RE: Mastaram Kahani कत्ल की पहेली
“उसे तुम्हारी, अपने किसी पुराने परिचित की, मदद की जरूरत हो सकती थी ।”
“ये बात आयी थी मेरे जेहन में लेकिन इससे पहले कि उस बाबत कोई कदम उठाने कि हिम्मत मैं अपने आप में जुटा पाता, वो उठ के चल दी थी ।”
“उठके चल दी थी ?” - राज बोला ।
“एक आदमी के साथ । एक ऐसे आदमी के साथ जिसे पायल ने - आई रिपीट, पायल ने - पटाया था ।”
“क्यों ? पट नहीं रहा था वो ?”
“यही बात थी । बहुत मुश्किल से पटा था वो ?”
“किस काम के लिये ?”
“अब ये भी मेरे से ही कहलवाओगे ?”
“हे भगवान !” - शशिबाला के नेत्र फट पड़े - “इतना गिर चुकी थी वो !”
“शी वाज सालिसिटिंग !” - सतीश भी वैसे ही हौलनाक स्वर में बोला ।
“यस । और वो कॉफी हाउस उसका ठीया मालूम होता था ।”
“तौबा !” - फौजिया कानों पर हाथ रखती हुई बोली - “तौबा ।”
“मैं चुपचाप उन दोनों के पीछे गया ।” - बालपाण्डे बोला - “करीब ही एक घटिया सा होटल था जिसमें उन दोनों के दाखिल होने से पहले मैंने सड़क पर उस आदमी को पायल को रुपये देते देखा था ।”
“तौबा !”
“मुझे खुद अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । लेकिन जो कुछ मुझे दिखाई दे रहा था, उसे मैं कैसे झुठला सकता था ।”
“फिर ?” - सतीश बोला - फिर ?”
“फिर मैं वापिस उस कॉपी हाउस में लौटा । वहां मैंने एक वेटर से उसकी बाबत सवालात किये तो इस बात की तसदीक हो गयी कि जो मैंने उसे समझा था, वो ऐन वही थी । वेटर ने उसे ‘बेचारी, मजबूर लड़की’ बताया जिसके पास अपना जिस्म बेचकर पेट भरने के अलावा कोई चारा नहीं था ।”
“क्यों चारा नहीं था ?” - राज ने प्रतिवाद किया - “उसने अच्छे दिन देखे थे, उसकी अच्छी वाकफियत थीं, वो किसी के पास मदद मांगने आ सकती थी । वो तुम लोगों में से किसी के पास आ सकती थी । वो आती तो क्या तुम लोग उसकी कोई मदद न करते ? क्या उसकी फैलो बुलबुलें भी उसकी दुश्वारी की दास्तान सुनकर न पसीजतीं ? ऐसा क्योंकर हुआ कि वो तुममें से किसी के पास न आयी ?”
“आई थी ।” - फौजिया एकाएक बोली - “मेरे पास आयी थी ।”
सबकी निगाहें उसकी तरफ उठीं ।
“क्यों आयी थी ?” - राज ने पूछा - “माली इमदाद के लिये ?”
“हां । ऐन इसीलिये ।”
“तुमने की कोई मदद उसकी ?”
“हां । मैंने उसे दस हजार रुपये दिये थे । इत्तफाक से इतने ही रुपयों की गुंजायश थी तब मेरे पास । मेरे पास और पैसा होता तो मैं जरूर उसे और पैसा देती ।”
“ये कब की बात है ?”
“नौ जून की । मुझे आज तक तारीख याद है । इसलिये याद है क्योंकि वो ईद का दिन था । तब मुझे लगा था कि मदद मांगने मेरे पास आने के लिये उसने जानबूझ कर वो दिन चुना था । जरूर उसने सोचा होगा कि ऐसे मुबारक दिन मैं उसकी मदद करने से इनकार नहीं करूंगी ।”
“ओह ! तो पिछली जून को जब तुम्हारी पायल से मुलाकात हुई थी तो वो...”
“पिछली जून को नहीं, भई, सन 1988 की जून को ।”
“तब तो ये” - सतीश बोला - “श्याम नाडकर्णी की मौत के कुछ ही महीने बाद की बात हुई ?”
“हां ।” - फौजिया बोली - “सिर्फ दो महीने बाद की ।”
“अपने धनवान पति की मौत के सिर्फ दो महीने बाद उसकी माली हालत ऐसी थी कि वो तुम से दस हजार रुपये उधार पहुंच गयी थी ।”
“दस हजार नहीं, दो लाख । वो मेरे से दो लाख रुपये मांग रही थी । दो लाख रुपये उधार मांगने आयी थी वो ।”
“उसे दो लाख रुपये की जरूरत थी ?”
“बहुत सख्त जरूरत थी । रो रही थी उस रकम के लिये । इसी बात से तो पिघलकर मैंने उसे दस हजार रुपये दिये । ज्यादा होते तो ज्यादा भी दे देती उस घड़ी । लेकिन मेरे पास थे ही इतने ।”
“दस हजार तो दो लाख की रकम का बहुत छोटा हिस्सा हुआ ।” - राज बोला - “तब हो सकता है मदद के लिये जैसे वो तुम्हारे पास आयी थी, वैसे वो किसी और के पास भी गयी हो । किसी बुलबुल के पास या बुलबुलों के” - उसने सतीश की तरफ देखा - “कद्रदान, मेहरबान सरपरस्त के पास ?”
सबने सतीश की तरफ देखा ?
“गर्मियों में” - सतीश विचलित भाव से बोला - “या मानसून में मैं यहां नहीं होता ।”
“न होने की” - राज बोला - “कोई कसम तो नहीं खायी हुई होगी आपने ।”
“नहीं । कसम नहीं खायी हूई । सच पूछो तो सन अट्ठासी में मैं एक हफ्ते के लिये यहां आया था ।”
“और उसी एक हफ्ते में पायल आप के पास पहुंची थी ?”
“हां । मई एण्ड में ।”
“डैडियो” - ज्योति बोली - “आज तक न बताया ? जिक्र तक न लाये जुबान पर ।”
“मैं पायल की छवि खराब नहीं करना चाहता था । मैं इस बात का जिक्र जुबान पर नहीं लाना चाहता था कि पायल मेरे पास पैसे मांगने आयी ।”
“पैसे मांगे थे उसने आप से ?” - राज बोला ।
“हां । और आयी किसलिये थी ?”
“आपने दिये थे ?”
“नहीं ।”
सब चौंके और हैरानी से सतीश की तरफ देखने लगे ।
“नहीं ?” - ज्योति बोली - “यकीन नहीं आता । तुमने पायल की मदद न की ! महान सतीश से पायल को इनकार सुनना पड़ा ! यानी कि तुम ने उस से फौजिया जितनी भी हमदर्दी न दिखाई ! मेरे जितनी भी हमदर्दी न दिखाई !”
“वो” - राज तत्काल बोला - “आप के पास भी आयी थी ?”
“हां । मई एण्ड में ही । जरूर सतीश से नाउम्मीद होने का बाद ही आयी होगी ।”
“आपने मदद की थी उसकी ?”
“हां । पच्चीस हजार रुपये दिये थे । फौजिया की तरह मेरे पास भी ज्यादा की गुंजायश नहीं थी । होती तो ज्यादा भी जरूर देती ।”
“यानी कि मांग उसकी बड़ी थी ?”
“हां । दो लाख की ।”
“उसने आप को बताया था कि उसे एकमुश्त इतने पैसे की जरूरत क्यों थी ?”
“नहीं ।”
“मिस्टर सतीश, आपको भी नहीं बताया था ?”
“नहीं बताया था ।” - सतीश उखड़े स्वर में बोला - “यही बात तो मुझे नागवार गुजरी थी जिसकी वजह से मैंने उसकी मदद से इनकार किया था । जब उसे मेरे पर भरोसा नहीं था तो उसे नहीं आना चाहिये था मेरे पास । वो कुछ बताती तो मुझे यकीन आता न कि वो सच में जरूरतमन्द थी ।”
“ओह ! तो आप चाहते थे कि वो हाथ में कटोरा लेकर मंगती की तरह गिड़गिड़ाती, आपके जद्दोजलाल का सदका देती, आपकी सुखसमृद्धि के दुआयें मांगती, आपकी ड्योढी पर नाक रगड़ती आपके हुजूर में पेश करती आप उसकी जरूरत पर गम्भीर विचार करते ।”
“भई, वो कोई उसका स्टण्ट भी हो सकता था ।”
“स्टण्ट ?” - आलोका चिल्लाई - “सतीश । यू फोनी । यू हार्टलैस सन ऑफ आप बिच । तुम्हारी किसी पार्टी में शामिल पायल यहां शैम्पेन से नहाने की ख्वाहिश जाहिर करती तो तुम निसंकोच उसकी ख्वाहिश पूरी कर सकते थे, वो आसमान से तारे तोड़कर लाने को कहती तो तुम उसका इन्तजाम कर सकते थे लेकिन हाथ पसारे मदद मांगने आयी पायल को तुम काला पैसा नहीं दे सकते थे । कैसे... कैसे...”
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