RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#21
मैं अपना तमाम दर्द उसे बताना चाहता था पर होंठ बस हिल कर रह गए, बहुत कुछ था उस लम्हे में जो मैं उसके सीने लग कर कहना चाहता था पर कांपते होंठ अपने शब्द खो चुके थे . जब होंठ कुछ न कह पाए तो तमाम दर्द आंसू बन कर आँखों से झरने लगा. प्रज्ञा कुछ नहीं बोली पर उसके दिल ने मेरी धडकनों को महसूस कर लिया था .
आगे बढ़कर एक शिद्दत से उसने बस मुझे आगोश में भर लिया. मेरे आंसू उसके गालो पर गिरने लगे, एक आसमान वो था जो बाहर बरस रहा था एक आसमान मेरी आँखों में था , अपनी उंगलियों से मेरे ज़ख्मो के निशान को महसूस करते हुए , मेरे सीने से लगी वो बिना कुछ कहे बस सांत्वना दे रही थी मुझे ,
एक ऐसा लम्हा जिसमे, दर्द था, सकूं था , किसी अपने के साथ होने का अहसास था ,सब कुछ था इस लम्हे में जिसे मैं जी रहा था, बहुत देर तक हम एक दुसरे से आगोश में रहे. बारिश की वजह से ठण्ड बढ़ने लगी थी , जैसे गिरती बर्फ के दरमियाँ किसी को जलती आग मिल जाए, उसके बदन का मुझे छूना कुछ ऐसा ही था.
उसकी सुबकियो ने मुझे जताया की इस जहां में कोई तो था जिसे फ़िक्र थी मेरी , फिर वो मुझसे अलग हो गयी.
“किसने किया ये, किसकी इतनी जुर्रत जो मेरे होते हुए तुम्हे हाथ लगाये, मैं उसकी दुनिया फूंक दूंगी , आग लगा दूंगी इस जहाँ में मैं ” प्रज्ञा ने गुस्से स चीखते हुए कहा
मैं- ये बस नियति थी , दुःख था सह लिया.
प्रज्ञा- मुझे बताओ कबीर, , बताओ मुझे किसके साथ झगडा हुआ तुम्हारा
मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे पास सोफे पर बिठाया.
मैं- देखो, मेरी आँखों में देखो, क्या मैं तुमसे झूठ बोलूँगा , किसी से झगड़ा नहीं हुआ ,
प्रज्ञा- तो ये हाल कैसे हुआ तुम्हारा.
मैं- बताता हु, सब बताता हूँ,
मैंने उसे तमाम बात बताई , प्रज्ञा की आँखों में अजीब सा दर्द देखा मैंने, और आंसू भी .
“इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे खबर नहीं भिजवाई , क्या मैं इतनी परायी हो गयी कबीर ” पूछा उसने
मैं- सबसे पहले तुम्हे किसी को यद् किया तो वो बस तुम थी , तुम्हारे होटल बहुत संदेसे भेजे मैंने
प्रज्ञा- मैं जा नहीं पाई उधर, कुछ चीजों में उलझी थी , पर काश मुझे मालूम होता तो एक पल अकेला नहीं छोडती तुम्हे.
मैं- अब ठीक हूँ मैं, और भला तुम्हारे होते हुए मुझे कुछ हो सकता है क्या. बस अब जंगल पार करते समय सावधानी रखूँगा
“जंगल अब सुरक्षित नहीं रहा ” प्रज्ञा ने कहा
मैं- जानता हु,
प्रज्ञा- नहीं, तुम नहीं जानते, बीते दिनों में जंगल , जंगल नहीं रहा, लाशो का एक ढेर बनके रह गया है, दोनों गाँवो के बहुत से लोगो की कटी फटी लाशे मिली है , नोची हुई, बहुत दर्दनाक हालातो में और बहुत से जानवरों की भी
प्रज्ञा की बातो ने जैसे बम सा फोड़ा था .
मैं- पर किसने किया ऐसा.
प्रज्ञा- नहीं, मालूम , दोनों गाँवो की पंचायत भी हुई, अपनी अपनी तरफ पहरा भी लगाया पर कोई नतीजा नहीं , जानते हो जब तुम नहीं थे, जब जब मैंने लाशे मिलने की खबर सुनी , कलेजा घबराता था मेरा. मैं बता नहीं सकती क्या हालत थी मेरी,
मैं- समझता हु, पर अब जाने दो इन बातो को , दो पल साथ हो अपनी बाते करो, वैसे इस शानदार बारिश में तुम्हे मेरे साथ नहीं बल्कि किसी की बाँहों में होना चाहिए.
प्रज्ञा मुस्कुरा पड़ी मेरी बात सुनकर, बोली- जब मेरी उम्र के हो जाओगे तो ये सब सोच कर हँसा करोगे तुम.
मैं- तब की किसने सोची, अभी जो है उसकी बात कर सकता हूँ मैं तो
प्रज्ञा- अभी तो बस तुम और मैं है
मैं- और ये बारिश , ये तनहा रात जिसे झकझोर रही है बारिश की ये बूंदे, न जाने कितने सवाल करती होंगी ये इस रात से
प्रज्ञा- उनकी बाते वो जाने,
मैं- आओ एक एक पेग लेते है
प्रज्ञा- तुम भी न, तुम्हारे लिए ठीक नहीं है जानते हो न
मैं- जाम तो बहाना है , किस नशे की इतनी मजाल जो तुम्हारे सामने होते हुए बहका दे,
प्रज्ञा- ये जादुई बाते, किसी कमसिन पर झट से असर कर जाएँगी, मुझ पर नहीं .
मैं- तुमसे ये सब कहने की जरुरत भी नहीं मुझे, जितना इस धरती की आह को ये बादल समझते है ठीक उतना ही मुझे समझती हो तुम, जैसा मैंने कहा जाम तो बस बहाना है ,तुम साथ हो ऊपर वाले की मेहरबानी है , करम है .
प्रज्ञा ने हौले से मेरे माथे को चूमा और बोली- कभी तुम्हे इश्क हुआ तो वो कोई सौभाग्यशाली होगी , जिसके हाथो में तुम्हारा हाथ होगा,
मैं- कभी कोई मिलेगी तो तुमसे जरुर मिलवाऊंगा उसे, वैसे लगता नहीं मुझे ऐसा कुछ
प्रज्ञा- क्यों भला.
मैं- तुम्हे जो देख लिया, अब तुमसी भला कौन हो दूजी, तुम्हारी परछाई हो जो वो कहाँ मिले मुझे
प्रज्ञा के होंठो पर जैसे कोई बात आकर रुक गयी .
उसने पास रखी बोतल उठाई और दो जाम बना लिए.
“लो, ” गिलास मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा उसने
मैं- ऐसे नहीं
वो- तो कैसे
मैं- अपने होंठो से जरा छू लो न
बड़ी गहरी आँखों से उसने मुझे देखा, क्या ये मौसम का असर था या कुछ और जो मैंने बस उसे ऐसा करने को कह दिया था, और वो भी पक्की वाली थी,उसने मेरे गिलास से दो घूँट भरी और जाम मुझे दे दिया.
“आओ बारिश देखते है ,” उसने कहा और बाहर आ गयी.
मैं उसके पीछे पीछे आया
“जानते हो कबीर, जब मैं तुम्हारी उम्र की थी न तो घंटो अपनी खिड़की पर खड़ी होकर मैं बरिशे देखा करती थी .भीग जाना चाहती थी मैं बरसातो में, नाचना चाहती थी पर बस कुछ ख्वाब बस ख्वाब रह गए ” उसने ठंडी आह भरते हुए कहा
मैं- तो किसने रोका है , तुम हो और ये बरसात है कर लो अपना ख्वाब पूरा
प्रज्ञा- नहीं, जाने दो कबीर, एक मुद्दत हुई उन बातो को , अल्हड उम्र की शोखिया थी बस
मैं- फिर न कहना, देखो एक बरसात तब थी एक आज हैं , उस समय रही होगी कुछ भी बात जिसने तुम्हे रोका , पर आज कोई बंदिश नहीं , देखो ये लहराती हवा तुम्हे कह रही है अपने साथ झुमने को. ये गीली मिटटी पायल बनकर तुम्हारे पैरो में लिपट जाना चाहती है, ये बरसात तुम्हारे जिस्म को नहीं तुम्हारे मन को भिगोना चाहती है .
ये कहकर मैंने प्रज्ञा को आंगन में धक्का दे दिया.
“ओ कबीर, ये क्या किया ” बस इतना ही कह पायी वो क्योंकि बारिश ने अगले ही पल उसे अपने आगोश में ले लिए. प्रज्ञा भीगने लगी, मेरी तरफ देखते हुए उसने अपनी चुनरिया को उतार कर फेक दिया और दोनों हाथ फैला कर खड़ी हो गयी.
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