RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
“क्या कीमत चाहते हैं ?”
“पैंतीस चाहता था लेकिन जिससे बात फाइनल होने की उम्मीद है उसे अट्ठाइस में मान गया हूं । वो तजुर्बेकार आदमी है और रिजॉर्ट चलाने का हर गुण, हर पैंतरा पहले से समझता है । अट्ठाइस मुझे देगा, दो ऊपर से लगायेगा तो ये जगह जगमग जगमग हो जायेगी ।”
“तीस लाख में ?”
“हां । ठीक से चला ले गया तो तीन साल से भी कम में कास्ट कवर कर लेगा ।”
“घिमिरे ?”
“क्या ?”
“घिमिरे ? माधव घिमिरे है वो खरीदार जिससे आपकी बातचीत चल रही है ?”
“हां ।”
“जो कि इस वक्त कोकोनट ग्रोव का मैनेजर है ?”
“हां । कैसे जानते हो ?”
“सुना किसी से । शायद फेयरडील प्रापर्टीज वाले दशरथ गोरे से । ठीक से ध्यान नहीं ।”
“हूं ।”
“कब से बातचीत चल रही है घिमिरे से ?”
“काफी अरसे से चल रही है । दो महीने तो हो ही गये समझो । पिछले हफ्ते आया था तो फाइनल भावताव भी कर गया था । लेकिन कोई बयाना नहीं दे गया था । इसीलिये मैंने कहा था कि जगह बिकाऊ थी भी और नहीं भी थी लेकिन फिर उसका फोन आया और उसने पचास हजार के बयाने के बदले में तीन महीने का टाइम लेने की बात पक्की कर ली ।”
“कब फोन आया ?”
“कल रात । सोते से जगाया उसकी टेलीफोन कॉल ने मुझे । बहुत खफा हुआ मैं । खास पूछा - क्यों भई, सुबह होने का इन्तजार नहीं कर सकता था ! माफी मांगने लगा लेकिन साथ ही बोला कि कई बार थोड़ी सी भी देर करने पर ऐसे डील बिगड़ जाते थे । बहरहाल रात को तीन महीने का टाइम और पचार हजार के बयाने पर बात फाइनल हो गयी ।”
“आई सी ।”
“आज सुबह फिर फोन आया कि वो कूरियर के जरिये पचास हजार का चैक भेज रहा था जो कि शाम तक मुझे मिल जायेगा । बाकी लिखत पढत वो एक दो दिन बाद आ के कर लेगा । अब शाम तक मुझे चैक मिल गया तो ठीक वरना कल आकर तुम बात कर लेना ।”
“कोई फायदा होगा मेरे लौट के आने का ?”
“लगता तो नहीं । क्योंकि घिमिरे बहुत संजीदा था डील के और बयाने का अदायगी के बारे में ।”
“फिर क्या फायदा ?”
“मेरा मतलब था चाहो तो एक फेरा लगा देखना ।”
“ठीक है ।”
***
उसका अगला पड़ाव हर्णेई था जहां कि दिनेश पारेख पाया जाता था ।
काफी पूछताछ के बाद वो उसके ठिकाने पर पहुंचा जो कि एक मैन मेड आइलैंड पर बसा जान पड़ता था । उस आइलैंड पर वैसी ही एक विशाल इमारत और थी और दोनों के बीच में पत्थर की एक ऊंची दीवार का पर्दा था । पारेख के ड्राइव वे के दहाने पर एक लोहे का फाटक था । फाटक खुला था लेकिन जो भी वाहन फाटक से भीतर दाखिल होता था उसे जमीन में फिक्स एक लोहे की चादर पर से गुजरना पड़ता था जिसका मकसद वो बाखूबी समझता था । इमारत वहां से बहुत दूर थी और राहदारी यूं पेड़ों सं ढंकी हुई थी कि फाटक से इमारत दिखाई नहीं देती थी । उस चादर पर वजन पड़ते ही इमारत के भीतर घन्टी बजती थी जो इस बात का ऐलान होती थी कि कोई आ रहा था ।
कोई एक फरलांग कार चला चुकने के बाद उसे इमारत दिखाई दी । इमारत का रुख समुद्र की तरफ था और उसके सामने उसका प्राइवेट पायर था जिस पर एक विशाल मोटरबोट लगी खड़ी दिखाई दे रही थी । इमारत के पहलू में एक विशाल गैराज था जिसमें आजू बाजू चार कारें खड़ी हो सकती थीं, दो तब भी खड़ी थीं जिनमें से एक सलेटी रंग की फोर्ड आइकान थी ।
फोर्ड आइकान ! सलेटी रंग की !
जैसी उसने पिछली रात रिजॉर्ट के परिसर से रुखसत होती देखी थी ।
क्या वो वही कार थी - उसके मन में सवाल उठा - या उस जैसी कोई कार थी !
कहना मुहाल था ।
फाटक से वहां तक सिग्नल पहुंचता था, उस बात का सबूत फौरन सामने आ गया ।
इमारत की सीढियों पर एक सूटधारी व्यक्ति, जो कि सूरत से कोई मवाली जान पड़ता था, साफ लगता था कि उसी के इन्तजार में वहां खड़ा था ।
कार रुकते ही वो ड्राइविंग साइड की खिड़की के करीब पहुंचा और बड़े असहिष्णुतापूर्ण भाव से उसे घूरने लगा ।
“मिस्टर पारेख से मिलना है ।” - उसके पूछने से पहले ही मुकेश बोला ।
“आप कौन हैं ?”
“मुकेश माथुर नाम है मेरा ।”
“पारेख साहब आपको जानते हैं ?”
“अब जान जायेंगे ।”
“साहब अनजान लोगों से नहीं मिलते ।”
“पहली बार हर कोई अनजान होता है । तुम्हारा साहब हमेशा इस रूल पर अमल करता होता तो आज तक किसी से भी न मिला होता । तनहा जिन्दगी तनहा गुजार रहा होता ।”
“मेरी समझ में नहीं आ रही आपकी बात ।”
“मुझे दिखाई दे रहा है । जितनी समझ है उतना ही तो काम करेगी । जा के अपने साहब को बोलो कि ब्लैक पर्ल क्लब का नया मालिक मिलने आया है ।”
ब्लैक पर्ल के जिक्र का उस पर कुछ असर होता लगा । वो कुछ क्षण अनिश्चित सा उसे घूरता रहा फिर घूमा और वापिस सीढियां चढ गया ।
मुकेश कार से निकला और दायें बायें चहलकदमी करने लगा ।
दो मिनट बाद वो शख्स वापिस लौटा ।
“आइये ।” - वो बोला ।
मुकेश सीढियां चढकर उसके करीब पहुंचा और फिर उसके पीछे हो लिया ।
इमारत के भीतर जहां उसके कदम पड़े वो एक छोटे मोटे हॉल जितना बड़ा ड्राईगरूम था जहां कि तीन निहायत सजावटी युवतियां और तीन मर्द बैठे हुए थे । सब के सामने या हाथों में ड्रिंक्स के गिलास थे ।
उसे देख कर सिल्क के कुर्ते पाजामे से सुसज्जित एक व्यक्ति अपने स्थान से उठा । बाकी लोगों के मुकाबले में उसकी पोशाक ही बता रही थी कि वो ही मेजबान था । उन्हें देखकर उसने अपना गिलास मेज पर रख दिया और उठकर उनकी ओर बढा ।
सूरत से वो मुकेश को बड़ा सुन्दर सजीला और तहजीब वाला आदमी लगा ।
लेकिन सूरत से क्या पता लगता था !
वो करीब पहुंचा, उसने सिर से पांव तक मुकेश का मुआयना किया और फिर बोला - “मैं हूं दिनेश पारेख ।”
मुकेश ने उसका अभिवादन किया ।
“रामदेव को तुमने अपना नाम मुकेश माथुर बताया था ?”
“हां ।”
“और बोला था कि तुम ब्लैक पर्ल के मालिक हो ?”
“हां ।”
“उसका मालिक तो बालाजी देवसरे है !”
“था ।”
“क्या मतलब ?”
मुकेश ने रामदवे की तरफ देखा । उसका मन्तव्य समझ कर पारेख ने रामदेव को इशारा किया । तत्काल रामदेव वहां से टल गया ।
“कल रात मिस्टर देवसरे का कत्ल हो गया है ।” - मुकेश बोला ।
“मालूम पड़ा है मुझे ।” - पारेख बोला ।
“कैसे ? अखबार पढ कर ?”
“मैं अखबार नहीं पड़ता । गणपतिपुले से एक पुलिस वाला यहां आया था । शायद अठवले नाम था ।”
“सदा अठवले ! इन्स्पेक्टर !”
“हां । वही । अभी एक घंटा पहले ही यहां से गया है । उसी ने बताया था तो पता चला था कि कल रात देवसरे के साथ क्या बीती थी ! अच्छा आदमी था देवसरे । मेरा पुराना वाकिफ था । बेटी के साथ हुई ट्रेजेडी ने तोड़ दिया बेचारे को ।” - उसने अवसादपूर्ण भाव से सिर हिलाया - “तुम कैसे बन गये क्लब के मालिक ?”
“मिस्टर देवसरे ही बना गये । वसीयत कर गये मेरे नाम ।”
उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“कोई रिश्ता ?” - उसने पूछा ।
“नहीं ।”
“तो पुराने दोस्त हो ?”
“नहीं ।”
“तो फिर क्या उसका दिमाग हिल गया था मौत से पहले ?”
“ऐसी कोई बात नहीं थी । उन्होंने ऐसा क्यों किया ये तफ्तीश का मुद्दा है लेकिन किया, ये हकीकत है जिसको नकारना आसान न होगा ।”
“यहां कौन नकारना चाहता है ! हमारी तरफ से देवसरे अपना माल काले चोर को दे या कुयें में डाले, हमें क्या वान्दा है । अब बोलो, कैसे आये ?”
“आप क्लब खरीदना चाहते थे ।”
“कौन कहता है ?”
“परसों आप अनन्त महाडिक के साथ इस बाबत मिस्टर देवसरे से बात करने गये थे ।”
वो कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “चाहता तो था मैं वो क्लब खरीदना लेकिन... लड़कियां कैसी हैं ?”
“जी !”
“तीनों । एक से एक बढ के हैं न !”
“जी हां । हैं तो सही । लेकिन आप मेरे से क्यों पूछ रहे हैं ?”
“अभी हम समुद्र की सैर पर बस निकलने ही वाले थे । चाहो तो तुम भी साथ चलो । मजा आ जायेगा ।”
“अकेले को क्या मजा आ जायेगा ?”
“अकेले ! ओह, मैं समझा । तीन जमा तीन की वजह से अकेला कह रहे हो अपने आपको ! लेकिन कोई वान्दा नहीं । मैं दस मिनट में ऐसी ही एक और यहां बुला सकता हूं । बुलाऊं ?”
“नो सर ।”
“मजा आ जायेगा ।”
“मैं इतने मजे का आदी नहीं ।”
“मर्जी तुम्हारी । तुम्हें पीछे झांकता देख कर मैं शायद गलत समझ रहा था कि तुम्हारी लार टपक रही थी ।”
“टपक सकती थी । मुश्किल से काबू में की ।”
“टपक सकती थी । हा हा । फिर तो फिर टपक सकती है इसलिये चलो कहीं और चल के बात करते हैं ।”
“यस, सर दैट विल बी बैस्ट ।”
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