RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#१९
दिन पर दिन बीत रहे थे मेघा भी गायब थी और प्रज्ञा भी नहीं आई मिलने, नर्स बार बार कहती की उसने खुद जाकर कहा था होटल में , इस इंतज़ार ने मुझे पागल कर दिया था , हॉस्पिटल के इस कमरे ने जैसे मेरे वजूद को कैद कर लिया था, मैं बार बार डॉक्टर से कहता की मुझे जाने दो , जाने दो पर मुझे हर बार निराशा मिलती .
करीब तीन महीने बीतने के बाद आखिर कर डॉक्टर ने मुझे बताया की अब मैं बहुत बेहतर हूँ, और घर जा सकूँगा. मुझे बहुत ख़ुशी थी इस बात की
मैं- डॉक्टर, मैंने अपने दोस्तों को सन्देश भिजवाया था जैसे ही वो आयेंगे , बिल चूका देंगे.
डॉक्टर- पर तुम्हारा बिल तो पहले ही भरा गया है कोई बकाया नहीं है तुम बस तयारी करो जल्दी ही डिस्चार्ज करेंगे तुम्हे
ये बात और हैरान करने वाली थी मुझे, शायद मेघा ने बंदोबस्त कर लिया होगा. सबसे पहले मैंने प्रज्ञा से मिलने का सोचा और मैं सीधा होटल गया , पर तक़दीर मालूम हुआ की महीनो से वो इस तरफ आई ही नहीं थी. शायद यही वजह रही होगी की वो होस्पिटल नहीं आई. खैर अब क्या फायदा था रुकने का,
शहर से विदा लेने का वक्त हो चला था मैंने, गाँव के लिए बस पकड़ ली,मौसम की अंगड़ाई देखते हुए मैंने खिड़की खोल ली, हलकी हलकी बूंदे चेहरे को भिगोने लगी, ठंडी हवा बहुत अच्छी लग रही थी , मैंने आँखे मूँद ली और खुद को उन हलकी बौछारों के हवाले कर दिया. एक अनजानी ख़ुशी जिसे मैंने न जाने आखिरी बार कब महसूस किया था . . गाँव पहुचते पहुचते बारिशे भी कुछ तेज हो गयी थी और मेरी धड़कने भी . भीगते हुए मैं खेत की तरफ जा रहा था .
कुछ तो बात थी इस अपनी मिटटी में, खुद को एकदम से ही बेहतर महसूस करने लगा था मैं , इस गीली मिटटी की महक जो मेरी सांसो में समा रही थी दुनिया की कोई भी बेहतर से बेहतर खुशबु फीकी थी इसके आगे. मैंने देखा मेरी जमीन के उस छोटे से टुकड़े की हालत भी मुझ सी ही थी, बहुत ज्यादा खरपतवार उगा हुआ था, तमाम चीज़े अस्त व्यस्त थी.
चाबी न जाने कहाँ थी , सो ताला तोडना पड़ा मुझे, गीले कपडे बदले , और पसर गया बिस्तर पर, इस वक्त और कुछ था भी नहीं करने को पर कल से बहुत कुछ था , मुझे बस किसी ऐसे इन्सान को ढूँढना था जो मेरे सवालों के जवाब दे सके, मेरे भविष्य के जवाब इतिहास में छुपे थे, जिन सवालों के लिए मांस तक गँवा दिया था उनके जवाब तो अब तलाश करने ही थे.
कहने को बस इतना था की जंगल के एक किनारे मेघा थी एक किनारे मैं बीच में ये जंगल था जो दो शत्रु गाँवो को जोड़ता था , और कही न कही ये जंगल अपने अन्दर ही वो सब छुपाये हुए था जिसकी तलाश हमें थी, क्या मुझे पुजारी से बात करनी चाहिए, क्या वो मदद करेगा , और क्या उसे मालूम था की उसकी बेटी ने वो अलख जगा दी थी जिस की लौ न जाने किस किस को झुलसाने वाली थी .
अगले दिन भी सुबह हलकी हक्ली बूंदा- बांदी थी पर फिर भी मैं निकल गया रतनगढ़ के लिए. बारिश के मौसम की वजह से जंगल बहुत बदल गया था , जैसे जैसे मैं टूटे चबूतरे की तरफ बढ़ रहा था , मेरा दिल घबराने लगा. मैं सावधान हो गया. पर सब शांत था, सिवाय हवा के, मैं वहा पंहुचा, बारिश ने उस रात के तमाम सबूत मिटा दिए थे, मैंने आकलन किया उस रात हुआ क्या था, मैंने उस दर्द को फिर से महसूस किया पर मुझे आगे बढ़ना था , सो चल दिया. बेशक मुझे मंदिर जाना था पर मैं सडक के पास उसी पेड़ के निचे बैठ गया.
न जाने क्यों मुझे एक आस थी , देर हुई बहुत हुई पर रास्ता हमेशा की तरह सुनसान था, और फिर न जाने क्या ख्याल आया मुझे, मैंने अपने कदम रतनगढ़ की तरफ बढ़ा दिए, ये पहली बार था जब मैं उस रेखा को लांघ ने जा रहा था जो हमारे बीच एक दिवार बनाती थी.
मैंने वो गाँव देखा, मेरे गाँव जैसे ही लोग थे, घर मेरे गाँव जैसे ही थे, औरते अपने कामो में व्यस्त थी, आदमी अपने में. आधा गाँव पार करते हुए मैं जिस जगह आ पहुंचा था उसे एक छोटा बाजार कह सकते थे, वहां बहुत दुकाने थी, लोग बैठे थे, बाते कर रहे थे, कुछ बुजुर्ग ताश खेल रहे थे.
मैं एक दुकान पर बैठ गया .
“क्या लोगे भाया ” पूछा उसने
मैं- जो भी खाने का है
वो- समोसा, कचोरी, भेल , नमकीन
मैं- एक चाय,
उसने सर हिलाया और थोड़ी देर में ही एक गिलास चाय दे गया.
सब कुछ तो एक सा ही था इस गाँव और मेरे गाँव में, फिर क्यों दुश्मनी थी , बस यही तो मेरा सवाल था , , तमाम सवालों में इस कद्र खोया था की कुछ लम्हों के लिए मैं भूल गया था ,
“तू यहाँ क्या कर रहा है ” ये पुजारी था जो अभी अभी उस दुकान पर आया था
मुझे कोफ़्त होती थी उस चूतिये से पर मेघा का बाप था इस लिए बस झेलना पड़ता था .
मैं- काम से आया था .
वो- तुझे क्या काम यहाँ
मैं- प्रीत का वचन निभाने
मैंने बस यु ही कह दिया था पर पुजारी की आँखों में मैंने खौफ देखा, जैसे उसे बुखार आ गया था, शायद मेरी बात दुकान वाले ने भी सुन ली थी . वो पास आके बोला- भाया,वापिस चला जा, और मुडके मत आना , गाँव में वैसे ही सब ठीक नहीं है , तू और दंगा करवाएगा, इस से पहले कोई और सुने , चला जा.
मैं- मुझे बस एक सवाल का जवाब चाहिए , जिसकी वजह से मैं यहाँ आया हु, और क्या ठीक नहीं है यहाँ
दुकानवाले ने इधर उधर देखा और बोला-भाया, तू जा. मेरी दूकान से जा.
बिना पुजारी की तरफ देखे मैं दुकान से बाहर आ गया पर मुझे कुछ याद आया तो मैंने पूछा - राणाजी के घर का रास्ता
उसने फीके चेहरे से मुझे देखा और अपनी ऊँगली सामने की तरफ कर दी.
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