RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
“चलो हिस्सा नहीं, हिस्से के खाते में कोई एडवांस ही दिला दो । ये सोच के दिला दो कि पुलिस के नादिरशाही हुक्म की वजह से यहां से वापिस मैं जा नहीं सकता और यहां टिके रहने की सूरत में मुझे यहां का किराया भरने में प्राब्लम हो सकती है ।”
“मैं कहां से एडवांस दिला सकता हूं ? तुम्हें एडवांस दिलाने का मेरे पास कोई जरिया नहीं । अलबत्ता मैं घिमिरे को बोल कर ऐसा इन्तजाम कर दूंगा कि तुम्हारे यहां रुकने का बिल तुम्हारे प्रापर्टी में हिस्से के खिलाफ उधार मान लिया जाये ।”
“इतने से मेरा काम नहीं चलने वाला । कम से कम दस लाख की तो मुझे इमीजियेट जरूरत है ।”
“क्यों ?”
“एक टेली-सीरियल की प्रोडक्शन में मैंने पार्टनरशिप की है, चार पायलेट एपीसोड बनाने में बीस लाख रुपये लगने हैं जिनमें से दस मुझे लगाने होंगे ।”
“ये बात कल मिस्टर देवसरे को बोली होती ।”
“उन्होंने ऐसी नौबत ही नहीं आने दी थी । वो तो मेरे हिस्सा मांगने के जिक्र से ही भड़क उठे थे और मुझे मेरी जात दिखाने लग गये थे । फिर डांट के भगा दिया । गनीमत समझो कि पीट के न भगाया । तुम तो खुद गवाह हो बुजुर्गवार के हाथों मेरी दुरगत के ।”
मुकेश ने सहमति में सिर हिलाया ।
“तो फिर फाइनल जवाब क्या है तुम्हारा ?”
“फाइनल जवाब यही है कि रुपये पैसे के मामले में फौरन कुछ नहीं हो सकता ।”
“ठीक है ।”
सूरत पर गहरी नाउम्मीदी के भाव लिये वो रुखसत हुआ ।
***
मुकेश पार्किंग में पहुंचा ।
रिंकी की लाल रंग की मारुति-800 कार पार्किंग में मौजूद नहीं थी ।
वो ‘सत्कार’ में रश का टाइम शुरू होने की घड़ी थी, उस घड़ी रिंकी अमूमन वहां से कभी गैरहाजिर नहीं होती थी; आखिर वो वहां की मैनेजर थी, मैनेज करना होता था उसने रेस्टोरेंट को ।
वो रेस्टोरेंट में दाखिल हुआ ।
उसने हॉल में और पिछवाड़े शीशे की खिड़की वाले ऑफिस तक निगाह दौड़ाई और फिर कैशियर के पास पहुंचा ।
“रिंकी नहीं दिखाई दे रही ।” - उसने पूछा ।
“आज मैडम ने छुट्टी मारी है ।” - जवाब मिला ।
“अच्छा !”
“हां । जयगढ में मैडम की एक सहेली है, उसी के पास गयी हैं । पिक्चर का प्रोग्राम बताती थी । रात को ही लौटेंगी ।”
“आई सी ।”
वो बाहर निकला, उसने पार्किंग से देवसरे की एस्टीम उठाई और शहर पहुंचा ।
मामूली पूछताछ से उसे मालूम हो गया था कि उस इलाके का बड़ा और पुराना प्रापर्टी डीलर कौन था । उसका नाम दशरथ गोरे था और कम्यूनिटी सेंसर के परिसर में उसका फैंसी ऑफिस था जिस पर फेयरडील प्रापर्टीज का फैंसी बोर्ड लगा हुआ था ।
गोरे स्याह काली रंगत से जरा ही कम काली सूरत वाला, जैली की तरह हिलती तोंद वाला, मोटा थुलथुल आदमी निकला जो कि कमाल था कि अपने ऑफिस की एक ही कुर्सी में समाया हुआ था ।
उसने प्रेमभाव से उसे कुर्सी पेश की और पैप्सी से नवाजा । यानी कि वैसी आवभगत की जैसी मुर्गी की की जाती है ।
मुकेश ने उसे अपना नाम बताया ।
“वैलकम, मिस्टर माथुर ।” - वो बत्तीसी चमकाता बोला - “कहिये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?”
“आप रीयल एस्टेट के बारे में मुझे गाइड कर सकते हैं ।”
“क्या खरीदना चाहते हैं ? फ्लैट ? कोठी ? बंगला ?”
“जो मैं खरीदना चाहता हूं, उसमें कोई फेयरडील आप सुझा सकें तो फ्लैट, कोठी, बंगले की मुझे जरूरत नहीं पड़ेगी ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं औरंगाबाद से हूं । उधर हमारा होटल का फैमिली बिजनेस है । मैं मुम्बई में वकालत करता हूं लेकिन वकालत से भी उकताया हुआ हूं और उतने बड़े शहर की हाहाकारी जिन्दगी से भी उकताया हुआ हूं । मैं कदरन खामोश जगह में सैटल होना चाहता हूं और छोटा मोटा होटल या रिजॉर्ट बिना अपनी फैमिली की दख्लअन्दाजी से चलाना चाहता हूं ।”
“मिस्टर माथुर, जो कुछ आप चाहते हैं, इधर सब आपको हासिल हो सकता है । आप इधर हैं तो नोट किया ही होगा कि कितनी शान्ति है यहां । यहां के खूबसूरत बीचों और प्राचीन किलों और धर्म स्थानों की वजह से टूरिस्ट बिजनेस की भी इधर कोई कमी नहीं । लिहाजा मैं यही कह सकता हूं कि अपने मिशन के तहत आप एकदम सही जगह पर पहुंचे हैं ।”
“हौसलाअफजाई का शुक्रिया । अब ये बताइये कि आपकी निगाह में इधर या आसपास कोई छोटा सा, मॉडेस्ट सा, होटल या टूरिस्ट रिजॉर्ट है जो बिकाऊ हो ?”
“थी तो सही ऐन ऐसी एक प्रापर्टी....”
“थी ! अब नहीं है ?”
“मालिक के मिजाज की बात है । चार महीने से मधुकर बहार ने मेरे को बोल के रखा हुआ था कि वो अपनी प्रापर्टी बेचना चाहता था और चार महीने से मेरे को उसके लिये कोई ग्राहक नहीं लग रहा था । अब आज ही उसने मेरे को बोला कि मैं ग्राहक तलाशना बन्द कर दूं तो आप आ गये ।”
“ऐसा बोलने की वजह ?”
“मैंने पूछी नहीं । मेरा इतना बिजनेस है । एक प्रापर्टी मेरे जरिये बिकी या न बिकी, मुझे क्या फर्क पड़ता है !”
“वैसे वजह क्या रही होगी ?”
“कोई खरीदार खुद ही पहुंच गया होगा, उससे बयाना पकड़ लिया होगा । और क्या वजह हो सकती है !”
“यानी कि बेचने का उसका इरादा नहीं बदला होगा ?”
“कहां बदला होगा ! चार महीने से रोज ऐसे ही तो नहीं पूछता था कि ग्राहक लगा कि नहीं लगा । कहां बदला होगा !”
“आप मुझे वो प्रापर्टी दिखा सकते हैं ?”
“अगर मधुकर ने बयाना पकड़ लिया हुआ होगा तो अब प्रापर्टी देखने से क्या फायदा ?”
“फिर...”
“आप ऐसा कीजिये, आप खुद वहां चले जाइये । आपको प्रापर्टी पसन्द आ जाये और बयाने की बाबत मेरी बात गलत निकले तो यहां आ जाइयेगा मैं सौदा करा दूंगा ।”
“ठीक है ।”
“वहां बात न बने तो भी यहां आइयेगा, मैं आपको आपकी पसन्द की कोई और प्रापर्टी दिखाने की कोशिश करूंगा ।”
“ठीक है । अब बताइये मुझे कहां जाना है और कैसे जाना है ?”
“आप जयगढ वाली सड़क पकड़िये । उस पर सी साइड करके एक टूरिस्ट रिजॉर्ट है जो कि काफी मशहूर है, और जिस तक आप बिना किसी से रास्ता पूछे भी पहुंच जायेंगे । उससे थोड़ा ही आगे मधुकर बहार की प्रापर्टी है जो कि बहार विला कहलाती है ।”
“बहार विला ।”
***
बहार विला उजड़ा चमन निकला । वो एक बहुत बड़े कम्पाउन्ड में बनी अंग्रेजों के वक्त की दोमंजिला इमारत थी । बल्कि एक ढंकी राहदारी के दायें बायें बनी दो इमारतें थीं जो सामने एक बहुत बड़ा बड़ का पेड़ उगा होने की वजह से फासले से एक जान पड़ती थीं । इमारत तक जो लम्बा ड्राइव वे पहुंचता था उसके दोनों तरफ झाड़झंखाड़ और जंगली घास को बोलबाला था । ड्राइव वे के सिरे पर दोनों इमारतों से अलग एक लकड़ी का केबिन था जिसके शीशे के दरवाजे पर ऑफिस लिखा हुआ था । क्या दीवारें, क्या दरवाजे सब रंगरोगन के मोहताज जान पड़ते थे ।
दरवाजा ठेल कर वो ऑफिस में दाखिल हुआ तो उसकी अपेक्षा के विपरीत भीतर से वो अच्छी हालत में निकला । काउन्टर के पीछे एक आदमी बैठा कोई फिल्मी पत्रिका पढ रहा था । वो उम्र में साठ के पेटे में जान पड़ता था । और उसके चेहरे पर दो तीन दिन की दाढी थी । उसे देख कर उसने पत्रिका एक ओर डाली और कुर्सी पर सीधा हुआ ।
“कमरा चाहिये ?” - वो आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“नहीं ।” - मुकेश बोला ।
इनकार सुनते ही उसका चेहरा लटक गया ।
“मेरा नाम माथुर है । मुझे मालूम हुआ है कि ये जगह बिकाऊ है । इसी बाबत मैं मधुकर बहार से मिलने आया था ।”
“अब तो नहीं है बिकाऊ लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“है भी ।”
“क्या मतलब ?”
“कहीं सेल की बातचीत चली रही है इसलिये बिकाऊ नहीं है, बातचीत अभी फाइनल नहीं हुई इसलिये है भी ।”
“आई सी ।”
“खरीदार कौन है ? क्या तुम खुद हो ?”
“यही समझ लीजिये ।”
“होटल, बिजनेस का कोई तजुर्बा है ?”
“नहीं ।”
“फिर कैसे बीतेगी ?”
“बीत जाइयेगी । अब जरा मालिक से मुलाकात हो जाये तो...”
“हो रही है । मैं हूं मालिक । मेरा ही नाम मधुकर बहार है ।”
“ओह ।”
“तुम नौजवान हो, नातजुर्बेकार हो ऐसा अपनी जुबानी कुबूल करते हो इसलिये मेरी सलाह है कि इस धन्धे से दूर ही रहो । बहुत टेढा काम है ये ।”
“ये मैं उस शख्स की जुबानी सुन रहा हूं जो कि इसे बेचना चाहता है ?”
“है न हैरानी की बात ! लेकिन सीधे सादे भीड़ को गुमराह करने को मेरा मन नहीं मानता । तुम्हारी जगह कोई उम्रदराज, दुनियादार, श्याना यहां पहुंचा होता तो इसे बेहतरीन सौदा साबित करने की कोशिश में मैं एक की आठ लगाता ।”
“मैं आपकी साफगोई की कद्र करता हूं लेकिन जनाब, मैं नादान हूं, मेरा पार्टनर नादान नहीं है ।”
“अच्छा ! तो ये पार्टनरशिप डील है ?”
“जी हां ।”
“पार्टनर सच में काबिल और होशियार है या ऐसा जाहिर करके तुम्हें मुर्गी बना रहा है ?”
“अब क्या बोलूं !... बाई दि वे, आप बेच क्यों रहे हैं ?”
“मैं पैंसठ साल का हूं । पिछले साल बीवी मर गयी । दो लड़के हैं, दोनों कैनेडा में सैटल्ड हैं और लौट के आने का कोई इरादा नहीं रखते । मेरे से अब और जानमारी नहीं होती । यहां का हाल बेहाल इसलिये है क्योंकि रेनोवेशन दो लाख का खर्चा मांगती है जो मैं करना नहीं चाहता । पंचमढी में मैंने एक छोटा सा बंगला देखा है जो कि इस जगह की आधी कीमत में मुझे मिल जायेगा । अपनी बाकी की जिन्दगी मैं वहां गुजारना चाहता हूं इसलिये इसी हालत में इसे जैसे तैसे बेच देना चाहता हूं ।”
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