले क्यों नहीं ?”
“मैं मिलना चाहता था ! कम से कम एक बार तो तुम से जरूर मिलना चाहता था । लेकिन उन दिनों मैं बहुत परेशान था । सिन्हा साहब ने एकाएक मुझे नौकरी से निकालकर मेरे सर पर बम सा गिरा दिया था । मैं सारा सारा दिन नई नौकरी की तलाश में घूमा करता था । मैं चाहता था कि पहले कहीं सैटल हो जाऊं और फिर आप से सम्पर्क स्थापित करूं । शनिवार को मुझे नौकरी मिली । सोमवार को केवल तुमसे मिलने की नीयत से मैं बम्बई गया तो मुझे मालूम हुआ कि तुम्हारी अशोक से शादी होने वाली है । मैंने अखबार में तुम्हारी तस्वीरें देखी, तुम्हारी उंगली में जगमगाती हुई हीरे की अंगूठी देखी, तुम्हारे और अशोक के सम्बन्ध का विवरण पढा और फिर मेरा हौसला टूट गया । तुमसे मिलने की मेरी हिम्मत नहीं हुई । मैंने होटल के छोकरे के हाथ तुम्हें चिट्ठी भेजी और उल्टे पांव लोनावला लौट आया ।”
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