RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
“फिर भी आज वो यहां आया !”
“वजह मैंने बताई थी ।”
“उस बाबत मैं अभी आप से फिर बात करूंगा, पहले कुछ और बताइये ।”
“पूछिये ।”
“अब मकतूल का वारिस कौन है ?”
“वारिस ?”
“मेरा सवाल मकतूल की वसीयत की बाबत था । आपको उसकी खबर होगी । आखिर वो आपका क्लायन्ट था ।”
“मकतूल मेरा नहीं, आनन्द आनन्द आनन्द एण्ड एसोसियेट्स नाम की मुम्बई की वकीलों की उस फर्म का क्लायन्ट था जिसमें मैं बहुत जूनियर पार्टनर हूं । मुझे बजातेखुद मकतूल की किसी वसीयत की कोई खबर नहीं । ऐसी कोई वसीयत होगी तो उसकी खबर फर्म के सीनियरमोस्ट पार्टनर मिस्टर नकुल बिहरी आनन्द को होगी जिनका मकतूल क्लायन्ट ही नहीं, दोस्त भी था । आप बड़े आनन्द साहब को मुम्बई कॉल लगा सकते हैं ।”
“लगायेंगे । कॉल से काम न बना तो उन्हें यहां तलब करेंगे ।”
“आप इन्स्पेक्टर हैं - गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज है - कमिश्नर भी होते तो ऐसा न कर पाते ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“इतने हाई फाई वकील हैं ये बड़े आनन्द साहब ?”
“जी हां ।”
इन्स्पेक्टर कुछ क्षण कसमसाया और फिर बोला - “आनन्द नम्बर दो कैसे हैं ? नम्बर तीन कैसे हैं ।”
“मैं समझ रहा हूं कि आप क्यों ये सवाल पूछ रहे हैं ।”
“अच्छा !”
“हां । देखिये, वसीयत कोई बहुत स्पैशलाइज्ड या पेचीदा न हो तो हमारी फर्म में वसीयत ड्राफ्ट का काम एडवोकेट सुबीर पसारी करते हैं जो मेरे से सीनियर हैं लेकिन तीनों आनन्द साहबान से जूनियर हैं । मिस्टर पसारी ने बहुत आला दिमाग और उससे भी ज्यादा आला याददाश्त पायी है । मिस्टर देवसरे की वसीयत अगर एडवोकेट पसारी ने ड्राफ्ट की होगी तो उसके मोटे मोटे प्रावधान यकीनन उन्हें जुबानी याद होंगे । आप मुम्बई में सुबह दस बजे हमारा ऑफिस खुलने तक का इन्तजार नहीं कर सकते तो मैं आपको मिस्टर पसारी के घर का नम्बर बताता हूं, आप अभी ट्रंककॉल पर उनसे बात कर सकते हैं ।”
“नम्बर न बताओ, अर्जेंन्ट ट्रंककॉल बुक कराओ ।”
सहमति में सिर हिलाता मुकेश फोन की ओर बढा ।
उसके टेलीफोन से फारिग होने तक पीछे खामोशी छाई रही ।
“ये वाल सेफ” - फिर इन्स्पेक्टर बोला - “काफी चतुराई से इस लकड़ी की पैनल के पीछे छुपाई गयी थी फिर भी जाहिर है कि छुपी नहीं रही थी । कौन वाकिफ था इससे ?”
“हम सब ।” - मुकेश न सब की तरफ से जवाब दिया ।
“आप साहबान के अलावा ?”
“विनोद पाटिल । क्योंकि मिस्टर देवसरे ने उसके सामने वाल सेफ खोलने की नादानी.. खोली थी ।”
“काफी कलरफुल किरदार जान पड़ता है इस विनोद पाटिल का । वो अभी भी रिजॉर्ट में ही है ।”
“हां ।” - घिमिरे बोला - “सात नम्बर केबिन में ।”
“बुला के लाओ ।” - इन्स्पेक्टर हवलदार आदिनाथ से बोला ।
हवलदार आदिनाथ वहां से रुखसत हो गया ।
“वाल सेफ का बाहरी पल्ला खुला है ।” - पीछे इन्स्पेक्टर बोला - “लेकिन भीतर एक पल्ला और भी है जो बन्द है । बाहरी पल्ला तो उस पर लगे पुश बटन डायल से कन्ट्रोल होता जान पड़ता है, भीतर वाला कैसे खुलता है ?”
“जाहिर है कि चाबी लगा कर ।” - मुकेश बोला - “की होल साफ तो दिखाई दे रहा है ।”
“हां । मुझे भी दिखाई दे रहा है । ये सामान” - उसने साइड टेबल की तरफ इशारा किया - “जो मकतूल की जेबों में से निकला है, इसमें एक चाबियों का गुच्छा भी है । क्या इसकी कोई चाबी सेफ में लगती होगी ?”
“लगा के देखिये ।”
इन्स्पेक्टर ने उस काम को अंजाम दिया । एक चाबी से भीतरी पल्ला खुल गया । वो सेफ के भीतर झांकने लगा ।
“मुझे एक बात याद आयी है ।” - एकाएक मुकेश बोला ।
इन्स्पेक्टर ने घूम कर उसकी तरफ देखा ।
“आपने पूछा था कि इस सेफ से कौन कौन वाकिफ था । मेरे खयाल से सेफ से अनन्त महाडिक भी वाकिफ था ।”
“आपके खयाल से ? आप यकीनी तौर पर ये नहीं कह सकते कि अनन्त महाडिक को इस सेफ के वजूद का इल्म था ।”
“यकीनी तौर से तो नहीं कह सकता लेकिन हालात का इशारा ये ही कहता है कि महाडिक को सेफ की खबर होनी चाहिये ।”
“क्या हैं हालात ? और क्या है उनका इशारा ? बयान कीजिये ।”
“कल महाडिक एक और शख्स को साथ लेकर मिस्टर देवसरे से मिलने यहां आया था । उनमें कोई कारोबारी बात होनी थी इसलिये मैं यहां से उठ कर कॉटेज की अपने वाली साइड में चला गया था लेकिन वो लोग कभी कभार ऊंची आवाज में बोलने लगते थे तो कुछ औना पौना मुझे भी सुनायी दे जाता था । यूं जो कुछ मैं सुन पाया था उससे ये पता चलता था कि उनमें होती बातचीत का मुद्दा ब्लैक पर्ल क्लब था और ये मालूम हुआ था कि महाडिक क्लब का सोल प्रोप्राइटर नहीं था, उसमें मिस्टर देवसरे का भी हिस्सा था । बाद में मिस्टर देवसर ने मुझे बुला कर एक सेलडीड तैयार करने के लिये कहा था तो बात बिल्कुल ही कनफर्म हो गयी थी ।”
“कैसा सेलडीड ?”
“अस्सी लाख रुपये में ब्लैक पर्ल क्लब की सेल का डीड ।”
“खरीदार कौन था ?”
“सेलडीड में खरीदार का जिक्र नहीं था । मिस्टर देवसरे ने खरीदार का नाम दर्ज करने के लिये और सेल की तारीख के लिये जगह खाली छुड़वा दी थी । उनका कहना था कि जब उस सेलडीड को एक्जीक्यूट करने का, काम में लाने का, वक्त आयेगा तो खाली छोड़ी गयी उन दो जगहों को वो खुद भर लेंगे ।”
“हूं, फिर ।”
“फिर उन्होंने सेलडीड तो पढकर चौकस किया था और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“तब उनके मेहमान कहां थे ?”
“वो तो पहले ही चले गये थे । उनके चले जाने के बाद ही मिस्टर देवसरे ने मुझे तलब किया था ।”
“अगर ऐसा था तो फिर महाडिक को सीफ की खबर क्योंकर हुई होगी ?”
“मेरा अन्दाजा है कि उनके रुख्सत होने से पहले यहां कोई मानीटरी ट्रांजेक्शन हुई थी ।”
“मकतूल और महाडिक के बीच ?”
“मकतूल और महाडिक के साथ आये शख्स के बीच ।”
“जो कि क्लब का खरीदार था ?”
“हो सकता था ।”
“था कौन वो ?”
“मुझे नहीं मालूम । मैंने उस शख्स को पहले कभी नहीं देखा था ।”
“कोई बात नहीं । महाडिक से पूछेंगे । अब आप इस बात पर जरा और रोशनी डालिये कि क्यों आपको लगा था कि यहां कोई रुपये पैसे का लेन देन हुआ था ?”
“सेलडीड का ड्राफ्ट सेफ में रखते वक्त मिस्टर देवसरे ने एकाएक मेरे से सवाल किया कि क्या मैंने कभी हजार के नोटों की गड्डी हाथ में थाम कर देखी थी । मैंने इनकार किया था तो उन्होंने सेफ में से ऐसी एक गड्डी निकाली थी और मेरी हथेली पर रख दी थी । तब मैंने देखा था कि वो इस्तेमालशुदा नोटों की गड्डी थी जिसे कि फिर से स्टिच किया गया था और स्टिचिंग के ऊपर चढे रैपर पर किसी के नाम के प्राथमाक्षर अंकित थे ।”
“क्या थे प्रथमाक्षर ?”
“आर डी एन ।”
“जरूर किसी बैंक के किसी कैशियर के इनीशियल होंगे ।”
“बैंक में रीस्टिच की गयी गड्डी पर बैंक के नाम पते का छपा हुआ रैपर चढा होता है, उस गड्डी पर वैसा रैपर नहीं था । वो कोरे कागज से बना रैपर था ।”
“हूं । फिर क्या हुआ था ?”
“फिर क्या होना था ? वो मजाक की बात थी जो मजाक में खत्म हो गयी थी । मिस्टर देवसरे ने मेरे से गड्डी वापिस ली थी और उसे सेफ में रख दिया था ।”
“सेफ में तो ऐसी कोई गड्डी नहीं है ।”
“जी !”
“सेलडीड भी नहीं है ।”
“कमाल है ! कहां गयीं दोनों चीजें ? क्या कातिल ले गया ?”
“सेफ में सौ सौ के नोटों की चार गड्डियां और पड़ी हैं । कुछ पांच पांच सौ के लूज नोट भी पड़े हैं, उन्हें क्यों न ले गया ?”
मुकेश को जवाब न सूझा ।
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