RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
Chapter 2
रात के सन्नाटे में मुकेश ने जब वापिस अपने कॉटेज से बाहर कदम रखा तब दो बजने को थे ।
उस वक्त बाहर मुकम्मल सन्नाटा था और ऑफिस वाले कॉटेज के सामने के एक कमरे के अलावा कहीं कोई रोशनी नहीं थी ।
उसने कॉटेज की पार्किंग की तरफ निगाह दौड़ाई तो उसने पाया कि देवसरे की एस्टीम तब भी वहां नहीं थी ।
पुलिस के चले जाने के बाद भी दो बातें उसे बुरी तरह से खदकती रही थीं ।
उसे नींद क्यों आयी ?
एस्टीम कहां गयी ?
उसे लग रहा था कि जब तक उसकी वो उलझन दूर न हो जाती, उसे नींद नहीं आने वाली थी ।
रात की उस घड़ी भी उसने ब्लैक पर्ल क्लब का एक फेरा लगाने का निश्चय किया ।
स्तब्ध वातावरण में पैदल चलता वो क्लब पहुंचा ।
जहां उसकी एक उलझन तो फौरन दूर हो गयी ।
क्लब के सामने की पार्किंग में देवसरे की कार मौजूद थी । वो प्रवेशद्वार से बाहर दूर कम्पाउन्ड के परले सिरे पर खड़ी थी ।
उसने वाचमैन को बुलाया ।
“ये कार कब से यहां है ?” - उसने पूछा ।
“बहुत टेम से है, साहब ।” - वाचमैन बोला ।
“अरे, ठीक से जवाब दे । तह यहां थी जब मैं यहां से गया था ?”
“हां ।”
“तो बोला क्यों नहीं था ?”
“आपने पूछा कब था ?”
“मैंने पूछा नहीं था देवसरे साहब के बारे में जिनकी कि ये कार है ?”
“देवसरे साहब के बारे में पूछा था न ! कार के बारे में किधर पूछा था ?”
“तूने ये तो बोला था कि नहीं बोला था कि देवसरे साहब चले गये थे ?”
“हां ।”
“कैसे चले गये थे ?”
“वैसे ही जैसे हमेशा जाते थे । कार पर सवार होकर ।”
“अपनी कार पर - इस कार पर - सवार होकर ?”
“हां ।”
“खुद चलाते हुए ?”
“नहीं । कार सावन्त मैडम चला रही थीं ।”
“तू ये कहना चाहती है कि मीनू सावन्त देवसरे साहब की कार की ड्राइव करती उन्हें यहां से ले कर गयी थी ?”
“हां । मैडम साहब को रिजॉर्ट में छोड़ने गयी थीं लेकिन जब लौटी थीं तो दरवाजे के पास की वो जगह खाली नहीं थी जहां से उन्होंने कार उठाई थी, वहां कोई और कार आ खड़ी हुई थी, इसलिये उन्हें कार को यहां - जहां कि ये इस घड़ी खड़ी है - छोड़ना पड़ा था ।”
“ओह ! यार, तुझे बताना चाहिये था मुझे कि कार यहीं थी ।”
“साहब, आपने मुझे मौका कब दिया ? आप तो यूं यहां से निकले थे जैसे पीछे बम फटने वाला था ।”
“अच्छा अच्छा ।”
वो इमारत में दाखिल हुआ ।
उस वक्त बैंड बन्द था, बार भी बन्द लेकिन हॉल में कई टेबलों पर लोग मौजूद थे और पहले से मंगाये ड्रिंक्स और खानपान का आनन्द ले रहे थे ।
एक टेबल पर मीनू सावन्त और अनन्त महाडिक भी यूं सिर से जोड़े बैठे बतिया रहे थे जैसे दीन दुनिया की खबर न हो ।
वो कोने के उस बूथ पर पहुंचा जहां उसने अपने पिछले फेरे में हाजिरी भरी थी ।
जिस वेटर ने तब उन्हें सर्व किया था वो उसके करीब पहुंचा ।
“वापिस आ गये, साहब ?” - वो बोला ।
“हां ।”
“बार तो बन्द हो गया ।”
“कोई बात नहीं, किसी का भी ड्रिंक उठा ला ।”
“हीं हीं । साहब, ऐसे कौन उठाने देगा ।”
“इजाजत से नहीं, छीन के ला ।”
“मजाक कर रहे हैं, साहब ।”
“हां । ड्रिंक नहीं तो एक टार्च तो ला सकता है या वो भी नहीं ला सकता ?”
“टार्च ! टार्च क्या करेंगे ?”
“रोशनी पिऊंगा । अब हिल ।”
वेटर ने उसे टार्च ला के दी ।
“फूट ले ।” - मुकेश बोला - “टार्च अभी थोड़ी देर में यहां टेबल पर से उठा के ले जाना ।”
“साहब....”
“टिप के साथ ।”
“ओह ! शुक्रिया, साहब ।”
वो वहां से टल गया तो मुकेश सोफे पर पहुंचा । उसने टेबल को थोड़ा और सरकाया और फिर उसके नीचे उकडू हो गया । उसने टार्च जला ली और उसकी रोशनी नीचे कालीन बिछे फर्श पर फिरानी शुरू की ।
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