RE: Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट
“नहीं ।”
“वजह ?”
“डैड पड़ा है ।”
“हूं । ठीक है, चलता हूं ।”
टखनों से ऊपर आते पानी में छपाक छपाक चलता वो वापिस कार तक पहुंचा । ड्राइविंग सीट पर बैठ कर उसने इग्नीशन में चाबी लगाई और उसे आन किया ।
कोई प्रतिक्रिया न हुई ।
उसने कई बार वो क्रिया दोहराई ।
नतीजा सिफर ।
साफ जान पड़ता था कि बैटरी बैठ गयी थी ।
कार से निकल कर वो वापिस भीतर पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - भाटे बोला ।
नीलेश ने बताया ।
“ओह !” - भाटे बोला - “अब क्या करोंगे ?”
“पता नहीं । तुम बताओ क्या करूं ?”
“यहीं बैठो और साब लोगों के लौटने का इंतजार करो । क्या पता वो मेहरबान हो जायें और तुम्हारा बेड़ा पार लगा दें ।”
“हूं ।”
“या तुम अपनी सरकारी धौंसपट्टी से उन्हें बेड़ा पार लगाने के लिये मजबूर कर दो ।”
“फिर पहुंच गये उसी जगह पर !”
वो खामोश रहा ।
नीलेश ने जेब से सिग्रेट का पैकेट निकाला जो कि शुक्र था कि भीग नहीं गया हुआ था ।
“लो” - वो पैकेट भाटे की तरफ बढ़ाता बोला - “सिग्रेट पियो ।”
भाटे ने एक बार गर्दन ऊंची करके बाहर निगाह दौड़ाई और फिर कृतज्ञ भाव से एक सिग्रेट ले लिया ।
नीलेश ने खुद भी सिग्रेट लिया और बारी दोनों सिग्रेट सुलगाये ।
कुछ क्षण खामोशी में गुजरे ।
“वक्तगुजारी की बात है” - फिर नीलेश बोला - “इजाजत हो तो एकाध सवाल पूछूं ?”
“अरे, मैं कौन होता हूं इजाजत देने वाल !” - भाटे बोला - “पूछो, क्या पूछना चाहते हो ?”
“जवाब दोगे ?”
“बोले तो सवाल पर मुनहसर है ।”
“अरे, समझो, टाइम पास कर रहे हैं । जब तुम समझते हो कि मैं सरकारी आदमी हूं तो मेरे से बात करने में क्या हर्ज है !”
“समझ ही तो रहा हूं, कोई तसदीक तो नहीं हुई !”
“तसदीक के लिये क्या करना होगा ? डीसीपी को बुलाना होगा ?”
“वो तुम जानो ।”
“बहुत होशियार हो गये हो, दारोगा जी !”
“मैं दारोगा नहीं हूं ।”
“भई, इस वक्त थाने के इंचार्ज हो तो दारोगा ही तो हुए !”
वो खामोश रहा ।
“लो, सिग्रेट, लो ।”
दोनों ने नये सिग्रेट सुलगाये ।
“क्या पूछना चाहते थे ?” - एकाएक भाटे बोला ।
“अभी भी पूछना चाहता हूं ।”
“पूछो । किस बाबत सवाल है तुम्हारा ?”
“उस फोन काल की बाबत है जिसके जरिये रूट फिफ्टीन पर पड़ी लाश की यहां खबर पहुंची थी ।”
“अच्छा !”
“वो काल यहां किसने रिसीव की थी ?”
“महाबोले साब ने ।”
“खुद ?”
“हां ।”
“ऐसी काल रिसीव करना उनका काम है ?”
“नहीं । खफा हो रहे थे कि यहां बजता फोन किसी ने क्यों नहीं उठाया था !”
“थाने आयी काल यहां रिसीव की जाती हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो यहां किसी को हर घड़ी मौजूद होना चाहिये !”
“काल रात के...रात किधर की !... बोले तो सुबह चार बजे आयी थी । ऐसे टेम फोन शायद ही कभी बजता है । फिर भी बजे तो पीछे रैस्टरूम है, वहां पता चलता है ।”
“तुम रैस्टरूम में थे ?”
“सभी रैस्टरूम में थे । ताश खेलते, ऊंघते, सोते ।”
“लेकिन काल रिसीव करने कोई न पहुंचा ! एसएचओ साहब को खुद उठ कर यहां आना पड़ा ।”
“नहीं, भई । इस फोन का पैरेलल उनके आफिस में है । वहीं रिसीव की काल उन्होंने ।”
“ओह ! रैस्टरूम कहां है ?”
“उनके आफिस के बाजू में ही । वो पीछे !”
“ये अजीब बात नहीं कि कमरे आजू बाजू में होते हुए भी एक जगह बजती घंटी सुनाई दी, दूसरी जगह न सुनाई दी ?”
वो खामोश रहा ।
“या घंटी दोनों जगह बजती है ?”
“बज सकती है लेकिन महाबोले साब अपनी घंटी ऑफ रखते हैं ।”
“यानी यहां बजती घंटी ही उन्होंने अपने आफिस में सुनी !”
“जाहिर है ।”
“लेकिन वही घंटी तुम लोगों में से किसी को न सुनाई दी !”
“अब है तो ऐसा ही ।”
“तो उस फोन काल काल की खबर आखिर कैसे लगी ?”
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