RE: Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट
सारे वाकये के बाद मीडिया ने - खास तौर से, कर्टसी अनूप जोशी, रिपोर्टर ‘एक्सप्रैस’ ने - उसे बड़ा बिल्ड अप दिया था, उसको बाकायदा हीरो की तरह प्रोजेक्ट किया गया था, लेकिन ऐन उसी वजह से ये बात छुपी रहना मुहाल हो गया था कि असल में वो उन्हीं भाई लोगों का भड़वा था, अपने भाई की मौत का बदला लेने की खातिर आखिरकार वो जिनके खिलाफ हो गया था । उसका गिरफ्तार होना और जेल जाना लाजमी, महज वक्त की बात, हो गया था । खुद उसके एसएचओ महात्रे ने हस्पताल आ के उसे बताया था कि उसे कम से कम पांच साल की लगती जिससे निजात पाने का एक ही तरीका था कि वो भाई लोगों के खिलाफ - खासतौर से सायाजी घोसालकर के खिलाफ - कोर्ट अप्रूवर बन जाता । ‘मरता क्या न करता’ के अंदाज से उसने वो पेशकश कबूल की थी, नतीजतन जेल जाने से बच गया था लेकिन नौकरी से निकाले जाने की शर्मिंदगी उसे उठानी पड़ी थी, खड़े पैर बेरोजगार होना उसे कबूलना पड़ा था ।
बकौल महात्रे, वो उसका ऐन सही कदम था, पांच साल जेल में काटने के मुकाबले में बर्खास्तगी की जिल्लत और बेरोजगारी की लानत मामूली सजायें थीं ।
खुद आचार्य अत्रे ने भी उसके उस कदम को सही ठहराया था और साधुवाद से नवाजा था कि वो अपनी शुद्धि की, अपने प्रायश्चित की, गुड सन बनने की राह पर था । आचार्य जी ने उसे ‘सुबह का भूला’ करार दिया था जो कि ‘शाम को घर लौटा था’, उसको बीती बिसार के आगे की सुध लेने की राय दी थी और आश्वासन दिया था कि ‘आज से तुम्हारा नया जीवन शुरु होता है’ ।
लेकिन वो तमाम आशाजनक, उत्साहवर्धक बातें मनोबल ऊंचा करने के ही काम की थीं, लोकाचार में उनकी कोई अहमियत नहीं थी, कोई कीमत नहीं थी, वो उसे किसी सम्मानजनक नौकरी में पुनर्स्थापित करने में सर्वदा अक्षम थीं । वक्त के साथ लोगबाग भूल जाते तो भूल जाते कि वो पुलिस के महकमे से ‘डिसग्रेसफुली डिसमिस्ड’ इंस्पेक्टर था, फिलहाल तो मुम्बई शहर में उससे और उसकी जात औकात से हर कोई वाकिफ था । लिहाजा हर ढ़ण्ग की नौकरी की जगह से उसको एक ही जवाब मिलता था:
अभी कोई वेकेंसी नहीं है, एप्लीकेशन छोड़ के जाने का, बोलेंगे ।
बोलता कोई नहीं था ।
उसकी मौजूदा - समथिंग इज बैटर दैन नथिंग जैसी - नौकरी बांद्रा के ‘पिकाडली’ नाम के एक बार में थी जिसकी कहने को वो सिक्योरिटी आफिसर था लेकिन असल में लेट नाइट आवर्स में अतिरिक्त चुस्त, चाकचौबंद और चौकस रहने वाला बाउंसर था क्योंकि खूबसूरत बारबालाओं के लिये मशहूर उस बार में कोई गलाटा होता था तो रात दस और एक बजे कि बीच ही होता था । ऊपर से और डाउनग्रेडिंग बात ये थी कि वो दिहाड़ी मजदूर था - महीना तनखाह पर नहीं, हजार रुपये रोजाना पर वहां ड्यूटी करता था ।
‘सब दिन जात न एक समान ।’ - होंठों में बुदबुदाते हुए उसने आश्रम में कदम रखा ।
और ‘संचालक’ का पट लगे आफिस में आचार्य जी के रूबरू हुआ ।
उसने करबद्ध अभिवादन किया ।
“आओ” - आचार्य जी स्वभाववगत मीठे स्वर में बोले - “बिराजो ।”
“धन्यवाद ।” - नीलेश उनके सामने एक कुर्सी पर बैठा ।
आचार्य अत्रे आयु में पैंसठ वर्ष के चौकस तंदुरुस्ती वाले व्यक्ति थे; लम्बी दाढ़ी, मूंछ और कन्धों तक आने वाले बाल रखते थे, भगवा वस्त्र पहनते थे और गले में रुद्राक्ष की डबल माला पहनते थे । उनके व्यक्तित्व का प्रताप ऐसा था कि सामने पड़ने वाला स्वयं ही नतमस्तक हो जाता था ।
“कैसे आये ?” - वो मुस्कराते हुए बोले - “बल्कि पहले बोलो, अब तंदुरुस्ती कैसी है ?”
“ठीक है ।”
“कंधा प्राब्लम नहीं करता ?”
“अब नहीं करता ।”
“ये शुभ समाचार है । अब बोलो, कैसे आये ?”
“स्वार्थ लाया ।”
आचार्य जी की भवें उठीं ।
“दिशाज्ञान की जरुरत लायी ।”
“हम समझे नहीं ।”
“मेरे सामने एक पेशकश है जिसकी बाबत कोई तुरंत, तत्पर फैसला कर पाने में मैं खुद को अक्षम पाता हूं इसलिये अपकी शरण में आया हूं ।”
“क्या पेशकश है ?”
“पेशकश पुलिस के महकमे से है....”
“जिसका कि तुम कभी हिस्सा थे !”
“जी हां ।”
“आगे बढ़ो ।”
“पुलिस के टॉप ब्रास की, होम मिनिस्ट्रिी तक की, सहमति प्राप्त उनका एक बड़ा, जानजोखम वाला, प्रोजेक्ट है जिसके लिये उनकी दरकार एक ऐसा शख्स है जो पुलिस का अपना हो, पूरेभरोसे का हो, पूरी तरह से उनके कंट्रोल में हो फिर भी जिसका किसी भी तरीके से पुलिस के महकमे से कोई रिश्ता न जोड़ा जा सके । जिसकी पड़ताल हो तो किसी दूरदराज के तरीके से भी उसकी कोई कड़ी पुलिस से - या पुलिस जैसे किसी महकमे से, जैसे सीआईडी, इंटेलीजेंस ब्यूरो, स्पेशल टास्क फोर्स - से जुड़ती न पायी जाये, जो किसी पुलिस या एडमिनिस्ट्रेटिव बैकिंग की उम्मीद न करे, जो जो कुछ भी करे अपने, अकेले के बलबूते पर करे; लगन से, मेहनत से, मशक्कत से, मुकम्मल जिम्मेदारी से करे और कामयाब होकर दिखाई । मेरे को साफ बोला गया है कि ये शेर की मांद में कदम रखने जैसा काम होगा ।”
“जो खुद शेर हो, उसको शेर की मांद में कदम रखने में भला क्या खतरा होगा ? हासिल क्या है ?”
“जी !”
“जो तुमसे उम्मीद की जाती है, वो कर गुजरो तो तुम्हें क्या मिलेगा ?”
“मुझे क्या मिलेगा ?”
“भई, सोशल सर्विस तो नहीं चाहते होंगे वो लोग तुम से ! तुम उनका इतना बड़ा काम करना कबूल करोगे, करने में कामयाब हो जाओगे तो बदले में वो भी तो कुछ करेंगे या नहीं ! सहजबुद्धि में यही आता है कि बड़े काम का कोई बड़ा ईनाम भी तो पहले से मुकर्रर होना चाहिये ! है ?”
“जी हां, है ।”
“क्या ?”
“मुझे मेरी नौकरी पर बाइज्जत बहाल कर दिया जायेगा ।”
“ऐसा ?”
“जी हां ।”
“ये फर्म आफर है ?”
“जी हां । खुद कमिश्नर की । होम मिनिस्टर की एनडोर्समेंट के साथ ।”
“तुम फिर नीलेश गोखले, इंस्पेक्टर मुम्बई पुलिस !”
“कामयाब हुआ तो !’’
“फौरन हां बोलो, बेटा । ये सोच कर फौरन से पेश्तर हां बोलो कि जिस नौकरी ने तुम्हें कलंकित किया, वही अब तुम्हारे पाप धोयेगी । उनकी पेशकश कबूल करो और अपनी हिम्मत और मेहनत से उनकी उम्मीदों पर खरा उतर कर दिखाओ, ऐसा करतब करके दिखाओ कि खुद तुम्हें अपने आप पर अभिमान हो कि ये काम तुमने, सिर्फ तुमने किया ।”
“जी ।”
“बाकी रही जान जोखम की बात तो जोखम कहां नहीं है, बेटा ! जो शख्स जोखम से खौफ खाता है, उसके लिये तो हर कदम पर जोखम है । वो दरख्त परवान नहीं चढ़ सकता जिसे हर वक्त अपने पर बिजली गिरने का खतरा सताता हो । बेटा, जीवन का परमानंद उसी काम को अंजाम देने में है जो लोगों को लगे - खुद आपको लगे - कि आप नहीं कर सकते । नहीं ?
“जी.. जी हां ।”
“फिर मौत से क्या डरना ! मौत तो जिंदगी का आखिरी अंजाम है । अन्ना रघु शेट्टी नाम के उस बड़े मवाली से मुठभेड़ में जो गोली तुम्हारे कंधे पर लगी, वो माथे पर भी तो लग सकती थी ! मौत किस को बख्शती है ! सबको आनी है...सबको आती है ! राजा और रंक में फर्क किये बिना आती है । लंकापति रावण गया, बीस भुजा दस शीष; तो एक शीष का मानव किस बूते पर मौत के सामने इतरा सकता है !”
“नहीं इतरा सकता ।”
“मौत और जिंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, बेटा । मौत से डरना जिंदगी से डरने के समान है । जो लोग मौत से डरते हैं, समझो वो पहले ही तीन चौथाई मर चुके हैं । तुम अपना शुमार ऐसे लोगों में चाहते हो ?”
“हरगिज नहीं ।”
“नया सूरज निकलता है तो हर कोई कहता है कि मेरी बाकी जिंदगी का पहला दिन है, इसलिये मैंने कुछ नया, कुछ रचनात्मक करके दिखाना है । क्या कोई कहता है कि वो उसकी गुजरी जिंदगी का आखिरी दिन है इसलिये बस, अब कुछ करने की जरूरत नहीं ! नहीं कहता । क्यों नहीं कहता ? क्योंकि इस मामले में हर कोई प्रबल आशावादी है, हर किसी को यकीन है कि वो सौ साल जियेगा । कोई उन बंधुबांधवों से भी सबक नहीं लेता जो सौ के स्कोर के करीब भी न फटक सके, उलटे ये कह के खुद को तसल्ली देता है कि वो तकदीर के हेठे थे, मेरी बात जुदा है, । वास्तव में किसी की बात जुदा नहीं, कोई नहीं जानता कि जिंदगी की डोर कहां जा के टूटने वाली है । पानी केरा बुदबुदा, उस मानुष की जात; देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा प्रभात । ऐसे क्षणभंगुर जीवन को एक आशा, एक आत्मश्लाघा के सहारे निष्क्रिय हो कर जीना अच्छा है या कुछ नया, कुछ अनोखा, कुछ चमत्कारी कर गुजरते जीना अच्छा है ? सिकंदर ने दुनिया फतह की, उसको मौत का अंदेशा सताता होता तो उसने मकदूनिया से बाहर भी कदम न रखा होता । तमाम नामुमकिन कामों को ऐसे लोगों ने अंजाम दिया है जिनको खबर ही नहीं थी कि वो काम नामुमकिन थे, नहीं किये जा सकते थे । तुम अपना नाम ऐसे लोगों में शुमार देखना चाहते हो तो एक जोश, एक जुनून, एक तड़प के साथ, उस मुहाज पर निकलो जिसमें कामयाबी तुम्हारे आने वाली जिंदगी में आमूलचूल परिवर्तन ला देगी, उसके ऐसा संवार देगी कि गुजरी जिंदगी से गिला करना भूल जाओगे । बेटा, वो जिंदगी का सफर हो या जंग का मैदांन मुहाज कोई भी हो, हौसला जरुरी है । क्या पोजीशन है तुम्हारी इस मद में ?”
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