RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#12
“जा फिर, ” मैंने कहा
उसने मेरी आँखों में देखा , उसकी यही तो खास बात थी उसे शब्दों की जरुरत नहीं पड़ती थी, और उस कमजोर लम्हे में मैं कोई नहीं था उसे रोकने वाला. मेरा दिल चाहता था की उसे इस तरह बाँहों में भर लू, पर जो हो नहीं सकता ,
आखिर ये क्या बेचैनी थी क्यों मैं बस उसे ही देखना चाहता था . क्यों दुनिया लगने लगा था उसका चेहरा, ऐसा नहीं था की वो कोई हूर थी , पर जैसी भी थी अपनी लगी थी, खैर, अभी के लिए तो इस पराई धरती ने मुझे ठुकरा दिया था , उसके जाने के बाद भी मैं राह को देखता रहा .
पहली दफा ऐसे लगा जैसे कदम बहुत भारी से हो गए थे .
खैर, मुझे वापिस तो आना ही था. भूख से बहाली थी पर हालत ऐसी थी की जैसे किसी ने अन्दर से कुछ तोड़ सा लिया हो .नहाने के बाद मैं गाँव की तरफ निकल गया . स्कूल के रस्ते में मुझे सविता मैडम मिल गयी.
मैडम- कबीर, कैसे हो.
मैं- जी ठीक हूँ आप कैसी है
मैडम- देख कर बताओ कैसी लग रही हूँ, वैसे आज इस तरफ कैसे.
मैं- बस गाँव की याद आई, थोड़ी भूख सी लगी थी तो सोचा हलवाई की दूकान होता चलू.
मैडम- चलो मेरे साथ आओ
मैं- किधर.
मैडम- मेरे घर.
मैं-किसलिए
मैडम- खाना खाने और किसलिए
मैं- फिर कभी, आप क्यों परेशां होती है
मैडम- मैंने कहा न आओ मेरे साथ . स्कूल थोड़ी देर बाद चली जाउंगी
मैं मैडम के साथ उनके घर आया, मैडम नाश्ता ले आई.
मैडम- मैंने कहा था न इसे अपना ही घर समझो, तुम कभी भी आ सकते हो यहाँ खाने .मुझे अच्छा लगेगा.
घर का बना कुछ भी उसकी होड़ कभी नहीं हो सकती थी, मैं कभी कच्चा पक्का खुद बनाता था कभी बाहर खाता था, इस स्वाद के लिए तड़पता ही तो था मैं . मैडम के चेहरे पर म्मैने ख़ुशी की एक झलक देखि मैंने
मैडम- तुम्हारी माँ, मिली थी कुछ रोज पहले, तुम्हारे भाई की शादी होने वाली है कुछ दिनों में, सारे गाँव का न्योता है जलसे का.
मैं- बड़े लोगो के चोंचले. बस मौका चाहिए झूठी शान दिखाने का .
मैडम- तुम्हारे लिए चिंतित है ठकुराईन , बहुत याद करती है वो .
मैं- फिर भी एक बार भी नहीं आई.
मैडम- कबीर, जिन्दगी कभी कभी हमें बहुत कठिन समय दिखाती है पर परिवार ही होता है जो हमें उस कठिन समय को सहने की शक्ति देता है
मैं- आपको मानता हु अपना परिवार. इसीलिए आपको ना नहीं कहता पर मेरी भी कुछ मजबुरिया है
मैडम ने फिर कुछ नहीं कहा , उसके बाद मैं बस भटकता रहा इधर उधर, गाँव के कुछ लोग मिले, दुआ सलाम हुई , मालूम हुआ की भाई के ब्याह की खूब जोर शोर से तैयारिया कर रहे थे ठाकुर साहिब , एक दिल तो किया की चक्कर लगा ही लूँ घर के आजू बाजु पर इन्सान का अहंकार, वापिस आया खेत पर , कपडे बदले और टूटे चबूतरे वाला रास्ता पकड लिया .
इंतज़ार भी एक बहुत अजीब वाकया होता है , वक्त जैसे थम जाता है , उसने कहा थ वो आएगी , पर कब , घंटा बीता, या दो घंटे बीते मुझे करार न आये , कभी इधर देखू कभी उधर पर उसकी झलक न मिले. गुस्सा सा आने लगा पर कहू किस से इस खामोश जंगल में उस वक्त कोई भी तो नहीं था सुनने वाला. दोपहर सांझ की तरफ बढ़ने लगी थी और सांझ भी रात में बदल गयी.
“नहीं आना था तो सीधा ही कह देती, शायद मैं ही था जो उम्मीद लगा बैठा उस से ” मैंने अपने आप को गुस्से से कहा अब मेरा रुकने का मन नहीं था और मैं क्यों करू उसका इंतज़ार , गलती तो मेरी ही थी न एक दो मुलाकातों को हद से जायदा आगे समझ लिया था मैंने
वो तमाम रात अँधेरे में कटी , और मैंने फैसला कर लिया की भूल हुई सो हुई अब रतनगढ़ की तरफ मुह नहीं करूँगा. उधेड़बुन और निराशा ने जैसे मेरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था . न जाने मुझे क्यों ये रात भी उसी तरह से भारी लग रही थी जैसी कुछ साल पहले एक रात आई थी . बस उस रात मैं मजबूर था आज रात बेबस , मैं सोचता था क काश वो रात आई ही नहीं होती .
खैर, समय था बीतने लगा. किसी अधूरे ख्वाब के जैसे भुला दिया गया . करीब पंद्रह- बीस दिन बीत गए थे . मैं अपनी जमीं पर कुछ गड्ढे खोद रहा था की मैंने एक कार को मेरी तरफ आते देखा .
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