RE: Thriller Sex Kahani - अचूक अपराध ( परफैक्ट जुर्म )
-“पूरे यकीन के साथ नहीं कर सकती। मेरा ख्याल है पिछले शुक्रवार को जब उसे देखा वह ऐसी ही सैंडल पहने थी। तुम्हें यह कहां से मिली?”
-“जंगल में। बूढ़े डेनियल ने उन्हें चिल्लाकर टोका तो वे घबराकर भाग खड़े हुए। इसी हड़बड़ी में वह गिरी और उसके सैंडल की हील उखड़ गई।”
-“आई सी।” एड़ी वापस राज को लौटाकर बोली- लेकिन वे जंगल में गड्ढा क्यों खोद रहे थे?”
-“वे नहीं। वह खोद रही थी। तुम्हारा पति वहां खड़ा उसे खुदाई करती देख रहा था।”
-“लेकिन क्यों?”
-“इससे सवाल तो कई पैदा होते हैं मगर जवाब शायद एक ही हो सकता है। राज बोला- “मैंने ऐसे सैडिस्टिक हत्यारों के बारे में सुना है जो अपने शिकार को सुनसान जगह पर ले जाते हैं। फिर जबरन उसी से उसकी कब्र खुदवाते हैं। अगर वह मीना की हत्या की योजना बना रहा था...।”
-“मैं नहीं मान सकती।” तीव्र स्वर में प्रतिवाद करती हुई बोली- “सतीश ऐसा आदमी नहीं था। ऐसा कुछ उसने नहीं किया हो सकता।”
-“तुम्ही ने तो बताया था वह सैडिस्ट था।”
-“लेकिन मेरा यह मतलब तो नहीं था।”
-“फिर क्या था?”
-“मैंने उसे सिर्फ इसलिए सैडिस्ट कहा था क्योंकि मुझे दुखी परेशान करने और सताने में उसे मजा आता था।”
-“खैर, मुझे जो एक संभावना सूझी मैंने बता दी।” राज बोला- “क्या मैं सिगरेट पी सकता हूं?”
-“श्योर।”
राज ने प्लेयरज गोल्ड लीफ का एक सिगरेट सुलगाया।
-“सोमवार रात में जब तुम्हारा पति घर लौटा तुमने उसे देखा था?”
-“हां। हालांकि काफी रात गए लौटा था लेकिन मैं जाग रही थी।”
-“तुमसे कुछ कहा था उसने?”
-“याद नहीं।” वह विचारपूर्वक बोली- “नहीं, याद आया, मैं बिस्तर में थी। वह बिस्तर पर नहीं आया। पहले बैठा विस्की पीता रहा फिर देर तक घर में इधर-उधर घूमने की उसके कदमों की आहटें सुनाई देती रही। आखिरकार मैं एक स्लीपिंग पिल निगलकर सो गई।”
-“यानी तुमसे कोई बात उसने नहीं की?”
-“नहीं।” अचानक उसने राज की बाँह पर हाथ रख दिया- “तुम कैसे कह सकते हो, सतीश ने उसे मार डाला? जबकि तुम यह तक नहीं जानते वह मर चुकी है।”
-“मैं मानता हूं उसकी लाश नहीं मिली है। लेकिन बाकी जो भी बातें सामने आयी हैं इसी ओर संकेत करती हैं। अगर वह मरी नहीं तो कहां है?”
राज कि बाँह पर एकाएक उसकी उंगलियां जोर से कस गई और आंखों में विषादपूर्ण भाव उत्पन्न हो गए।
-“मुझसे पूछ रहे हो? क्या तुम समझते हो, मैंने उसे मार डाला?”
-“नहीं, बिल्कुल नहीं।”
राज के इंकार की ओर ध्यान देती प्रतीत वह नहीं हुई।
-“सोमवार को सारा दिन मैं घर में रही थी।” उसने कहना जारी रखा- “इसे साबित भी मैं कर सकती हूं। दोपहर बाद मेरी एक सहेली मेरे पास आई थी। उसने लंच मेरे साथ लिया था फिर रात के खाने पर भी ठहरी थी। जानते हो, वह कौन थी?”
-“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे सामने अपनी एलीबी पेश करने की कोई जरूरत तुम्हें नहीं है।”
-“जरूरत भले ही न हो मगर मैं बताना चाहती हूं। तुम्हें सुनने में एतराज है?”
-“नहीं।”
-“मेरी वह सहेली थी- सुमन चौधरी। एस. एच.ओ. समर सिंह चौधरी की पत्नि। हम अपनी महिला समिति की ओर से गरीब औरतों में सिलाई मशीनें बांटने के प्रोग्राम पर विचार करते रहे थे। हालांकि यह चार दिन पुरानी बात है मगर मुझे लगता है जैसे चार साल पुरानी बात हो। काफी सोच-विचार के बाद भी हम ठोस और कारआमद नतीजे पर नहीं पहुंच सकीं। हमने बेकार ही वक्त जाया किया।”
-“तुम ऐसा समझती हो?”
-“अब समझ रही हूं। अब मुझे हर एक बात बेकार और बेवकूफाना लगती है। क्या तुम्हें कभी ऐसा लगा है कि वक्त तुम्हारे लिए ठहर गया है और तुम ऐसे शून्य में जी रहे हो जिसमें भविष्य कोई आएगा नहीं और भूत कोई था नहीं?”
-“मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ लेकिन अक्सर लोगों के साथ होता रहता है। मगर ज्यादा दिन ऐसा रहता नहीं है। तुम्हारे साथ भी नहीं रहेगा। वक्त बड़े से बड़े जख्म को भर देता है।”
-“तसल्ली देने के लिए शुक्रिया।” संक्षिप्त मौन के पश्चात वह बोली- “तुमने कल रात भी मेरे साथ हमदर्दी जाहिर की थी और अब भी यही कर रहे हो। क्यों?”
राज मुस्कराया।
-“मुसीबतजदा या परेशान हाल औरतों के साथ हमदर्दी करना मेरी आदत है। अब मैं एक सीधा सा सवाल पूछता हूं- तुम, आज यहां क्यों आई हो?”
-“शायद तुमसे दोबारा मिलना चाहती थी। पिछली रात और आज सुबह बृजेश से हुई बातों ने मुझे बहुत ज्यादा डरा दिया था।”
-“ऐसा क्या कहा था उसने?”
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