RE: Mastaram Kahani कत्ल की पहेली
“ओह, नो ।”
“क्यों ?”
“साया हथियारबन्द हो सकता है । मुझे गोली मार सकता है ।”
“मरने से डरते हो ?”
“हां ।”
“सयाने आदमी हो । तरक्की करोगे ।”
“वो कुएं के करीब पहुंच गया ।”
“लबादे में से कुछ निकाल रहा है ।”
“क्या ?”
“पता नहीं । लेकिन आकार में कोई खासी बड़ी चीज मालूम होती है ।”
“फेंक दी । कुएं में फेंक दी ।”
साया वापिस घूमा और जिस रास्ते आया था, उसी रास्ते लौट चला ।
“कौन है ?” ¬ राज बोला ¬ “क्या फेंका कुएं में ? बाई गॉड, मेरे से सस्पेंश बर्दाश्त नहीं हो रहा ।”
“मेरे से भी ।”
“इसके निगाह से ओझल होते ही मैं जाकर कुएं में उतरूंगा और...”
“पागल हुए हो ! आधी रात को उस अन्धे कुएं में उतरोगे । वहां सांप हो सकते हैं ।”
“सांप !” ¬ राज के शरीर ने प्रत्यक्ष जोर की झुरझुरी ली ।
“और क्या पाताल लोक की परियां ?”
“यानी कि दिन में...”
“नहीं, दिन में भी नहीं । सांपों का खतरा तो तब भी बरकरार होगा, ऊपर से किसी ने देख लिया तो क्या जवाब दोगे ? क्यों उतर रहे ते तो उस कुएं में ?”
“तो ? तो ?”
“ये हमारे करने का काम नहीं ।”
“तो किसके करने का काम है ?”
“पुलिस के । हमें फौरन पुलिस को खबर करनी चाहिये ।”
“फौरन ?”
“या नहीं करनी चाहिये । हमने ये बात पुलिस को बाद में बताई, बात उन्हें इम्पोर्टेन्ट लगी तो पहला सवाल यही होगा कि हम फौरन पुलिस के पास क्यों न पहुंचे !”
“ओह !”
“मेरी राय मानो तो समझदारी खामोश रहने में ही है । हम एक बात स्थापित करना चाहते थे जो कि स्थापित हो गयी है । सतीश दिन में कुआं-कुआं इसीलिये भज रहा था क्योंकि कुएं का वो अपने लिये कोई इस्तेमाल सोचे हुए था । और उस इस्तेमाल को उसने अंजाम दे लिया है ।”
“वो...वो साया सतीश तो नहीं था ।”
“सतीश का कोई एजेन्ट था । उसकी कोई बुलबुल थी ।”
“मेरा दिल गवाही नहीं देता कि किसी नाजायज काम में सतीश ने अपनी किसी बुलबुल को अपना राजदार बनाया होगा ।”
“और क्या किसी नौकर चाकर पर एतबार करता ? खुद तो वो आया नहीं ।”
“क्या पता आया हो ! क्या पता वो साया सतीश ही हो ।”
“नामुमकिन । मैं अपनी किसी फैलो बुलबुल की चाल न पहचानूं, ये नहीं हो सकता ।”
“यानी कि तुम्हारी गारंन्टी है कि वो साया ज्योति, शशिबाला, फौजिया, आलोका और आयशा में से कोई था ?”
“हां ।”
“उसने चोरों की तरह यहां आकर सतीश का दिया कोई सामान सामने उस कुएं में फेंका ?”
“हां ।”
“ऐसा क्या सामान हो सकता हो है जिसकी अपने मैंशन से बरामदी सतीश अफोर्ड नहीं कर सकता ?”
“मालूम पड़ जायेगा । वो सामान कुएं में से कहीं गायब नहीं हो सकता । हम अभी पुलिस के पास चलते हैं । वो सामान बरामद कर लेंगे तो पता चल जायेगा कि...”
“हम नहीं ।”
“हम नहीं, क्या मतलब ?”
“पुलिस के पास तुम्हारे जाने की जरूरत नहीं ।”
“ओह, नो ।”
“ओह, यस । पुलिस वाले तुम्हें भी सस्पैक्ट मानते हैं । खामखाह उनकी निगाहों में आने का क्या फायदा ! खामखाह पंगा लेने का क्या फायदा !”
“ओह !” ¬ वो एक क्षण ठिठकी और बोली ¬ “तुम उन्हें ये भी बताओगे कि सतीश की कुएं की बाबत कहीं बातें शक पैदा करने वाली लगी थीं इसीलिये रात को तुम उसी के इन्तजार में यहां छुपे बैठे थे ?”
“हरगिज भी नहीं । मैं तो ये कहूंगा कि मैंने इत्तफाक से अपने बैडरूम की खिड़की से बाहर झांका था तो काला लबादा ओढे एक साये को कुएं की ओर बढते देखा था जिसने कि मेरी आंखों के सामने कुएं में कुछ फेंका था ।”
“हां, ये ठीक रहेगा ।”
“आओ, चलें अब ।”
दोनों एक-दूसरे के बगलगीर हुए वापिस मैंशन की ओर बढे ।
वो मैंशन के करीब पहुंचे ।
“अब तुम” ¬ राज बोला ¬ “चुपचाप अपने कमरे में जाओ और मैं...”
“टयोटा !” ¬ डॉली के मुंह से निकला ।
“सफेद टयोटा ! कौशल निगम की कार ! जिस पर कि वो यहां पहुंचा था !”
“क्या हुआ उसे ?”
“जब हम यहां से निकले थे तो वहां सामने खड़ी थी । अब नहीं है ।”
“तो क्या हुआ ? गैरेज में होगी ।”
“ओह !”
“तुम चलो अब । मैं चौकी हो के आता हूं ।”
डॉली सहमति में सिर हिलाती इमारत में दाखिल हो गयी ।
राज गैरेज में पहुंचा ।
सफेद टयोटा वहां नहीं थी ।
***
दोनों पुलिस अधिकारियों ने बड़े गौर से राज की बात सुनी ।
“आप इतनी रात गये तक जाग रहे थे ?” - फिर सब-इंस्पेक्टर फिगुएरा बोला ।
“जाहिर है ।”
“आपने ये जानने की कोशिश न की कि वो शख्स कौन था ?”
“जनाब, मैंने बोला न कि वो काला लबादा ओढे था ।”
“लेकिन लौटकर तो इमारत में ही आया होगा ।”
“वो इमारत के करीब तक आया था, उसके बाद वो किधर गया था, मुझे नहीं मालूम । मेरा मतलब है कि मेरी खिड़की की ऐसी पोजीशन नहीं थी कि मैं उसे इमारत में दाखिल होता देख पाता ।”
“आपको मालूम करने की कोशिश करनी चाहिये थी कि मेजबान या मेहमानों में से कौन उस घड़ी इमारत से गैर-हाजिर था ।”
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