Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
12-07-2020, 12:12 PM,
#25
RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#20

मेज पर दर्जनों बोतले थी शराब की पर मजाल क्या प्रज्ञा की निगाह भी गयी हो उस तरफ, और ऐसे न जाने कितने ही दिन बीत गए थे, जो कडवे पानी की एक घूँट भी गले से उतरी हो. आँखों पर एक सुर्खी सी छाई थी , कपडे अस्त-व्यस्त थे पर उसे कोई परवाह नहीं थी, परवाह थी तो बस दिमाग में चल रही उस उथल-पुथल के बारे में.

बरसो बाद अर्जुन्गढ़ और रतनगढ़ के बीच पंचायत हुई थी , दोनों पक्षों के अपने अपने आरोप थे, आस पास के गाँव के मौजिज लोग भी जुटे थे, क्योंकि दोनों गाँवो की नफरतो का इतिहास ही कुछ ऐसा था . प्रज्ञा के बदन में एक बेचैनी थी , और जैसे ही उसने गाड़ी की आवाज सुनी सब कुछ भूल कर वो नंगे पैर ही दौड़ पड़ी , निचे की और .

“क्या हुआ, क्या हुवा वहा पर,” राणा को देखते ही एक साँस में उसने जैसे कई सवाल कर दिए थे.

राणा ने भरपूर नजर अपनी पत्नी पर डाली और बोले- कुछ नहीं, वो हमें दोष देते है और हम उन्हें, हमेशा की तरह

प्रज्ञा- फिर

राणा- जंगल के मसले पर बात हुई , जंगल खाली होने पर वो भी चिंतित थे,

प्रज्ञा- मैंने भी अपने स्तर पर पड़ताल की थी पर इतनी खून्खारता कौन कर सकता है, ऐसे तो नहीं हो सकता की जानवरों के दल आपस में लड़ पड़े हो , इंसानों की तरह जानवरों में आपसी रंजिश नहीं होती .

राणा- बात तो सही है पर हम क्या करे, रातो को चोकिदारी भी करवा के देखा , कोई तो पकड़ में आये. , वैसे ठाकुर भानु ने भी वादा किया है की अपनी सीमा पर वो भी चोकसी करवायेंगे

प्रज्ञा - गाँव में खौफ है ,

राणा- कोशिश कर तो रहे है ,बरसो से ये जंगल शांत था , दोनों गाँवो की सरहद था पर कुछ तो हुआ है जो सामने नहीं आ रहा . पंचायत चाहती थी की दोनों गाँव नफरत भुला कर आगे बढे,

प्रज्ञा- क्या कहा आपने फिर

राणा- क्या कहना था , कुछ बातो को अधुरा छोड़ देना ठीक रहता है ,

प्रज्ञा- बीस साल हो गये मुझे यहाँ आये , बीस साल में मैंने एक भी ऐसी घटना नहीं देखि, जिस से लगे को हमारे और उनमे शत्रुता है , तो फिर ऐसी क्या बात है जो ये दुश्मनी है

राणा- बस चला आ रहा है , कुछ चीज़े हमें विरासत में मिली है . बचन है निभा रहे है . खैर, वैसे हमें शहर जाना था , मुनाफे में बड़ी रकम आई है होटल से लानी है , पर अभी क्या करू, थोड़ी देर में पंचायत का दूसरा चरण भी होगा.

प्रज्ञा- मैं संभाल लुंगी,वैसे भी मैं सोच रही थी थोडा बाहर निकलू

राणा- ठीक है .

दूसरी तरफ कबीर, प्रज्ञा की हवेली की तरफ बढ़ रहा था , गाँव जैसे पीछे छूट रहा था , बारिस अब भी छोटी छोटी बूँद बन कर गिर रही थी , पर कबीर को क्या परवाह थी , दूर से ही उसकी नजरो ने हवेली को देख लिया था , और देखता ही रह गया था , ऐसी शानदार ईमारत, कहने को तो कबीर के पिता का घर भी किसी महल से कम नहीं था पर इस ईमारत की निर्माण शैली अद्भुत थी,

कुछ लम्हों के लिए वो बस खो सा गया था और इसी अवस्था में वो मोड़ पर सामने से आती गाड़ी को नहीं देख पाया, बस टकराते टकराते बचा, पर जैसे ही नजरे संभली, वो फिर खो गया. ये प्रज्ञा की गाड़ी थी, , प्रज्ञा ने भी जैसे ही उसे देखा, सब भूल गयी वो .

गाड़ी से उतरते ही उसने कबीर के गाल पर एक थप्पड़ दिया और अगले ही पल उसे अपनी बाँहों में भर लिया.

“कमीने कहाँ था तू, तुझे ढूंढ ढूंढ कर मैं पागल हो गयी, हर पल मैं तुझे याद कर रही थी और तू भूल गया मुझे ”

“आहिस्ता से, ” मैं बस इतना बोल पाया.

पर प्रज्ञा को कहाँ ख्याल था उसने मुझे अपनी बाँहों में इस तरह जकड़ रखा था की उस पल यदि कोई और देख लेता तो वहीँ कत्ले आम हो जाना था

“कहाँ था, मेरी याद नहीं आई, ” उसने शिकायत करते हुए कहा

मैं- तुमसे मिलने ही तो आया हूँ ,

बस इतना ही कहा और मेरी आँखों से झरना फूट पड़ा, न जाने क्यों प्रज्ञा मेरी इतनी अपनी थी , मेरे आंसू उसके दामन को भिगोने लगे, उसके आगोश में मैं इस बारिश की तरह बरस जाना चाहता था .

प्रज्ञा- गाड़ी में बैठो.

मैं उसके पीछे पीछे गाड़ी में बैठा.

मैं- कहा चल रहे है ,

वो- पहले शहर, फिर ऐसी जगह जहाँ मैं जी सकू तुम्हारे साथ .

मैं- मेरी बात सुनो.

वो- तुम सुनो मेरी, वैसे तो मुझे बहुत कुछ कहना है पर अभी नहीं कहूँगी, और ये क्या हालत बना रखी है तुमने, और सबसे पहले ये बताओ इतने दिन तुम थे कहा, जानते हो हर जगह मैंने देखा, तुम्हारे खेत पर , जंगल में, तमाम जगह जहाँ तुम हो सकते थे और तुम थे की न जाने कहाँ लापता थे, जानते हो कितना घबराई थी मैं .

शहर आने तक पुरे रस्ते उसने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया बस अपनी ही गाती रही , हम उसके होटल आये, उसने कुछ देर अपना काम किया, फिर हमने साथ खाना खाया और फिर उसने कुछ फ़ोन किये, कुछ देर वो बात करती रही फिर हम वापिस जाने को तैयार थे,

मैं- अब कहाँ

वो- जहाँ बस हम दोनों हो.मेरे बाग़ पर

बाग़ पर पहुचते पहुचते आसमान पूरी तरह काला हो गया था , बिजलिया कडक रही थी , भीगते हुए मैंने गेट खोला और गाड़ी अन्दर आई, एक तो मेरी हालत वैसे ही ख़राब थी ऊपर से मैं भीग गया था . प्रज्ञा ने भी मेरी हालत को पहचान लिया था

प्रज्ञा- कबीर, ठीक तो हो न

मैं- हाँ

अन्दर कमरे में आकर मैंने अलमारी से तौलिया निकाला और खुद को पोंछने लगा. बिजली तो गुल थी प्रज्ञा ने लालटेन जलाई . उसके चेहरे पर नजर जाते ही मैं समझ नहीं पाया कौन ज्यादा खूबसूरत थी ये लौ, या प्रज्ञा.

प्रज्ञा- तुम कहाँ थे,

मैं- जहाँ मुझे नहीं होना था

प्रज्ञा- सीधे सीधे बताओ

मैं- जानना चाहती हो.

प्रज्ञा- हाँ

मैं- पक्का

प्रज्ञा- पहेली मत बुझाओ , अपने दोस्तों से कोई कुछ छुपाता है क्या

मैं- देखो फिर,

मैंने अपनी शर्ट उतार दी.
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RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश - by desiaks - 12-07-2020, 12:12 PM

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