RE: Thriller Sex Kahani - अचूक अपराध ( परफैक्ट जुर्म )
राज तेजी से सीढ़ियां उतर गया।
इमारतों के पिछली तरफ से गुजरती वो एक संकरी गली थी। पास ही अंधेरे में एक आदमी दीवार से पीठ लगाए टांगें फैलाए बैठा था। उसका सर दाएं कंधे पर टिका था।
राज ने नीचे झुककर उसे हिलाना चाहा। खुले मुंह से आती शराब की तेज बू उसके नथुनों से टकराए तो पीछे हट गया।
वह नशे में धुत्त पड़ा था।
राज गली के दहाने ओर बढ़ गया।
स्ट्रीट लाइट की रोशनी छोटे से आयत के रूप में सिरे पर पड़ रही थी। एक मानवाकृति उस आयत में दाखिल हुई। चौड़े कंधों वाले उस आदमी ने काला विंडचीटर पहना हुआ था। चाल में सतर्कता थी और पैरों से जरा भी आहट नहीं हो रही थी। चेहरा पीला था। बाल लंबे। उसका दायां हाथ विंडचीटर के अंदर था।
-“एक लड़की को यहां से बाहर जाते देखा था?” राज ने पूछा।
-“कैसी थी?”
राज ने लीना का हुलिया बता दिया।
वह आदमी आगे आ गया।
-“हां, देखा था।”
-“किधर गई?”
-“क्यों?” तुम उसे किसलिए पूछ रहे हो?”
राज ने गौर से देखा। वह एक बलिष्ठ युवक था। संभवतया बॉक्सर रह चुका था। और कुपित निगाहों से अपलक उसे घूर रहा था।
-“तुम जौनी हो?” राज ने संदिग्ध स्वर में पूछा।
युवक ने मुट्ठी की तरह बंधा हुआ अपना हाथ बाहर निकाला।
-“हां, दोस्त।”
साथ ही उसका घूंसा राज की कनपटी पर पड़ा।
अचानक पड़े बजनी घूंसे ने उसे त्यौरा दिया।
-“मैं ही जौनी हूं।” युवक ने कहा और एक घूंसा जड़ दिया।
राज को अपने घुटने मूड़ते महसूस हुए। तभी एक और घुंसा पड़ा। उसकी चेतना जवाब दे गई। वह नीचे जा गिरा।
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होश में आने पर राज ने स्वयं को अपनी फीएट की अगली सीट पर पड़ा पाया। गरदन और कनपटी में तेज दर्द था।
कुछ देर उसी तरह पड़ा रहने के बाद धीरे-धीरे उठकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया।
सड़क सुनसान थी। रियर-व्यू-मिरर में गाल और ठोढ़ी से खून बहता दिखाई दिया। हल्की सूजन भी थी।
उसने समय देखने के लिए अपनी बायीं कलाई ऊपर उठाई।
रिस्टवॉच गायब थी।
कुछ सोच कर हिप पाकेट थपथपाई। जेब में पर्स तो था लेकिन नगदी मार दी गयी थी। गनीमत थी कि क्रेडिट कार्ड और ट्रेवलर चैक बच गए थे।
उसने ग्लोब कंपार्टमेंट खोला। बत्तीस कैलीबर की लोडेड रिवाल्वर यथा स्थान मौजूद थी। रिवाल्वर निकालकर जेब में डाली। इंजिन स्टार्ट करके कार आगे बढ़ा दी।
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सतीश सैनी का निवास स्थान एक पुरानी शानदार हवेली निकली। शहर के उत्तर-पूर्वी हिस्से में उसकी लोकेशन भी एकदम बढ़िया थी।
हवेली में रोशनी थी। बाहर जिप्सी खड़ी थी।
फीएट पार्क करके राज ऊंची बाउंड्री वॉल के साथ-साथ चल दिया। एक स्थान पर दीवार इस ढंग से टूटी नजर आई कि वहां से अंदर जाया जा सकता था।
उसने वही किया।
पेड़ों के बीच से गुजरकर मुख्य इमारत की ओर जाते राज को खिड़कियों से लॉन में पड़ती रोशनी दिखाई दी। रात के सन्नाटे में अंदर से आवाजें भी आती सुनाई दे रही थीं।
खिड़कियां इतनी ज्यादा ऊंची थीं कि उनसे अंदर नहीं देखा जा सकता था।
राज हवेली की दीवार के साथ-साथ प्रवेश द्वार की ओर बढ़ता रहा।
आवाजें दो थी- स्त्री और पुरुष की। दोनों ऊंचे स्वर में बोल रहे थे।
सामने की तरफ वाला बरांडा पेड़ों और बेलों से काफी हद तक इस तरह घिरा था कि सड़क से वहां नहीं देखा जा सकता था। बरांडे में पहुंचकर राज दीवार के साथ कोने में खड़ा हो गया। अपनी इस स्थिति में वह साफ अंदर देख पा रहा था। लेकिन अंदर से उसे नहीं देखा जा सकता था।
लंबा-चौड़ा कमरा पुराने भारी फर्नीचर, कलाकृतियों वगैरा से विलासपूर्ण ढंग से सुसज्जित था।
अंदर मौजूद स्त्री पुरुष फायरप्लेस के पास आमने-सामने एक दूसरे को बता रहे थे कि उनके संबंध खत्म हो चुके थे।
सीधी तनी खड़ी स्त्री की राज की ओर पीठ थी। उसके गले में पड़ी मोतियों की माला रोशनी में चमक रही थी।
-“जो कुछ मेरे पास था खत्म हो चुका है।” वह कह रही थी- “इसलिए तुम यहां से भाग रहे हो। मैं जानती थी ऐसा ही करोगे।”
उसके सामने सैनी शॉट दे रहे किसी एक्टर की भांति खड़ा था- एक हाथ जेब में डाले दूसरे में पाइप थामें मैंटल से तनिक टिका हुआ था।
-“तो तुम जानती थी?”
-“हां। तुम्हें एक अर्से से जानती हूं। कम से कम चार-पांच साल तो हो ही गए जब तुमने इस बवेजा लड़की के साथ चक्कर चलाया था।”
-“वो सब काफी पहले खत्म हो गया।”
-“तुमने यकीन तो यही दिलाया था लेकिन मेरे साथ तुम ईमानदार कभी नहीं रहे।”
-“मैंने बहुत कोशिश की है। सच्चाई जानना चाहती हो?”
-“सच बोलने का हौसला तुममें नहीं है, सतीश। तुम निहायत झूठे आदमी हो। हमेशा झूठ बोलते रहे हो। शादी से पहले भी तुमने झूठ बोला था- अपनी आमदनी के साधनों और अपनी हैसियत के बारे में। मुझे दिलो जान से प्यार करने के बारे में।” रजनी के स्वर में कड़वाहट थी- “तुम जिंदगी भर मुझसे झूठ बोलते रहे हो। सही मायने में पत्नी का दर्जा तक तुमने कभी मुझे नहीं दिया।”
-“साबित करो।”
-“ऐसा करने की कोई जरूरत मुझे नहीं है। मैं अच्छी तरह जानती हूं। यही मेरे लिए काफी है। तुम समझते हो अपने बचकाना बहानों से मुझे बेवकूफ बना दिया था। जब तुम अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों में लाल रंगा मुंह लेकर आए थे मेरी हवेली में...।”
-“ठहरो।” सैनी ने अपने पाइप के सिर को पिस्तौल की तरह उसकी ओर तानते हुए कहा- “तुम्हें पता है, क्या कहा है तुमने? तुमने कहा है- मेरी हवेली। हमारी या अपनी नहीं। फिर भी तुम मुझे ही लालची और खुदगर्ज कहती हो।”
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