RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#8
“पहली बार इतनी दूर तक पैदल चली हूँ ”प्रज्ञा बोली
मैं- हाँ तो ठीक है न कभी कभी आम इन्सान होने को भी महसूस करना चाहिए.
प्रज्ञा- तुम्हरी बाते न जाने क्यों अच्छी लग रही है
मैं- आदमी भी अच्छा हूँ , बस समय ख़राब है ,
वो- सब वक्त का ही तो खेल है ,
न जाने क्यों मुझे लग रहा था की प्रज्ञा के मन में कोई बोझ है पर अपना क्या लेना देना था , ऐसे ही बाते करते हुए हम दोनों उस मोड़ तक आ गए थे जहाँ से हमें जुदा होना था ,
मैं- अपने ज़ख्म को वैध जी को दिखा लेना, और कोशिश करना की ऐसे नशा न करो, मैं ये तो नहीं जानता की तुम्हारी परेशानिया क्या है पर इतना तो जान लिया है की एक नेकी , एक मासूमियत है तुम्हारे दिल में , उसे मत खोना
प्रज्ञा- तुम कहाँ रहते हो.
मैं-इस जंगल के परली तरफ
प्रज्ञा- पर वहां तो अर्जुन्गढ़ है ,
मैं- उस से थोडा पहले ही कुछ खेत आते है वहीँ पर,
प्रज्ञा- तुमसे मिलकर अच्छा लगा कबीर
मैं- मुझे भी
एक दुसरे को कुछ देर देखने के बाद मैं मुड गया , एक बार भी मैंने पीछे मुड कर नहीं देखा, बेशक मैं मंदिर जाना चाहता था पर अ जाने को मैंने वापसी का रस्ता ही अख्तियार किया , कभी कभी दिल को समझा लेना ही ठीक होता है पर ये दिल जो होता हैं न ये अपने रस्ते खुद ढूंढ लेता है , और जिसे हम शिद्दत से याद करते है वो कभी कभी ऐसे मोड़ पर टकरा जाता है जब कोई उम्मीद न हो.
जंगल में थोड़ी दूर ही चला था की मुझे बकरियों की आवाज सुनाई दी , कुछ दूर आगे बढ़ने पर मुझे वो दिखाई दी , वो गहरी आँखों वाली लड़की, जिस के लिए मैं कल आया था , उसने भी मुझे देखा और चिल्लाते हुए बोली- दुश्मनों के इलाके में यूँ नहीं घूमना चाहिए, किस्मत हर बार साथ नहीं देती.
मैं उसकी तरफ बढ़ते हुए, - पर तुम तो हो न मेरे साथ , फिर किस्मत का साथ किसे चाहिए
वो- मैंने सुना है जंगल इंसानों को अक्सर खा जाते है
मैं- मैंने कहा न तुम साथ हो तो कोई डर नहीं
उसने पानी की बोतल दी मुझे, मीठा पानी पीकर सकूं मिला .
वो- और कैसे इस तरफ
मैं- आजकल न जाने क्यों मेरा हर रास्ता तुम्हारी तरफ ही जाता है, मंदिर की तरफ गया था
वो- कर लिए दर्शन
मैं- हाँ अब कर लिए
वो मुस्कुरा पड़ी.
“बाते बहुत मीठी करते हो, ” उसने आँखे ततेरते हुए कहा
मैं- ये झोले में क्या है .
वो- परांठे है ,खायेगा
मैं- खिलाओगी
उसने झोले से खाना निकाला और मुझे दिया , मैंने खाना शुरू किया वो मेरे पास बैठ गयी .
मैं- बढ़िया है , बहुत दिनों बाद मैंने ऐसा भोजन खाया ,आभार तेरा
वो- तेरे घर में कौन कौन है
मैं- कोई नहीं मैं अकेला हूँ
वो- हम्म
मैं- तू रोज आती है इधर बकरिया चराने ,
वो- नहीं रे, मनमौजी हूँ मैं जिधर दिल करे उधर चल पड़ती हूँ , अब सबके भाग में सुख थोड़ी न हैं , मेहनत मजूरी करके जी रहे है बस
अब मैं क्या कहता उसें
मैं- बुरा न माने तो एक बात कहू
वो- बोल
मैं- जबसे तू मिली है , अच्छा सा लगने लगा है .
वो- मैं तो हु ही खुशगवार
मैं- सो तो है , मतलब मुझे लगता है की जैसे कुछ नया हो रहा है
वो- ऐसा कुछ नहीं है , तू भटकता रहता है मैं भटकती रहती हु, बस आपस में टकरा जाते है और तू एक बात कभी न भूलना , तू और मैं दुश्मन है .
मैं- हाँ, तो मार दे मुझे, निभा ले दुश्मनी,
वो- बातो से हकीकत नहीं झुठला पायेगा तू
मैं- अब कहाँ दुश्मन रहे अब तो मैंने दुश्मन का नमक भी खा लिया
वो- बाते न घुमा.
मैं- अपने मन की बता, क्या तू मुझे दुश्मन मानती है .
वो- मित्र भी तो नहीं तू
मैं- जानती है मैं रतनगढ़ सिर्फ इसलिए आया की तुझे देख, सकू, उस पहली मुलाकात को भुलाये नहीं भूल पाता मैं , मेरे कदम अपने आप तेरे रस्ते पर चल पड़ते है
वो- देख, हकीकत से न तू दूर है न मैं , तेरी जगह कोई और होता तो मैं उसकी मदद भी करती उस दिन, और ये बार बार मिलना इत्तेफाक है , तेरा मेरा सच जो है वही रहेगा.
मैं- एक सच और है जो इन सब से बहुत परे है वो है मित्रता का सच. मैं तेरी तरफ मित्रता का हाथ बढाता हूँ, तुझे मैं सच्चा लगु तो हाँ कह दे.
उसने अपना झोला उठाया और बोली- मुझे चलना चाहिए.
मैं- हाँ जाना तो है , फिर कब मिलेगी
वो- तू छोड़ दे इन रास्तो को
मैं- छोड़ दूंगा,
वो- बढ़िया है , चल चलती हूँ फिर
मैं बस उसे चलते हुए देखता रहा , थोड़ी दूर जाने के बाद वो मेरी तरफ पलटी और बोली- परसों दोपहर मंदिर के पीछे तालाब की सीढियों पर दिया जला देना,
ये क्या कह गयी वो, पूरे रस्ते मैं सोचता रहा, रह जैसे ख़ुशी से महक गयी थी ,खुमारी में मैं न जाने कब अपने खेत में पहुच गया
दूसरी तरफ प्रज्ञा हवेली पहुची, उसकी अस्त व्यस्त हालत देख कर सारे नौकर चाकर घबरा गए.
“कोई जाके वैध जी को बुला लाओ और बाग़ के रस्ते में हमारी गाड़ी ख़राब पड़ी है , कोई देख लेना उसे, ”प्रज्ञा ने हुक्म दिया और अपने कमरे में घुस गयी . सबसे पहले उसने अपने कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गयी ,आदमकद शीशे में उसने खुद को नंगी देखा तो नजर शीशे पर ही रुक गयी. लगा की जैसे बरसो बाद उसने अपने रूप को ऐसे निहारा था
न जाने क्यों उसे अपनी देह दहकती सी महसूस हो रही थी उसने शावर चलाया और ठन्डे पानी से भीगने लगी.
पर न जाने क्यों ये पानी भी उसके तन को और तडपा रहा था , प्रज्ञा का हाथ उसकी चूत पर चला गया .ग गुलाबी रंग का वो छोटा सा छेद, जिस पर काफी दिनों से उसने कुछ भी महसूस नहीं किया था . जैसे धधकने लगा था .जैसे ही उसकी उंगलियों ने उस छोटे से दाने को छुआ . प्रज्ञा का पूरा बदन हिल गया .
उसकी आँखे अपने आप बंद होती चली गयी, न जाने कब बीच वाली ऊँगली चूत के छेद में घुस गयी, उसके पैर थोड़े से खुल गये, खुमारी ने प्रज्ञा के सम्पूर्ण अस्तित्व पर कब्ज़ा कर लिया, तेजी से अन्दर बाहर होती ऊँगली उसे दूर कही आसमान में उडाये ले जा रही थी और फिर धम्म से वो फर्श पर गिर गयी.
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