RE: Horror Sex Kahani अगिया बेताल
नये मकान पर ताला डालकर मैं क़स्बा सूरजगढ़ की और चल दिया, वहां हमारा पुराना मकान था। मुझे यह देखना था कि मेरे पिता के पास कितनी जमीं-जायदाद शेष रही थी। पूरे अट्ठारह साल बाद मैं उस कस्बे में लौट रहा था।
ताऊ जी ने मुझे बताया था कि मेरे पिता की तीसरी पत्नी इसी मकान में रह रही है। वह उसी जगह रह कर अपने पति का शोक मना रही है।
गंजे सर को ढकने के लिए मैंने उस पर कपड़ा लपेट दिया था। मेरे लठैत साथी विदा हो गए थे। और वे लोग भी, जिन्होंने चिता में मेरा साथ दिया था।
इन अट्ठारह बरसों में सूरजगढ़ काफी विकसित हो गया था, उसका क्षेत्रफल बढ़ गया था और वहां बिजली की राहत भी पहुच गई थी, फिर भी कस्बे के अधिकांश घरों में बिजली नहीं पहुची थी। किन्तु सरकार ने अपने कोटे में सूरजगढ़ का नाम भी लिख लिया था, वह भी ठाकुर भानुप्रताप की दौड़ धूप से हो पाया था, अन्यथा नया डैम बनने तक समस्या उलझी हुई थी।
सूरजगढ़ का सबसे शक्ति संपन्न व्यक्ति ठाकुर भानुप्रताप सिंह ही था, जिसका दूर दराज तक बोलबाला था, गढ़ी में रजवाड़ो की शान अब भी देखने को मिलती थी। भानुप्रताप आज भी सूरजगढ़ी को अपनी मिलकियत समझते थे।
जब मैं कस्बे में पहुंचा तो सूरज ढलने को आ रहा था। वृक्षों के साये लम्बे पड़ने लगे थे और पक्षी अपने रैन बसेरों की ओर उड़ने लगे थे। आसमान पर अब इक्का-दुक्का खरगोशी रंग के बादल तैर रहे थे, जो अब शाम के धुँधलके में खोते जा रहे थे।
मकानों की छतों पर हल्की लालिमा शेष थी परन्तु आँगन सुरमई होने लगे थे। कस्बे में छोटे मोटे झोपड़ो से ले कर आलीशान मकान तक नजर आ रहे थे।
मुझे अपना पुराना मकान तलाश करने में अधिक देर नहीं लगी। यह मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था, और इसमें अजीब से खोखलेपन का बोध होता था। शायद इस बूढ़े मकान की बरसों से मरम्मत नहीं हुई थी और यह ढहने को तैयार था।
यही वह मकान था, जहाँ मेरा जन्म हुआ था। इसी मकान के आँगन में मेरा बचपन खेला, मानस पटल पर इसकी हलकी सी स्मृति शेष थी।
आँगन में घास उग आई थी। नीम का पेड़ बूढा हो चला था, ऐसा जान पड़ता जैसे मकान का मनहूस साया उस पर भी पड़ता रहा हो और वह भी दिन-ब-दिन सूखता चला गया हो।
सूने आँगन को पार करता हुआ मैं मकान की दहलीज़ पर चढ़ गया। दरवाज़ा खुला था। भीतर कुछ स्त्रियों के धीमे-धीमे बात करने का स्वर उत्पन्न हो रहा था।
सीधे अन्दर जाने की बजाय मैंने कुंडा बजा दिया।
कुंडे की खोखली ठन-ठन कुछ सेकंड गूंजी।]
भीतर की बातचीत थम गई।
एक बूढी औरत दृष्टिगोचर हुई।
मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“कौन हो बेटा?” बुढ़िया ने क्षीण स्वर में पूछा।
“रोहताश!”
“रोहताश... अरे बबुआ तू है...।” बुढ़िया के स्वर क्षणिक ख़ुशी आई फिर विलीन हो गई।
“हाँ मैं हूँ ... साधुनाथ का बेटा... यह घर हमारा ही है ना ...।” मैंने अपनी शंका का समाधान किया
“हाँ बेटा तेरा ही है। मुझे पहचाना नहीं... अरे मैं दादी हूँ... तुझे गोद में खिलाया है बेटा... कितना बड़ा हो गया है तू... पर बेटा – बहुत देर हो गई।”
“मैं भीतर आऊं...?”
मैं नहीं पहचान पाया कि वह कौन है... मुझे याद न था की मुझे किस-किस ने गोद में खिलाया था।
बुढ़िया ने रास्ता छोड़ दिया।
“तेरा बापू तुझे बहुत याद करता रहता था बेटा... बहुत रोता था—बेचारे को संतान का सुख भी नहीं मिला...।”
वह मुझे एक कमरे में ले गई जिसमे एक टूटी सी चारपाई पड़ी थी और फर्श पर दरियों के कुछ टुकड़े बिछे हुए थे।
“बेटा तू ठीक है ना]...।”
“हां... आप लोग कैसी हैं।”
“अरे हमारा क्या बेटा – अब तो कब्र में पैर लटक रहें है—अच्छा, तू बैठ मैं तेरी मां को खबर देती हूँ।”
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